शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

 तलाश



स्वामी शान्तिदास अपने कमरे में आकर बैठे ही थे कि उनके ख़ास सेवक इन्दर ने आकर सुचना दी कि मशहूर फिल्म अभिनेत्री स्वर्णा कुमारी उनसे मिलने के लिए आ पहुंची है. स्वामीजी को याद आया कि आज ये मुलाकात तय हुई थी. वे पलंग पर लेटने के बजाय वहीँ एक आसन पर बैठ गए.  इन्दर जाकर स्वर्णा कुमारी जी को ले आया. स्वामीजी ऑंखें  बंद  किये बैठे थे. लम्बे बाल, दाढ़ी और चेहरे पर एक तेज स्वामी जी की पहचान बन चुका था. स्वर्णा ने स्वामीजी के चरण छुए और उनके सामने के आसन पर ही बैठ गई. स्वामीजी ने आँखें खोली. स्वामीजी ने जब स्वर्णा कुमारी का चेहरा देखा तो हैरान राह गए. स्वामीजी एक तरह से हिल गए भीतर तक. उनके माथे पर पसीना आ गया पल भर में ही. आँखें किसी तलाश में कहीं खो गई और जुबां कांपने लगी. स्वामीजी ने अपनी ऑंखें फिर बंद कर ली. स्वामीजी के मन में क्या तूफ़ान आया था इसका अंदाजा स्वर्णा कुमारी नहीं लगा  पा रही थी. जब स्वामीजी ने काफी  देर तक आँखें नहीं खोली तो स्वर्णा ने इस रहस्यमय चुप्पी तो तोड़ने को प्रयास किया.
 
स्वर्णा कुछ समझ नहीं सकी. उन्होंने कहा " मेरा प्रणाम स्वीकारें स्वामीजी." 
स्वामीजी ने खुद को संभाला और कांपती हुई आवाज में जवाब दिया " सदा खुश रहो."
स्वर्णा " स्वामीजी, मैं खुश कतई नहीं हूँ. इसी ख़ुशी की तलाश में आपके पास आई हूँ."
स्वामीजी ने संभलकर धीमी आवाज में जवाब दिया " देवी, अगर आप ही खुश नहीं है तो इस संसार में कौन खुश होगा. धन, दौलत, शोहरत और ऐशो-आराम की हर वस्तु आपके पास है. फिर खुश क्यूँ नहीं हो."
स्वर्णा " स्वामीजी, इन सभी से ख़ुशी नहीं मिलती. मन की शांति से सुख मिलता है. ख़ुशी हासिल होती है. मेरा मन शांत नहीं है."
स्वामी जी बोले " मन तो आज तक मेरा भी शांत नहीं है देवी और ना ही मैं खुश हूँ. किन्तु मन को शांत रखना और वश में रखना ही तो जिंदगी का संघर्ष है. जो हम सभी को जारी रखना होता है."
स्वर्णा " स्वामीजी, अगर आप भी यही उत्तर देंगे तो हम कहाँ जायेंगे शांति की तलाश में."
स्वामी जी " मैं स्वयं शांति की तलाश में दर दर भटक रहा हूँ. पन्दरह बरस बीत गए, मेरी तलाश अभी पूरी नहीं हुई."
स्वर्णा " स्वामीजी, कुछ तो उपाय बताएं आप. मैं बहुत ही ज्यादा परेशां हूँ. एक एक पल जीना बोझ बन चुका है. सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है."
स्वामी जी " देवी, बहुत कुछ पाने  के लिए जब हम ये थोडा कुछ खो देते हैं तो बाद में जब हमें बहुत कुछ मिल तो जाता है, मगर उस थोड़े से कुछ के ना होने से हमारी जिंदगी अधूरी रह  जाती है. हर इन्सान आज के युग में यही थोडा कुछ खोकर अपनी जिंदगी को नरक  बना चुका है. जब हम आवश्यकता से अधिक खुशियाँ और आराम तलाशना शुरू करते हैं तो अंत में यही  होता है. मन की शांति खो जाती है. कितने ही अपने बिछुड़ जाते हैं. इंसान धन-दौलत के ढेर पर हमेशा अकेलापन ही महसूस करता है. धन-दौलत ऐशो-आराम दे सकती है मगर मन की शान्ति नहीं दे सकती. जब हमारे अपने ही साथ नहीं रहेंगे तो मन की शांति मिलेगी कहाँ से?"
स्वर्णा ने हैरानी से स्वामीजी को देखा और बोली " स्वामीजी , मैं तो शुरू से अकेली ही थी स्वामीजी. कई मेरे साथ आए, कुछ देर साथ चले, फिर अलग हो गए. मगर यह नहीं पता कि आखिर किस की वजह से मैंने सब कुछ खोया है?"
स्वामी जी " आप अकेले में ध्यान लगाकर बैठें, वर्तमान भूलकर भूतकाल में जाएँ और आरंभ से अब तक धीरे धीरे याद कर सोचें. शायद आपको सब कुछ याद आयेगा तभी आपको अपनी समस्या का पता चल सकेगा."
स्वर्णा ने स्वामीजी से उनके आश्रम में दो दिन रुकने की अनुमति ले ली. इन्दर ने स्वर्णा को एक कुटिया नुमा कमरे में ठहरा दिया. उस कुटिया में ज़मीन पर एक बिस्तर लगा हुआ था। पास ही में मटके में पानी। स्वर्णा ने कुछ देर उस कुटिया को हिकारत से देखा मगर फिर कुछ सोचकर उसी बिस्तर पर बैठ गई। बिस्तर के करीब एक छोटी सी टेबल थी उस पर कुछ पुस्तकें भी थी। उसने देखा सभी पुस्तकें ध्यान, शांति और जीवन के ऊपर थी। उसने बेमन से एक एक किताब उठाई , पन्ने पलटे मगर जल्दी ही उसे सुस्ती आने लगी और वो उस बिस्तर पर लेट गई; लेटते ही उसे नींद आ गई. स्वर्णा करीब दो घंटों बाद उठी तब शाम हो चली थी. इन्दर एक सेविका के साथ चाय नाश्ता लेकर आया. इन्दर वहीँ रुक गया। स्वर्णा और इन्दर चाय पीने लगे. 
 
स्वर्णा ने इन्दर से पुछा " स्वामी जी कहाँ के रहने वाले हैं?" 
इन्दर ने जवाब दिया " मैं स्वामीजी के साथ पिछले बारह वर्षों से जुड़ा हुआ हूँ. स्वामी जी का जन्म स्थान तो मैं भी नहीं जानता मगर इतना पता है कि स्वामी जी मुंबई से ऋषिकेश आये और फिर यहीं आश्रम बना लिया. सारे देश में भ्रमण करते हैं स्वामी जी मगर अधिकांश समय इसी आश्रम में गुजारते हैं. "
स्वर्णा की उत्सुकता और बढ़ गई ये सुनकर के स्वामी जी मुंबई से आए थे. मगर इन्दर को मुंबई के जीवन की जानकारी नहीं थी स्वामी जी के.
शाम को स्वर्णा स्वामी जी के प्रवचन में शामिल हुई. स्वर्णा बार बार स्वामी जी के शब्दों को सुनकर ना जाने क्या याद करने की कोशिश करती जो असफल ही हो रही थी. उसे स्वामी जी के शब्दों में से कुछ कुछ शब्द पहले भी कहीं सुने हुए से लग रहे थे. मगर कब और कहाँ सुने कुछ याद नहीं आ रहा था. रात को भी स्वर्णा सोते हुए यही याद करने की कोशिश करती रही. अगले दिन सुबह स्वर्णा फिर से स्वामी जी से मिलने पहुंची. स्वामी जी पूजा से उठे ही थे. स्वामी जी स्वर्णा को देखकर चौंक गए क्यूंकि स्वर्णा से अभी उनकी कोई मुलाकात होनी तय नहीं हुई थी. स्वर्णा ने प्रणाम किया हाथ जोड़कर और बोली " स्वामी जी, इन्दर जी मुझे बताया कि आप मुंबई से ऋषिकेश आए थे. मुंबई में आप क्या करते थे? "
स्वामी शान्तिदास इस सवाल से घबरा गए. स्वामी जी ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और बोले " आशा है आपका कल का दिन अच्छा बीता होगा."
स्वर्णा ने फिर पूछा " स्वामी जी आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. मैं यह सिर्फ जिज्ञासावश पूछ रही हूँ क्यूंकि मैं भी मुंबई में सत्रह सालों से रह रही हूँ."
स्वामी जी " मैं एक नौकरी करता था , मगर दिल नहीं लगता था काम में. इसीलिए यहाँ आ गया. अब तो भगवान भक्ति में ही दिल लगता है."
स्वर्णा को ना  जाने ऐसा क्यूँ लगा कि स्वामी जी का जवाब सही नहीं है. वो कुछ छुपा रहे हैं. मगर वो उन्हें मजबूर भी नहीं कर सकती थी क्यूंकि वो खुद  अपनी समस्या लेकर उनके पास आई थी. स्वामी जी स्वर्णा को साथ लेकर मंदिर में आ गए. वहाँ कई और भक्त मौजूद थे. स्वामी जी का प्रवचन आरम्भ हो गया.
स्वामी जी बोलने लगे " हम कई बार अपने स्वार्थ के कारण कई अच्छी वस्तुओं और लोगों को ठुकरा देते हैं. आखिर ऐसा क्यूँ? उस समय हमारा मस्तिष्क काम क्यूँ नहीं करता? समय बीत जाने के पश्चात ही हमें इस गलतीयों का अहसास क्यूँ होता है?  इसका उत्तर है उस वक्त हमें सिर्फ हम स्वयं ही दिखाई देते हैं. हमें हमारे सिवाय सभी पराये और हमसे इर्ष्या करने वाले लगते हैं. हमें ऐसा आभास होता है उस समय कि ये सभी लोग या कोई एक जो हमें आगे बढ़ने के लिए हमारे द्वारा अपने अपनाए जा  रहे तरीको को गलत बतला रहे हैं वे या वो हमारी सफलता नहीं देखना चाहता है. इसीलिए वो हमारे हर कदम को गलत बतला रहा है. यही है हमारी आज के मन की अशांति का मूल कारण. जब अकेलापन हमारे चारों ओर फ़ैल जाता है तभी हमें इन सभी गलतीयों का एहसास होता है मगर कई दफा तब तक काफी देर हो चुकी होती है. हमें पश्चाताप का अवसर तक नहीं मिलता है. फिर जिंदगी एकाकी हो जाती है. इसलिए हमें हर समय सभी अपनों की बातों को ध्यान से सुनने के पश्चात ही कोई बड़ा कदम उठाना चाहिए. अगर सभी उस कदम को गलत कह रहे हैं तो खुद के मन के विपरीत जाकर उस कदम को पीछे हटा लेना चाहिये. पीछे खींच लेना चाहिये. गलत दिशा में जिद वश आगे ना बढ़ कर वहीँ कुछ देर खड़े रहकर सोचकर फिर कोई दूसरा निर्णय लेना चाहिये. यही हमारी जिंदगी का मूलमंत्र होना चाहिये. आप अब ध्यान लगाकर मेरी कही बातों को मन ही मन में सोचें और मनन करें. जय गंगा मैया की. सभी को मेरा प्रणाम."
 
स्वर्णा को इस प्रवचन को सुनने के पश्चात एक तरह से पूरा यकीन हो गया कि हो ना हो इस इंसान से वो पहले कहीं मिल चुकी है और उसकी ऐसी बातें वो पहले भी सुन चुकी है. मगर याद कुछ भी नहीं आया उसे. दोपहर में स्वर्णा स्वामी जी के आश्रम में अलग अलग लोगों से मिलने पहुंची. कई लोग उसे जानते थे क्यूंकि वो आज फ़िल्मी दुनिया की एक स्थापित हिरोईन थी. 
 
स्वर्णा को आश्रम के एक कोने में एक बड़ी उम्र के बाबा मिले. पूछने पर पता चला कि ये स्वामी शान्तिदास जी के गुरु हैं. स्वर्णा ने उनसे स्वामी जी के बारे में पुछा. बाबा ने जवाब दिया " शान्तिदास मुंबई से आया था. बहुत तनावग्रस्त और हर तरह से टूटा हुआ. उसके धंधे के साझीदार ने उसका साथ एकाएक छोड़ दिया था. शान्तिदास और वो लड़का दोनों एक साथ उस शहर में आए थे अपना भविष्य तलाशने. शान्तिदास ने बताया कि उसने लाख समझाया मगर उसके साझीदार उसे छोड़कर स्वार्थी और धूर्त लोगों के साथ मिलकर जिंदगी में बहुत कुछ पाने के लिए अलग हो गया. शान्तिदास को लाखों का नुकसान  हो गया. उसकी सभी पूंजी ख़तम हो गई. उसके पास कुछ नहीं बचा. 
शान्तिदास पहले से इस संसार में अकेला ही था और उसके बाद हर तरह से टूटकर अकेला रह गया. वो मरना चाहता था गंगा मैया में कूदकर. हमने उसे  बचाया. समझाया और आश्रम में लेकर आ गए. यहाँ वो भक्ति में लीन हो गया और मैंने उसे शान्तिदास नाम दे दिया. क्यूंकि उसने शांति पाने का रास्ता स्वत: ही खोज लिय़ा था. उसने जिस तरह से अपने आप को बदला, संभाला और बाद में कितने ही और अपने जैसे लोगों को शांति का मार्ग दिखलाया शान्तिदास नाम अब सार्थक हो चुका है उसका. अब मैंने आश्रम की सभी गतिविधियाँ उसी को सौंप दी है. शान्तिदास अब मेरा सबसे करीबी शिष्य है. मगर फिर भी सब कुछ होते हुए भी वो आज तक उस घटना को नहीं भुला पाया है."
स्वर्णा ने स्वामी जी की कहानी सुनी तो उसकी आँखों में से आंसू की धारा बह निकली. उसे स्वामी जी की कहानी बहुत जानी पहचानी लगी मगर फिर भी उसे सब कुछ ऐसा याद नहीं आया जिस से उसे यह पता चल सकता कि आख़िरकार उस शान्तिदास स्वामी के शब्द और भाषा इतनी जानी पहचानी क्यूँ लग रही है.
स्वर्णा दो दिन बाद मुंबई लौट गई क्यूंकि उसकी एक फिल्म का प्रीमियर शो था.
 
मुंबई आने के बाद भी स्वर्णा स्वामी जी को नहीं भुला पाई. फिल्म के प्रीमियर शो के बाद स्वर्णा फिर से ऋषिकेश पहुँच गई. स्वामी शान्तिदास को जब ये खबर मिली तो स्वामी जी एकाएक यात्रा पर निकल गए.  स्वर्णा एक बार फिर उन बाबा के पास गई. बाबा ने शाम को मिलने का कहा.
स्वर्ण आकर अपने कमरे में बैठ गई. उसे अपना बीता हुआ समय याद आने लगा. उसे या भी याद आया कि वो किस तरह इन परिस्थितियों में पहुंची. स्वर्णा एक ऐसे दौर से गुज़र रही थी जो उसे भीतर से हिला चुका था. स्वर्णा फिल्मों में पिछले पंद्रह सालों से हैं मगर पिछले दस सालों में उसने कई सफलताएं प्राप्त की. वो एक एक्स्ट्रा की हैसियत से फिल्मों में आई मगर तीन-चार साल के संघर्ष के बाद उसकी गाडी चल निकली. 
वो एक बड़े निर्माता के साथ ने उसे कई फ़िल्में दिलवाई। .मगर ये दोस्ताना संबंध दो साल ही रहा.. फिर स्वर्णा ने एक अरबपति फायनेंसर से दोस्ती की और उसके सहारे अपने केरियर को चमकाया। इस से उसका करियर बहुत चल निकला. उस फायनेंसर की मदद से स्वर्णा ने एक के बाद एक कई हिट फ़िल्में दी. मगर सात साल के बाद दोनों के संबंध ख़त्म हो गए., जब उस फायनेंसर ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा तो स्वर्णा ने उस से सम्बन्ध ख़त्म कर लिए।
फिर उस फायनेंसर ने किसी नयी विदेशी मूल की हिरोईन से संबंध बना लिए. स्वर्णा इस घटना से बिलकुल टूट गई. उसका केरियर  धीरे धीरे ढलान पर आ गया. वो अब अकेली हो गई. बड़े बड़े निर्माता  निर्दशक उस से दूर होने लगे. बहुत कम फ़िल्में उसे मिलती. 
 
स्वर्णा ने एक आखिरी कोशिश की एक बड़े हीरो के साथ दोस्ती के रिश्ते को  बनाकर फिर से कुछ करने की. मगर उस हीरो की पत्नी ने ऐसा नहीं होने दिया. भरी प्रेस में उस हीरो की पत्नी ने स्वर्णा को थप्पड़ मारकर अपने पति से दूर रहने की बात कह दी. इस घटना के बाद स्वर्णा ने खुद एक फिल्म बनाई और लोगों ने इसे पसंद भी किया. अच्छी कमाई भी हुई. स्वर्ण ने एक और फिल्म बनाई खुद के लिए. ये भी ठीक ठाक चली. मगर अब स्वर्णा को अकेलापन खाने लगा था. इतने धोखे खाने के बाद उसे अब हर कोई धोखेबाज और फरेबी ही लगने लगा था.  स्वर्णा धीरे धीरे नशा करने लगी. फ़िल्मी जगत में स्वर्णा के नशे की लत की खबर आग की तरह फ़ैल गई और लगभग हर कोई उस से दूर हो गया।
 
एक दिन स्वर्णा के एक हमदर्द ने उसे ऋषिकेश के स्वामी शान्तिदास जी के बारे में बताया. स्वर्णा ने इसे एक अंतिम मौका समझा और ऋषिकेश आने को तैयार हो गई. स्वर्णा इन सब पिछली बातों को याद कर सोचने लगी कि वो आई थी मन की शांति की तलाश में औरक्यूँ स्वामी जी को लेकर इतना परेशां हो रही है. 
सुबह स्वर्णा को इन्दर ने बताया कि स्वामीजी हरिद्वार के कनखल में गंगा घाट पर बने जानकी कुटीर आश्रम में है. स्वर्णा तुरंत वहाँ के लिए रवाना हो गई. 


स्वर्णा जब कनखल पहुंची तो स्वामी शान्तिदास गंगा किनारे बनी सीढियों पर बैठे हुए थे. उनके दोनों पैर गंगा के पानी में डूबे हुए थे. स्वर्णा स्वामी जी के पास बैठ गई. शान्तिदास को ज़रा भी आभास नहीं हुआ कि कोई उनके पास आकर बैठा है. शान्तिदास पिछले दो घंटों से इसी तरह बैठे हुए थे.
तभी उनके एक शिष्य ने आकर कहा " स्वामी जी, भोजन कर लीजिये. आप ने सुबह से कुछ नहीं खाया है."
शान्तिदास " मेरा मन बहुत विचलित है आज. मैं शाम की आरती के बाद ही खाऊंगा. तुम जाओ और मेरे लिए निम्बू का रस भिजवा दो "
स्वर्णा ने स्वामी जी के सामने आकर बैठते हुए कहा " प्रणाम स्वामी जी "
शान्तिदास स्वर्णा को देखकर चौंक गए. उनकी आँखें हैरान राह गई. स्वर्णा ने देखा कि स्वामी जी के चेहरे पर कुछ घबराहट के भाव आ गए थे. स्वर्णा ने फिर कहा " क्या बात है स्वामी जी? आपकी तबियत ख़राब है क्या?"
शान्तिदास ने खुद को संभाला और धीरे से कहा " नहीं, मैं ठीक हूँ. आपको यहाँ का पता किसने दिया?"
स्वर्णा ने जवाब दिया " इन्दर जी ने "
शांति दास ने पूछा " आपको कोई विशेष कार्य है मुझ से?"
स्वर्णा ने जवाब दिया " जी स्वामी जी, मैं जब से आप से मिली हूँ, आपके मुंबई से आने का सुना है. ना जानेमुझे ऐसा क्यूँ लग रहा है कि शायद आपकी कहानी मुझे कुछ जानी पहचानी सी लग रही है. अगर आपको कोई आपत्ति ना हो तो क्या आप मुझे आपकी मुंबई की जिंदगी के बारे में बतला सकते हैं?"
शान्तिदास ने थोडा क्रोधित होते हुए कहा " देखिये देवी जी, आज मेरा स्वास्थ  ठीक नहीं है. मैं विचलित हूँ सुबह से. सरदर्द और कमजोरी है. आप मुझे परेशान  ना करें. फिर आपको इन सब बातों से क्या लेना देना ? आप अपने मन की शांति तलाशने आई थी. उसी को तलाशने  का उपाय मैंने बताया था आपको. उसे अमल में लाईये. इधर उधर मन भटकायेंगी तो मन के शांति किस तरह प्राप्त होगी आपको?"
 
स्वर्णा मन ही मन सोचने लगी कि स्वामी जी का इस तरह से उससे मिलते ही विचलित होना कुछ शंका तो पैदा कर ही रहा है. स्वर्णा ने स्वामी जी से अपने सवालों के लिए माफ़ी मांगी और शाम को देहरादून लौटकर मुंबई की फ्लाईट पकड़ ली. स्वर्णा मुंबई आने के बाद लगातार अपने बीते दिनों को खंगालने लगी कि आखिर स्वामी जी का मुंबई में उसकी जिंदगी से क्या ताल्लुक हो सकता है?  मगर हर बार की तरह वो असफल ही रही.
शान्तिदास ने अपने गुरु जी से आज्ञा ली और कुछ दिनों के लिए जोशीमठ के लिए निकल पड़े. जोशीमठ ने दुर्गम पहाड़ियों के मध्य शांति दास के गुरु का एक आश्रम था. शान्तिदास वहीँ रुके. हर तरह के लम्बे और बड़े बड़े पेड़, कल कल बहती नदी. शान्तिदास आश्रम के एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बैठ गए. शान्तिदास में मन की शांति अशांति में बदल गई थी. 
शान्तिदास सुबह उस पेड़ के नीचे बैठा तो वो अतीत में लौट गया.
 
एक नौजवान मुंबई में नया नया आया था. उसकी लेखनी में दम था, शब्दों में पकड़ थी. वो नाटक और फिल्मो के लिए लिखना चाहता था. मुंबई में जल्द ही उसे एक प्रोडक्शन हाउस में एंट्री मिल गई. उसकी एक कहानी पर एक कलात्मक फिल्म भी बनी. मगर कमर्शियल फिल्मो के हिसाब से उसकी लेखनी को किसी ने पसंद नहीं किया. उसने जगह जगह मिलकर कोशिश की , मगर कुछ हासिल नहीं हुआ. एक दिन वो एक स्टूडियो में बैठा हुआ था . तभी उसने एक खूबसूरत लड़की को भी वहाँ आते देखा. उसे लग गया कि ये लड़की भी उसी की तरह काम की तलाश में है. उसकी शकल बता रही थी.
हुआ ये कि दोनों ही निराश उस ऑफिस से निकले. बस स्टॉप पर उस लड़की ने पूछा " तुम क्या हीरो बनने आए हो?" जवाब मिला " नहीं , मैं कहानियां लिखता हूँ. एक फिल्म आई थी इमारत. कला फिल्म थी. मेरी ही कहानी थी. तारीफ़ हुई मगर बाद में कोई काम नहीं मिला. काम की तलाश में दर  दर  भटक रहा हूँ." लड़की बोली " मेरा नाम सोना है. गुरदासपुर से आई हूँ. तुम्हारा नाम?" 
वो बोला " मैं  भोपाल से हूँ. मेरा नाम प्रभाकर जोशी  है."
सोना " कहाँ रहते हो?"
प्रभाकर " दादर में एक जगह पेइंग गेस्ट हूँ."
सोना " महीने का कितना देते हो वहाँ?"
प्रभाकर " पंद्रह सौ , सुबह की एक कप चाय मिलती है इसमें."
सोना " मेरे लिए भी बात कर लो. मैं खार में तीन हज़ार दे रही हूँ. अब पैसे भी  ख़तम  हो रहे हैं."
प्रभाकर " आज अभी चलो, दोपहर को घर ही मिलती है आंटी."
दोनों की यह पहचान दोस्ती में बदल गई. दोनों एक ही घर में पेइंग गेस्ट्स बन गए. साथ साथ स्ट्रगल करने लगे. धीरे धीरे दोस्ती अच्छी हो गई. सभी जगह एक दूजे के लिए सिफारिश करते. सोना को दो तीन फिल्मों में छोटे छोटे रोल मिले. प्रभाकर को दो फिल्मों में डायलोग लिखने का काम मिला. दोनों की दोस्ती बहुत गहरी हो गई. दो साल में ही दोनों को ठीक ठाक सफलता मिल गई. दोनों एक दूजे को एक दूजे के लिए भाग्यशाली समझने लगे. कुछ समय बाद दोनों को यह लगा कि शायद वे दोनों एक दूजे को कुछ कुछ पसंद भी करने लगे हैं. सब कुछ अच्छा चल रहा था. अचानक कुछ ऐसा हुआ कि सोना को यह लगने लगा कि प्रभाकर का साथ उसे नुकसान पहुंचा रहा है.  अगर उसका साथी कोई हीरो / निर्माता निर्देशक या फायनेंसर हो तो फायदा ज्यादा होगा. सोना प्रभाकर से दूरी बनाने लगी. प्रभाकर समझ नहीं सका इन सब  को. फिर अचानक सोना की जिंदगी में कमल किशोर आ गया. नया नया हिट निर्माता. सोना ने  कमल किशोर का सहारा  ले लिया., प्रभाकर को जब यह सब पता चला तो उसने सोना को फ़िल्मी जगत की सच्चाई बताई. उसे हर तरह से आगाह किया. 
मगर सोना को एक ऐसा सहारा नज़र आया कमल किशोर में जो उसे कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचा सकता था. और हुआ अभी यही. अगले तीन सालों में सोना की तीन फ़िल्में आई कमल किशोर की और तीनों सुपर हिट रही. कमल किशोर ने भी इसकी वजह से करोड़ों रुपये कमाए।  इन तीन सालों में सोना प्रभाकर को पूरी तरह से भूल गई. प्रभाकर छोटी मोटी विज्ञापन फिल्मे की स्क्रिप्ट्स लिखता. कभी किसी फिल्म में डाय्लोग्स लिखने का सहायक के तौर का काम भी मिल जाता. उसकी गाडी एक माध्यम वर्गीय इन्सान की तरह से चल रही थी. अब उसमे और सोना में सदीयों लंबा फासला था. प्रभाकर सोना को नहीं भूल सका था. जबकि सोना कब का उसे भूलकर कहीं आगे बढ़ चुकी थी.
 
कभी किसी फ़िल्मी समारोह में सोना और प्रभाकर आमने सामने आते तो सोना प्रभाकर को कभी नोटिस भी नहीं करती.  एक बार ऐसे ही एक समारोह में प्रभाकर ने सोना से जब उसके हल चाल पूछे तो सोना ने उसकी तरफ अनजानी नज़र डाली और ऐसे देखा जैसे वो उसे पहचानती नहीं है. इसके बाद प्रभाकर को इस व्यवहार से बहुत धक्का लगा था. प्रभाकर ने भी इस घटना के बाद सोना के सामने जाना बंद कर दिया. सोना अब स्वर्णा कुमारी बन चुकी थी. उस ने नाम बदल लिया था और इसी नाम से वो और अधिक हिट फ़िल्में  देने लगी.
प्रभाकर का लेखक के रूप में फ़िल्मी करियर एक दिन अचानक चमका जब उसकी एक कहानी को एक बहुत बड़े निर्माता-निर्देशक ने पसंद कर लिया और फिल्म बनाई. फिल्म जबरदस्त हिट हो गई. प्रभाकर की मांग बढ़ गई. अगले तीन सालों में प्रभाकर फ़िल्मी दुनिया में सबसे महँगा लेखक बन चुका था. प्रभाकर मगर अब तक सोना को नहीं भूल सका था. उसे रह रहकर सोना का इस तरह से छोड़ देना  अखरता रहता था. धीरे धीरे प्रभाकर का मन अशांत होने लगा. उसका दिल हर वक्त उचटा हुआ रहता. उसका लेखन प्रभावित होने लगा. उसे शराब की लत लग गई. सबसे महंगा लेखक केवल छः महीनों में अब बिना काम का हो गया था. प्रभाकर मन ही मन सोना से इतनी मौहब्बत करने लगा था कि वो अब अख़बार या पत्रिका में उसकी किसी के साथ तस्वीर तक देखना पसंद नहीं करता था. एक एक कर के उसके सभी दोस्त उस से दूर होते चले गए. प्रभाकर अस्पताल में दाखिल हुआ. बड़ी मुश्किल से शराब की आदत छूटी .
 
प्रभाकर जब अकेलेपन की तमाम हदें पर कर गया तो एक दिन उसने मुंबई में अपना सब कुछ बेच दिया और बदहवाशी के हालात में हरिद्वार चला  आया. दो दिन रुकने के बाद वो ऋषिकेश गया गंगा आरती के लिए. उसने यह सोच लिया कि गंगा आरती के बाद वो गंगा जी में जल समाधी ले लेगा. उस शाम गंगा आरती के बाद प्रभाकर घाट  से धीरे धीरे एक एक कर सीढीयाँ उतरता गया और गंगा जी में उतरता गया. जब उसका सिर्फ सिर ही दिखाई देने लगा तो कुछ साधुओं ने कोई आशंका होती देख उसे खींच कर बाहर निकाला और अपने आश्रम में लेकर आ गए. प्रभाकर दो तीन दिन तक खामोश रहा. बाद में उस आश्रम के बाबा ने प्रभाकर से सब पूछा तो प्रभाकर ने सही बात ना बता कर कुछ कहानी को बदलकर हकीकत जैसी बनाकर बता दी. 
प्रभाकर बाबा के सानिध्य में भगवान भक्ति में लग गया. सिर्फ आठ-दस  महीनों में ही प्रभाकर एक सामान्य इंसान से स्वामी शान्तिदास बन चुका था. हरतरफ उसके प्रवचनों और कही गई बातों की चर्चा होने लगी. उसकी कलम में जादू तो था ही पहले से , वो अब अपने लिखे शब्दों को खुद बोलता तो उन शब्दों का जादू भक्तों के सर पर जादू की तरह चढ़कर बोलने लगा। जो कोई उसकी शरण में आता वो अपनी सभी समस्याओं को सुलझाकर ही वापस लौटता क्यूंकि लेखक होने की वजह से उसकी समझ और सोच काफी गहरी थी। कई बड़े बड़े उद्योगपति, फिल्म जगत की हस्तियाँ, राजनिति के बड़े बड़े नेता तक उसकी शरण में आने लगे. इन्दर शान्तिदास का ख़ास सेवक था. वो शान्तिदास का पूरा ख़याल रखता. कौन कब मिलेगा सब वो ही तय करता. इसी इन्दर ने एक दिन शान्तिदास को कहा कि मुंबई के स्वर्णा कुमारी नाम की बहुत बड़ी अभिनेत्री उस से मिलना चाहती है. वो अपने जीवन से तंग आ चुकी है.
 
वो स्वर्णा का नाम सुनकर हैरान रह गया। वो स्वर्णा से किसी रूप में मिलना नहीं चाहता था। शान्तिदास चाहकर भी स्वर्णा से मुलाक़ात के लिए मना नहीं  कर सकता था क्यूंकि आज तक उस ने किसी को मिलने के लिए ना नहीं कहा था. बड़े भारी मन से उसने हाँ कह दी.
 
तभी शांति दास की तन्द्रा टूटी और वो अतीत से वर्तमान में लौट आया. इन्दर सामने खडा था. इन्दर ने शान्तिदास से अचानक इस आश्रम में रुकने का करण पूछा और उनकी ऐसी स्थिति का कारण भी पूछा तो शान्तिदास ने बड़े भारी मन से इन्दर को अपनी और स्वर्णा की आज तक की कहानी बतला दी. इन्दर एक गहरी सोच में डूब गया. उस वक्त तो वो कुछ ना बोला, मगर सारी रात वो जागता रहा और शान्तिदास के बारे में उस कहानी को लेकर सोचता रहा.


 सवेरे इन्दर शान्तिदास के साथ गंगास्नान के बाद ध्यान में बैठ गया. ध्यान के बाद इन्दर ने शान्तिदास से कहा " स्वामी जी, जिस स्थिति में आप बरसों पहले मुंबई छोड़कर ऋषिकेश आए थे. आज उसी स्थिति में स्वर्णा देवी भी मुंबई से बार बार ऋषिकेश आ रही है.. आप स्वर्णा देवी से अलगाव को सहन नहीं कर सके. स्वर्णा देवी असफलता को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है. अब वो अकेलेपन की सभी सीमाएं पारकर एक अत्यंत ही दुखदायी स्थिति में पहुँच चुकी है. आज स्वर्णा देवी एक ऐसे सहारे की तलाश में है जो उन्हें ना केवल इस गंभीर स्थिति से निकलने में मदद के बल्कि आगे के लिए भी एक सच्चा साथी बन सके. आप भी उन दिनों इसी स्थिति में थे. मैं तो यह भी मानता हूँ कि स्वामी जी आप आज भी उन दिनों सी स्थिति से उभरे नहीं है. मैं पहले दिन से आपके करीब रहा हूँ. मैं आपको ना सिर्फ जानता हूँ बल्कि समझता भी हूँ आपके दिल की बातों को. स्वामी जी , आप को आज भी स्वर्णा देवी की तलाश है और स्वर्णा देवी को आज आप जैसे मन से चाहने वाले सहारे की तलाश है. आप जिस की तलाश में यहाँ आये थे, वो स्वयं आपकी तलाश में यहाँ तक आ पहुंची है. आप दोनों की तलाश यही समाप्त हो जानी चाहिये. ऐसा मेरा विचार है."
शान्तिदास इन्दर की बातों को बहुत ही गौर और आश्चर्य के साथ सुन रहा था. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि इन्दर इतनी गहरी और स्पष्ट बात कैसे आसानी से कहता जा रहा है! जो तलाश कभी पूरी नहीं होगी, ऐसा शान्तिदास आज तक सोच रहा था. इन्दर ने स्वर्णा के साथ उसके संबंधों के बारे में सब जानकर उसे वो बतला दिया जो शायद वो कभी सोच नहीं सकता था. इन्दर ने शान्तिदास की तरफ देखा और बोला " स्वामी जी, अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं स्वर्णा देवी से यह सब वार्ता विस्तार से कर लेता हूँ. मुझ से आपका एकाकीपन सहन नहीं हो रहा है अब जबसे आपने स्वर्णा देवी के बारे में सब बताया है."
शान्तिदास कुछ ना बोला. वो आश्रम में अपनी कुटिया में आकर लेट गया. इन्दर ने कुछ देर पश्चात कुटिया में झांककर देखा तो स्वामी जी गहरी नींद में थे. इन्दर ने स्वामी जी के शांत ओजस्वी चेहरे को देखा और मन ही मन सोचा " स्वामी जी, आज एक बहुत ही लम्बे अरसे एक पश्चात इतनी शांति और संतुष्टता के साथ नींद ले रहे हैं. इसका यही मतलब है कि स्वामी जी को मेरा प्रस्ताव मंज़ूर है. अब मुझे स्वामी जी के जवाब का इंतजार किये बिना स्वर्णा देवी से बात कर लेनी चाहिये."
 
इन्दर ने ऋषिकेश लौटकर स्वर्णा का मुंबई में टेलीफोन नंबर निकाला और उसके हाथ फोन की तरफ बढ़ गए. स्वर्णा अपने कमरे में बैठी चाय पी रही थी. तभी फोन की घंटी बजी. स्वर्णा ने फोन उठाया और बोली " हेलो,कौन है?"
इन्दर " जी मैं स्वामी शान्तिदास जी के आश्रम ऋषिकेश से इन्दर बोल रहा हूँ, क्या मेरी बात सोना जी से हो सकती है ?"
स्वर्णा इन्दर के मुंह से सोना नाम सुनकर चौंक गई. इन्दर को उसका यह नाम कैसे पता? स्वर्णा बोली " इन्दर जी मैं स्वर्णा बोल रही हूँ. मगर आपको मेरा यह नाम कैसे पता चला?"
इन्दर बोला " यह सब मैं आपको जोशीमठ आने पर बताऊंगा. आप पहली फ्लाईट से देहरादून आ जाइए. एयरपोर्ट पर हमारे आश्रम का सेवक आपको कार के साथ मिल जायेगा. स्वामी जी आपसे मिलना चाहते हैं. कुछ जरुरी सन्देश है आपके लिए. शायद आप जिस तलाश में हमारे आश्रम आई थी. वो तलाश पूरी ही चुकी है."
स्वर्णा ने दूसरे दिन सवेरे सवेरे की फ्लाईट में टिकट बुक करवा लिया और करीब नौ बजे वो देहरादून के एयरपोर्ट पर उतर चुकी थी. गेट पर एक गेरुयें कुरते में एक युवक उसके पास आया और बोला " स्वर्णा देवी , मैं स्वामी शान्तिदास जी के आश्रम से हूँ, हमें इसी वक्त जोशीमठ निकलना है." स्वर्णा उसके साथ जोशीमठ के लिए निकल पड़ी. पूरे रास्ते वो बीती रात की तरह लगातार सोचती रही कि आखिर ये शान्तिदास है कौन जिससे मिलने के बाद उसकी जिंदगी में बहुत ज्यादा उथल पुथल हो गई है. वो अनजान होकर भी इतना जाना पहचाना क्यूँ लग रहा है. वो खुद को भूलने लगी है और स्वामी जी के बारे में सोचने लगी है. अब अचानक स्वामी जी का यह सन्देश कैसे आ गया? इन्दर को उसका सोना नाम किस तरह पता चला? क्या स्वामी जी उसे पहले से जानते हैं? या किसी ने स्वामी जी को उसका अतीत बतला दिया है? स्वामी जी ने कनखल में उसे डांटकर भगा दिया था और अब अचानक फिर से बुलाया है और वो भी जोशीमठ? ये क्या माजरा है? एक के बाद एक कई सवाल उसके जहाँ में घूमने  लगे.
ऊँची पहाड़ियों को पार कर  अब कार उबड़ खाबड़ रास्ते पर चलने लगी. करीब आधे घंटे इसी तरह के रास्ते पर चलने के बाद सामने एक आश्रम दिखाई दिया. चार-पांच कुटियाएँ बनी हुई थी. खूब हरियाली थी. कार रुकी तो सामने इन्दर खड़ा था. उसने स्वर्णा को देखा और बोला " नमस्ते, आईये." स्वर्णा ने तुरंत इन्दर से पुछा " आपको मेरा सोना नाम कैसे पता चला?" इन्दर मुस्कुरा दिया और बोला " जी अब इन सवालों का कोई अर्थ नहीं है. स्वामी जी से मिल लीजिये. आपके सभी प्रश्नों के उत्तर उनके पास है और सभी समस्याओं का भी. वे आपका ही इंतजार कर रहे हैं. आइये."
 
स्वर्णा की उत्सुकता अब चरम पर पहुँच गई. इन्दर ने आश्रम में ही पीछे एक ऊँची पहाड़ी के पीछे बहने वाले झरने के पास ले जाकर कहा " वो रहे स्वामी जी, आप मिल लीजिये. आपकी तलाश पूरी हुई मन की अशांति की. नया जीवन शुभ हो. "
स्वर्णा ने एक बार फिर इन्दर की तरफ देखा. मगर वो इन्दर के चेहरे से कुछ पढ़ ना पाई. इन्दर जा चुका था. स्वर्णा ने देखा स्वामी जी झरने के बहते हुए पानी में पाँव लटकाए हुए उसकी तरफ पीठ किये बैठे हैं. स्वर्णा को याद आया कि इन्दर ने बतलाया था कि स्वामी जी को इसी तरह बहते हुए पानी में पैर लटकाकर बैठना बहुत सुकून देता है. स्वर्णा स्वामी जी के ठीक पास जाकर स्वामी जी की तरह ही बैठ गई, जब स्वर्णा ने अपने दोनों पैर पानी में डाले तो उसे उसकी ठंडक से बहुत ही सुख पहुंचा. स्वर्णा की आहट से शान्तिदास के तन्द्रा टूटी उसने देखा कि स्वर्णा उनके पास बैठी है तो वे चौंक गए. स्वर्णा ने देखा कि स्वामी जी का चेहरा एकदम शांत है. मगर मन पूरी तरह से अशांत है. वो बोली " मेरे लिए क्या आज्ञा है स्वामी जी? इन्दर जी ने मुझे अचानक यहाँ बुलाया है. उन्हें मेरा सोना नाम किस तरह पता चला ?" स्वामी जी कुछ ना बोले. तभी स्वर्णा को इन्दर आता दिखाई दिया, उसके हाथ में एक ट्रे थी जिसमे शायद चाय थी. इन्दर ने ट्रे वहीँ रख दी. फिर स्वर्णा की तरफ एक अलग मुस्कान से देखा और बोला " सोना देवी अब आप सुकून के साथ प्रभाकर जी के साथ चाय पीजिये और अपने अपने मन की शांति की तलाश को समाप्त कीजिये."
 
इतना कहकर इन्दर चला गया. स्वर्णा इन्दर के मुंह से स्वामी जी के लिए प्रभाकर नाम सुनकर ऐसा चौंकी कि वो उठ खड़ी हुई और स्वामी जी की तरफ बहुत गौर से देखने लगी . जब काफी देर तक उसने स्वामी जी की आँखों को घूरकर देखा तो उन आँखों में प्रभाकर का कुछ कुछ अक्स नजर आया जिसे उसने बरसों पहले ठुकरा दिया था. सोना को अब स्वामी जी के उन सभी शब्दों में जाना-पहचानापन याद आया कि यह सब प्रभाकर का ही तो था. सोना ने देखा कि स्वामी जी की आँखों में एक बहुत ही गहरा सूनापन था. बिलकुल किसी पत्थर की तरह.
सोना ने प्रभाकर की खामोशी को तोड़ने के लिए कहा " प्रभाकर तुम!!  ये तुम प्रभाकर से शान्तिदास कैसे बन गए? यह सब कुछ क्या है? "
प्रभाकर ने एक गहरी सांस ली और बोला " हर तरफ अन्धेरा था; कोई राह नज़र नहीं आई मुझे तो मैंने ये फैसला किया." प्रभाकर ने अब तक की सारी कहानी सुनाई सोना को. सोना खामोशी से प्रभाकर की कहानी सुनती रही. सब कुछ सुनाकर जब प्रभाकर खामोश हो गया तो सोना बोली " मगर तुमने मेरे पीछे किया. क्यूँ? हम दोनों तो दोनों संघर्ष कर रहे थे. बस उतनी ही जान-पहचान थी. फिर मेरी चिंता तुमने इतनी क्यूँ की? अपनी जिंदगी ख़त्म करने चले थे मेरे गलत संगत में चले जाने के बाद. तुम मुझे सब कुछ साफ़ साफ़ कहो प्रभाकर. तुम्हें मेरी इतनी परवाह क्यूँ हुई? "
 
प्रभाकर बोला " मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं तुम्हें कह सकूँ कि मैं तुम्हें बेपनाह चाहता हूँ. क्यूंकि उन दिनों तुम एक बहुत बड़ी हिरोईन बन चुकी थी और मैं एक स्ट्रगलर के सिवाय कुछ भी नहीं था."
सोना काँप गई प्रभाकर के इस जवाब से. उससे एक बार तो कुछ भी नहीं कहते बना. वो सोचने लगी कि वो वास्तव में कितनी गलत फैसले कर रही थी उन दिनों. एक सच्चा हमसफ़र उसके सामने था मगर वो अंधी दौड़ में धोखेबाजों के साथ मिल गई थी और आज जब वो अपने केरियर की ढलान पर है तब उसके साथ उस वक्त का कोई भी साथ नहीं दे रहा है तब की तरह आज भी प्रभाकर उसके सामने है. आज प्रभाकर देश का सबसे सफल दार्शनिक है और वो खुद एक शुन्य के सिवाय कुछ भी नहीं;  मगर तब भी प्रभाकर उस से उस वक्त का सच आज भी कह रहा है. वो कितनी गलत थी और प्रभाकर आज भी कितना सच्चा है.
जिस मन की शांति की तलाश में वो पिछले साल भर से दर दर भटक रही थी वो तलाश वास्तव में इन्दर की बातों में आज समाप्त हो गई थी और प्रभाकर जिस तलाश में सारे देश में लोगों को जिंदगी के मायने समझाकर अपनी असली जिंदगी की तलाश कर रहा था वो तलाश वो खुद ही थी. सोना ने प्रभाकर को अपनी बरसती आँखों से देखा. प्रभाकर अभी भी किसी चट्टान की तरह शांत बैठा हुआ था. सोना ने प्रभाकर के हाथ अपने हाथ में लिए और बोली " अब तो तुम्हारी तलाश पूरी हो गई है प्रभाकर अब तो इस उदासी को कहीं दूर फेंक दो. मैं जिस गलत रास्ते पर थी उसे अब छोड़ चुकी हूँ, भूल चुकी हूँ. अब तुम भी मुझे माफ़ करो और मुझे अपने साथ लेकर चलो अपनी जिंदगी के सफ़र में. जहाँ तुम्हारी तलाश ख़त्म हुई है वहीँ मेरी  तलाश भी ख़त्म हो गई है . अब वक़्त है एक नए सफ़र का जिसमे कोई तलाश नहीं है मंजिल सामने है और हमें मंजिल तक जाना है।" 
प्रभाकर की आँखें छलछला गई. उसने सोना की तरफ देखा और बोला " जिंदगी का सफ़र कहीं और से शुरू नहीं कर यहीं से करना है. यहीं जोशीमठ में एक छोटा सा आशियाँ बना लेंगे और यहीं रहेंगे. पत्थरों के बड़े बड़े घरों में लोग भी पत्थर दिल लोग बसते हैं. हमें ऐसी बस्ती में नहीं रहना है. हम यहीं रहेंगे. कुदरत की गोद में. " सोना ने हाँ में सिर हिलाते हुए कहा " मुझे अब कुछ नहीं सोचना जब तुम मेरे साथ हो. मेरे लिए तुम कभी गलत हो ही नहीं सकते। "
 
इन्दर दूर खडा हुआ इस अनोखी तलाश को ख़त्म होता हुआ देख मन ही मन बहुत खुश हो  रहा था।
  
                                                    ================

4 टिप्‍पणियां: