रविवार, 9 अगस्त 2015

              वहाँ कौन है तेरा

रमेश जैसे ही अपनी केबिन में कुर्सी पर बैठने लगा कि  अचानक चपरासी मुनीराम ने उसे प्रणाम करते हुए कहा " विकास बाबू आपको बुला रहे हैं" रमेश तुरंत विकास के केबिन की ओर चल पड़ा । विकास बहुगुणा इस बहुगुणा एन्ड बहुगुणा कंपनी का मालिक था जो लकड़ी के कीमती फर्नीचर बनाती थी । रमेश यानि रमेश पंत विकास के स्वर्गीय पिता जानकी वल्लभ के ख़ास आदमी थे इसीलिए विकास रमेश को अपने पिता की तरह सम्मान देता था । रमेश को इस कंपनी में काम करते हुए  तीस  साल हो चुके थे ।
रमेश विकास की केबिन में पहुंचा तो विकास ने उठकर रमेश को हाथ जोड़ प्रणाम किया और दोनों बैठ गए । विकास बोला " अंकलजी मैं पिछले दो दिन से आपके बारे में ही सोच रहा था । आप करीब 2 महीने काफी बीमार रहे । कमजोरी भी बहुत आ गई है । आप को काम से बेहद लगाव है इसलिए आप मेरे मनाने के बावजूद रिटायर भी नहीं होना चाहते । मेरे दिमाग में इस मसले का एक हल आया है । हमारी 3 आरा मीलों में से एक आरा मिल रानीखेत के देवताल गाँव में भी है जो कि पहाड़ी क़स्बा है और हवा पानी भी शुद्ध है । आप वहाँ का काम काज संभाल लीजिये । आप व्यस्त भी रहोगे और आपका स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा । आपका क्या ख़याल है इसके बारे में?"
देवताल का नाम सुनते ही रमेश सिहर गया और  एक बिजली सी उसके शरीर में दौड़ने लगी ।  कुछ देर खामोश रहने के बाद वो बोला " ठीक है जैसा तुम उचित समझो । मुझे भी मंज़ूर है । "
विकास अपनी जगह से उठा आगे आकर उसने रमेश के पैर छुए और बोला " अंकलजी आप पापा की जगह हो । आपका साथ और आपका अनुभव हमेशा मेरे साथ रहे मैं यही चाहता हूँ । आप इसी रविवार वहाँ रवाना हो जाईये । मैं अपनी आरा मिल के मेनेजर को सन्देश किये देता हूँ आपके घर का इंतज़ाम कर देगा ।" रमेश  घर लौट आया । वो सारी रात सो नहीं पाया ।
जब वो लेटा तो करीब 30 साल पुरानी बातें किसी फ़िल्म की तरह उसकी आँखों के सामने आने लगी ।
रानीखेत के पास का एक छोटा सा गाँव देवताल । देवताल में रामलाल अकेला ही दूधवाला था जो गाँव के कुछ गिनेचुने घरों में दूध देता था । रामलाल का एक ही बेटा था रमुआ यानि रमेश जो की करीब 16 साल का था  । रामलाल की पत्नी रमुआ के जन्म के दिन ही इस दुनिया से चली गई थी । रमुआ सभी जगह दूध देने जाता मगर गाँव के सरपंच प्रताप सिंह के यहां रामलाल खुद ही जाता क्योंकि ऐसा प्रताप सिंह का आदेश था । एक बार रामलाल बीमार हो गया तो रमुआ सरपंच के यहां दूध देने गया । सरपंच को रामलाल के बीमार होने की खबर मिल गई थी इसलिए रमुआ को आने की इजाजत मिल गई थी । रमुआ दूसरे दिन जब दूध देने आया तो सरपंच की बेटी बेला घर पर थी और वही दूध लेने आई । बेला बहुत सुन्दर थी । उसकी उम्र 20 के आसपास थी और फिल्मों में हिरोईन बनने के सपने देखना फ़िल्मी पत्रिकाएं मंगवाकर पढ़ना और उसमें छपी हीरोइनों की तस्वीरों को देखकर हीरोइनों की नक़ल करना उसके शौक थे ।
बेला ने रमुआ को देखा । रमुआ था 16 साल का मगर हट्टा कट्टा था और 20 - 21 साल के नौजवान की तरह दिखता था । अच्छी सेहत होने की वजह से खूबसूरत भी दिखाई देता था । बेला पहली बार में ही उस पर मोहित हो गई । वो रमुआ से बार बार मिलने के बहाने ढूंढती । उससे मिलती । कभी उसे अपने साथ बिठाकर फिल्मों की बातें करती फ़िल्मी पत्रिकायें  दिखलाती और हिरोईन बनने के अपने सपनों के बारे में उसे बताती । रमुआ सीधा सादा लड़का था । वो चुपचाप बेला की बातें सुनता और हाँ हूँ में ही जवाब देता रहता । बेला ने एक दिन रमुआ को कह दिया कि वो उसे चाहने लगी है । रमुआ घबरा गया । वो बेला से दूर दूर रहने लगा । एक दिन रामलाल अपने एक रिश्तेदार के देहांत के कारण  पड़ोस के गाँव जाना पड़ा तो रमुआ सभी जगह दूध देने गया । बेला के यहां भी गया ।  बेला ने रमुआ से माफ़ी मांगते हुए कहा " तू उस दिन की बात से मेरे से नाराज़ हो गया ना । चल उस बात को भूल जा । वो तो मैंने एक पिक्चर का डायलॉग तुझे सुनाया था पगले ।" रमुआ भोला था वो तुरंत मान गया । बेला ने उसे बैठने को कहा और उससे बातें करने लगी । बातें करते करते एक दो बार उसने रमुआ के हाथ अपने हाथ में ले लिए । रमुआ ठिठककर दूर हो गया । इसके बाद एक दो मौके और ऐसे आये जब रमुआ दूध देने गया और बेला ने उसे कभी कहीं चुपके से छू लिया कभी उसके गालों पर अपने हाथ रख दिए । रमुआ सावधान हो गया और उससे बहुत दूर खड़ा होने लगा दूध देते वक़्त । बेला समझ गई कि रमुआ इतनी आसानी से उसके काबू में नहीं आने वाला ।
एक दिन बेला ने अपने एक नौकर की मदद से रमुआ को अपने घर के पिछवाड़े बुलाया और उससे लिपट गई । रमुआ उसे धक्का देकर घर भाग आया । वो इतना घबराया कि  अगले दो दिन घर से बाहर तक नहीं निकला । 
एक बार ऐसा हुआ कि सरपंच का परिवार किसी शादी में रानीखेत गया तो बेला अकेली अपनी दादी के साथ घर ही ठहर गई कोई बहाना करके । बेला ने चाल चलकर रमुआ को बातों में फंसाकर अपने नौकर के साथ दूध लेकर बुला लिया कि दादी माँ के लिए दूध चाहिए । रमुआ दूध देकर जाने को हुआ तो बेला के नौकर ने उसे शरबत का ग्लास दिया और कहा पीलो इसे दादी माँ ने भेजा है । रमुआ शरबत पी गया । पीते ही उसे नशा सा होने लगा । बेला ने रमुआ का हाथ पकड़ा और अपने कमरे में ले आई । 
सवेरे आँख खुली तो रमुआ अपने घर के पिछवाड़े जमीन पर लेटा हुआ था । उसके कपडे अस्त व्यस्त थे । उसे कुछ याद नहीं आया कि आखिर वो यहां कैसे आया और उसकी ये हालत कैसे हुई ? उसे सिर्फ शरबत पीने तक की बात याद आई ।
इसके बाद रमुआ कभी सरपंच के घर नहीं गया और उसने रामलाल को बेला की हरकतों के बारे में सब बता दिया ।
कुछ महीने बीते कि सरपंच को पता चला कि बेला माँ बनने वाली है । उसकी आँखों में खून उतर आया । बेला की खूब पिटाई हुई मगर बेला कुछ नहीं बोली ।
सरपंच ने अपने नौकरों से भी पता करवाया मगर कुछ पता नहीं चल सका । एक दिन बेला का वो ख़ास नौकर बेला की इस हालत से दुखी होकर सरपंच के सामने सब उगल गया । सरपंच ने पहले तो उसकी खूब पिटाई की । फिर बेला की पिटाई करने को हुआ तो बेला की दादी ने उसे डांटते हुए कहा " कुसूर उस दो कौड़ी  के दूध वाले की औलाद का और मार मेरी पोती को पड़े मैं ऐसा नहीं होने दूंगी " सरपंच आग बबूला हो उठा । उसने अपने लठैतों को साथ लिया और रामलाल के घर की तरफ चल पड़ा । बेला का वो नौकर अब रामलाल के घर भागते हुए गया और उसने सारी बात रामलाल को बता दी । रामलाल और रमुआ थर थर कांपने लगे । उस नौकर ने कहा " रामू दादा आप तो रमुआ के साथ यहां से भाग निकलो वरना सरपंच तो आप दोनों को मार डालेगा ।"
रामलाल को कुछ नहीं सूझा । उसने रमुआ का हाथ पकड़ा और घर से निकालकर भागने लगा । दोनों कुछ ही दूर भागे थे कि सरपंच के कुछ लठैतों ने उन्हें देख लिया । दोनों घबराकर इधर उधर देखने लगे । रामलाल बेहद घबरा गया और कांपने लगा । उसके पाँव जैसे वहीँ जम गए । रमुआ ने रामलाल को एक बड़े पेड़ के पीछे छुपने को कहा और बोला " बापू तुम यहीं छुप जाओ मैं भागता हूँ तुम यहीं छुपे रहना । जब ये लोग  यहां से दूर चले जाएंगे तब मैं वापस यहीं आ जाऊंगा " रामलाल ने हाँ कर दी । रमुआ सरपट सड़क पर दौड़ने लगा । सभी लठैत उसके पीछे भागने लगे ।
लठैत बहुत तेज निकले रमुआ थकने लगा था । अचानक रमुआ को कुछ दूर एक ट्रेक्टर दिखाई दिया जिसमे लकड़ियाँ लदी हुई थी । वो लठैतों को चकमा देकर उस ट्रेक्टर में लकड़ियों के बीच में छुप गया । कुछ देर बाद ट्रेक्टर चल पड़ा ।
बेहद थका होने से  रमुआ सो गया । जब उसकी आँख खुली तो ट्रेक्टर एक शहर में  दाखिल हो रहा था । ट्रेक्टर एक लकड़ी के गोदाम में आकर रुक गया । रमुआ ट्रेक्टर की ट्रॉली से नीचे उतरा तो उसे वहाँ के चौकीदार ने देखा और उसे पकड़कर उस लकड़ी के फर्नीचर के कारखाने के मालिक के सामने लाकर खड़ा कर दिया । मालिक का नाम था सेठ कृष्ण वल्लभ । रमुआ ने सारी बात बता दी । सेठ जी ने उसकी आँखों के आंसू पौंछे और उसी गोदाम के पीछे एक कच्चे घर में उसे रहने को कह दिया ।
अगले दिन रमुआ को सेठ जी के कहने से उसी कारखाने में काम पर रख लिया गया । रमुआ को अपने बापू की चिंता ने बेचैन कर रखा था । वो सेठ जी से कहकर अपने गाँव रवाना हुआ । चोरी चुपके वो गाँव में दाखिल हुआ । थोड़ी ही दूर चलने पर उसका एक दोस्त मिला जिसने बताया कि उसके बापू की तलाश सरपंच के आदमी अभी भी कर रहे हैं । रमुआ अपने दोस्त के साथ उस जगह आया जहां वो अपने बापू को छोड़कर गया था । वहाँ रामलाल नहीं मिला । रमुआ ने आसपास बने झोंपड़ों में पता किया तो किसी ने भी रामलाल की कोई जानकारी होने से मना किया । लगातार 3 दिन आसपास के गाँवों में अपने बापू की तलाश कर के वो हताश हो गया और  हारकार वापस शहर के उस लकड़ी के कारखाने में लौट आया ।
सेठ जी ने उसे काम करने और पास ही शाम को लगने वाली स्कूल जाने को कहा जिससे वो कुछ लिख पढ़ सके । रमुआ पूरी लगन से दोनों कामों में लग गया ।
सेठजी का लड़का जानकी वल्लभ रमुआ से करीब 5 साल बड़ा था और सेठजी के काम में हाथ बंटाता था । जल्दी ही रमुआ और जानकी वल्लभ में गहरी दोस्ती हो गई ।
रमुआ मेहनती निकला और पढ़ाई में होशियार भी । जल्दी ही उसने दसवीं पास की और जानकी वल्लभ ने उसे लकड़ी के कारखाने की सुपरवाइजरी के साथ साथ रोज रोज के खर्चे का हिसाब किताब देखना सिखला दिया ।
इस बीच रमुआ से उसका वो ही दोस्त शहर आकर एक बार मिला और दुखद खबर दी कि रामलाल अब इस दुनिया में नहीं रहा । वो बहुत बीमार था और पास ही के एक गाँव में सबसे छुपकर रहने के कारण अपना इलाज ठीक से न करवा पाने से कुछ हफ्ते हुए चल बसा । रमुआ टूट गया । बहुत रोया । सेठजी और जानकी वल्लभ ने उसे संभाला और हर तरह से हिम्मत बंधवाई ।
कुछ साल बीते और सेठजी का देहांत हो गया । अब जानकी वल्लभ सभी कामकाज देखने लगा । रमुआ उसका ख़ास दोस्त और सहायक हो चुका था । रमुआ अब अपने बीते वक़्त को भूल चुका था और मेहनत लगन से अपने काम में लगा था । उसने एक प्रण कर लिया अपने बापू के असमय निधन से कि वो अकेला ही रहेगा और अपना घर नहीं बसाएगा । बेला के कारण उसे औरत नाम से ही डर सा लगने लगा था ।
कुछ अरसे के बाद जानकी वल्लभ एक दुर्घटना का शिकार हो गया और विकास एक तरह से रमुआ के भरोसे रह गया । रमुआ विकास को अपने बेटे की तरह ही चाहता था और उसका पूरा ख्याल रखता था । इसी तरह से वक़्त गुज़रने लगा ।
एक दिन रमुआ को सीने में दर्द की शिकायत हुई । बेचैनी महसूस हुई । विकास ने तुरंत उसे अस्पताल में भर्ती करवाया । डॉक्टर ने जांच के बाद हलके दिल के दौरे की बात कही और साथ ही ये हिदायत भी दी कि आराम अधिक करें काम कम करें और अधिक तनाव न झेलें । इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर विकास ने रमुआ काका को रानीखेत के देवताल गाँव  भेजने का फैसला किया । पहाड़ी क़स्बा होने से शुद्ध हवा पानी और आरा मिल में काम भी कम रहेगा । लेकिन विकास को ये नहीं पता था कि रमुआ की ज़िन्दगी में देवताल इलाके का क्या स्थान है और क्या क्या जुड़ा हुआ है ।
रमुआ रात भर सो नहीं सका । उसके मन में अपने अतीत अपने गाँव को लेकर कई सवाल आने लगे ।
गाँव में अब कौन कौन होगा ? सरपंच बेला लठैत और गाँव के लोगों में से कौन कौन वहाँ होगा ? फिर उसने ये सोच कर कि वो तो रानीखेत में रहेगा और 30 साल बाद गाँव में सबकुछ बदल चुका होगा उसने रानीखेत जाने की तैयारी कर ली ।
विकास खुद रमुआ को अपनी कार में देवताल छोड़ने गया । आरा मिल से थोड़े से पैदल रास्ते पर ही एक घर किराए पर लेकर तैयार था रमुआ के लिए । 30 साल बाद रमुआ फिर से पहाड़ों पेड़ों और खुली हवा के बीच खुद को पाकर बहुत खुश हो गया । उसे यकीन हो गया कि अब उसकी उम्र बहुत लंबी हो गई है और दिल की बिमारी बहुत दूर हो चुकी है ।
पहली सुबह रमुआ उठा और सारे गाँव का चक्कर लगाने निकल पड़ा । हर रास्ता जाना पहचाना लगा । क्यों न लगता उसकी जन्मभूमि थी । बचपन का गाँव बचपन की बातें सब याद आने लगा उसे ।
अब वो उस जगह आ पहुंचा जहां कभी उसका घर हुआ करता था । उसने देखा वो जगह एकदम उजाड़ हो गई थी । उसका कच्चा घर सुनसान था । खिड़की दरवाजों में झाड़ियाँ उग आई थी । घर के पिछवाड़े में जहां गायें बाँधी जाती थी वहाँ अब जंगली पेड़ उगे हुए थे । वो अपने घर के सामने के पेड़ के नीचे खड़ा था और बीते दिनों की यादों में खो गया ।
जब रमुआ काफी देर तक घर न लौटा तो उसका नौकर उसे ढूंढता हुआ उस तक पहुँच गया । रमुआ उसकी आवाज़ सुनकर यादों में से बाहर निकल आया । उसका नौकर बोला ' ये रामलाल का घर हुआ करता था । बरसों पहले वो चल बसा । उसका बेटा सुना है सरपंच के डर से शहर भाग गया । बहुत जालिम था सरपंच । जैसे करम किये वैसा ही फल मिला । 3 साल बिस्तर में पड़ा रहा और बड़ी मुश्किल से सांस उखड़ी ।" रमुआ अपने आंसू पौंछते हुए बोला " चलो घर चलते हैं । हरेक को अपने कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है ।"
रमुआ आरा मिल में आराम से अपना काम देखने लगा । सुबह शाम गाँव का चक्कर लगाता । दोनों वक़्त वो अपने घर के सामने से होकर जरूर निकलता और पल दो पल रुक जाता । एक दिन वो कुछ आगे निकलकर सरपंच की हवेली की तरफ आ गया । उसने देखा हवेली अभी भी अच्छी स्थिति में थी लेकिन कुछ अजीब तरह की खामोशी थी उसके आसपास । कुछ देर वहां खड़ा रहा और घर लौट आया ।
अगली शाम वो फिर उस हवेली के सामने से गुज़रा । हवेली के थोड़ा ही आगे एक घास के छप्पर लगी चाय की दुकान थी रमुआ वहीँ बैठकर चाय पीने लगा ।
तभी उसने देखा 3 लड़के उसके ठीक सामने लकड़ी की बेंच पर बैठ गए । एक बोला ' आती ही होगी अभी वो । समय तो हो गया ।"
तभी दूर से एक युवती आती दिखाई दी । तीनों उठे और उस युवती की तरफ बढ़ गए । वो तीनों जब उस युवती के एकदम सामने आ गए तो वो लड़की खुद को बचाने के लिए इधर उधर मुड़ रास्ता तलाशने लगी । लड़कों ने कुछ सड़क छाप बातें कही और चले गए । रमुआ मारे गुस्से के अपनी जगह से खड़ा हो गया और उस युवती की तरफ बढ़ा । जब वो उस युवती के बिलकुल सामने आ गया तो उसने उसका चेहरा देखा और देखते ही हैरान हो गया । उसके माथे पर पसीने की बूँदें आ गई । उसका शरीर कांपने लगा । वो युवती हूबहू बेला जैसी दिख रही थी । इसके पहले कि रमुआ कुछ संभल पाता वो युवती हवेली में चली गई ।
रमुआ धीरे धीरे घर लौट आया मगर उसे कमजोरी लगने लगी । उसने नौकर से सारी बात कही तो नौकर बोला " साहब जी वो लड़की अहिल्या है प्रताप सिंह की नातिन । प्रताप सिंह जी की एक ही औलाद थी बेला ।" रमुआ थी सुनकर चौंक गया था । नौकर आगे बोला " कहते हैं बेला का चक्कर गाँव के तबेले वाले रामलाल के लड़के से था । ये अहिल्या उसी बेला की बेटी है । प्रताप सिंह को जब पता चला कि बेला रामलाल के बेटे रमुआ के कारण माँ बनने वाली है तो उसने रामलाल और उसके बेटे को मारने का फैसला किया लेकिन दिनों भाग निकले । रामलाल पड़ोस के गाँव में मंदिर में 2 साल छुपकर रहा और बाद में बहुत बीमार होकर चल बसा । रमुआ की कोई खबर नहीं मिली । कुछ लोग कहते हैं प्रताप सिंह के आदमियों ने उसे मारकर जंगलों में फेंक दिया । कुछ कहते हैं उसने नदी में डूबकर जान दे दी । बेला को प्रताप सिंह ने बच्चे को जन्म देने दिया । उसे लड़की हुई । लेकिन बेला लड़की को जन्म देने के बाद बहुत बीमार रहने लगी । उसमें ज़िंदा रहने की इच्छा शक्ति ख़त्म हो गई थी । अंतिम सांस लेते वक़्त उसने खुद का गुनाह कबूलते हुए कहा कि रामलाल और रमुआ दोनों बेकसूर हैं और ये सब उसकी ख़ुद की बदनीयत का परिणाम है । गाँव के लोगों को बहुत अफ़सोस हुआ और प्रताप सिंह को भी । प्रताप सिंह अपनी नातिन अहिल्या की बहुत देखरेख करने लगा । खूब लाड़ करता । एक दिन प्रताप सिंह शहर से गाँव आ रहा था कि उसकी जीप ट्रक से टकरा गई और वो वहीँ ख़त्म हो गया । गाँव के लोगों ने ही अहिल्या की जिम्मेदारी उठाई उसके बाद । लेकिन अब पहले जैसा समय नहीं रहा था । कुछ लोग अहिल्या को बहला पुसलाकर उसकी दौलत हथियाने लगे । जब तक अहिल्या कॉलेज जाने जितनी हुई गाँव के ही एहसान फरामोश लोगों ने उसकी सारी दौलत हड़प ली । अब अहिल्या घर में ट्यूशन पढ़ाती है बच्चों को और अपना गुज़ारा करती है । हाँ हवेली अभी तक अच्छी हालत में है और उसी के पास है । गाँव में कई मजनूँ किस्म के लड़के उसे छेड़ते हैं परेशान करते हैं लेकिन वो किसी से कुछ नहीं कहती । खामोश रहती है और अपने काम से काम रखती है । बेकसूर को भी कैसी सज़ा मिलती है न बाबू साहब ।" रमुआ एक गहरी साँस लेकर चुप हो गया । उसे सारी घटना सुनने के बाद बहुत दुःख हुआ । रात भर रमुआ अहिल्या के बारे में ही सोचता रहा जो कि बदकिस्मती से उसकी बेटी है ।
अगले दिन वो उसी वक़्त चाय की दूकान जाकर बैठा जब अहिल्या कॉलेज से वापस लौटती । फिर वह हुआ वो ही आवारा लड़के वहां आ जुटे । अहिल्या के आते ही फिकरे कसने शुरू कर दिए उन्होंने । रमुआ की सहनशक्ति जवाब देने लगी । वो अपनी जगह से उठा और जो लड़का सबसे ज्यादा बोल रहा था उसके गाल पर एक के बाद एक तीन थप्पड़ जड़ दिए । वो लड़का इस अचानक हमले से लड़खड़ा गया । उसके साथी भी घबरा गए और वहाँ से भाग खड़े हुए । अहिल्या यह सब देख रही थी लेकिन लड़कों के भाग जाने के बाद वो अपने घर में चली गई और रमुआ आरा मिल लौट आया ।
इसके बाद अगले एक सप्ताह तक रमुआ उसी समय चाय की दूकान पर गया लेकिन वो लड़के कभी दिखाई नहीं दिए । रमुआ खुश हो गया । एक दिन रमुआ गाँव के मंदिर में दर्शन कर बाहर निकल रहा था कि उसका सामना अहिल्या से हो गया । वो मंदिर में आ रही थी । दोनों की नज़रें मिली । अहिल्या ने रमुआ की तरफ कृतज्ञता भरी आँखों से देखा और बोली " आपका किन शब्दों में धन्यवाद करूँ आपने दो साल की यातनाओं को समाप्त करवा दिया ।"
रमुआ बोला " अब तुम्हें घबराने की कोई जरुरत नहीं है बेटी । वो आवारा लड़के अब यहां नहीं फटकेंगे।"
अहिल्या बोली " आप किस किस को रोकेंगे । ये नहीं तो कोई और आ जाएगा । " रमुआ ने अहिल्या के सर पर हाथ रखते हुए कहा " मेरे रहते कोई तुम्हें तंग नहीं करेगा। तुम निश्चिन्त रहो ।" अहिल्या तसल्ली भरे चेहरे के साथ घर  चली गई ।
एक दिन रमुआ उसी दुकान पर चाय पीने के लिए बैठ ही रहा था कि उसे अहिल्या आती हुई दिखी । वो खड़ा ही रहा । अहिल्या ने उसे प्रणाम कहा और बोली " आज की चाय आप मेरे घर पिएंगे तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी।" रमुआ ना नहीं कह सका ।
रमुआ बरसों बाद आज प्रताप सिंह की हवेली में दाखिल हो रहा था ।  उसकी आँखों के सामने प्रताप सिंह और बेला के चेहरे घूमने लगे । अहिल्या ने रमुआ को बैठक में बैठने को कहा और खुद चाय बनाने रसोई में चली गई । एक अजीब सी ख़ामोशी थी घर में । रमुआ को लेकिन खामोशी महसूस नहीं हुई उसे कभी प्रताप सिंह की तो कभी बेला की आवाज़ें सुनाई देने लगी । उसे घबराहट महसूस होने लागु और चक्कर से आने लगे । अहिल्या चाय लेकर लौटी और रमुआ को पसीने से भीगे हुए और घबारहट के चेहरे के साथ देखा तो वो डर गई । उसने तुरंत रमुआ को पानी का गिलास दिया और खिड़की खोल दी । खिड़की खुलते ही तेज हवा भीतर आई और रमुआ इस खुलेपन से सामान्य होने लगा । दोनों चाय पीने लगे । अहिल्या ने हिचकिचाकर पूछा " आप की तबियत को  अचानक क्या हो गया था? आप  ठीक तो है ?" रमुआ कुछ देर चुप रहा । चाय ख़त्म कर के बोला " हाँ अब मैं ठीक हूँ । मुझे अब घर जाना चाहिए । मेरा नौकर चिंता कर रहा होगा ।" अहिल्या ने सहमति में अपना सर हिला दिया । रमुआ जब कमरे से बाहर निकलने को हुआ तो उसे दीवार पर लगी एक तस्वीर दिखाई दी । इस तस्वीर में प्रताप सिंह अपनी बेटी बेला के साथ था । शहर में किसी मेले में खिंचवाई तस्वीर लग रही थी । रमुआ उस तस्वीर को देखता हुआ बाहर निकल गया ।
रमुआ अहिल्या से इस मुलाक़ात के बाद परेशान रहने लगा । वो हर वक़्त सोच में डूबा रहता । उसे न जाने क्यों अहिल्या से हमदर्दी पैदा हो गई थी और उसे उसकी चिंता सताने लगी । वो सोचने लगा कि जो हुआ उसमे अहिल्या का क्या कसूर है? वो क्यों इस तरह अकेली और दुखी जीवन जिए? जो भी हुआ वो शर्मनाक था लेकिन  दुर्भाग्य से ही सही अहिल्या आखिर उसकी बेटी ही है ।
वो अक्सर अहिल्या से मिलने चला जाता । अहिल्या भी रमुआ का इंतज़ार करती । ऐसे ही समय गुजरता गया । एक दिन रमुआ को खबर मिली कि अहिल्या अचानक बीमार हो गई है । उसे तेज बुखार है कई दिनों से । रमुआ लगभग दौड़ते हुए हवेली गया । अहिल्या बेहद कमजोर दिख रही थी । पड़ोस के घर की एक बूढ़ी महिला उसके पास बैठी थी । उसी औरत ने रमुआ से कहा " इसे शहर में किसी डॉक्टर को दिखा दो साहब नहीं तो ये भी अपनी माँ की तरह बेसमय इस दुनिया से ना चली जाय।" रमुआ यह बात सुनकर घबरा गया । उसने अहिल्या के सर पर हाथ रखा और बोला " ऐसा हरगिज़ नहीं होगा । मैं अभी इसे शहर लेकर जा रहा हूँ ।" रमुआ जल्दी से आरा मिल पहुँचा । आरा मिल का अपना एक टेम्पो था वो उसी टेम्पो को लेकर हवेली आ गया । अहिल्या की टेम्पो में बिठाया और ड्राईवर से शहर चलने को कहा ।
शहर में अपनी जान पहचान के डॉक्टर के अस्पताल पहुंचकर रमुआ ने अहिल्या को दाखिल करा दिया । 
अहिल्या का तुरंत इलाज शुरू हो गया । रमुआ अस्पताल में ही रुक गया । करीब एक सप्ताह के इलाज और देखभाल से अहिल्या बिलकुल ठीक हो गई । विकास भी इस दौरान एक दिन अस्पताल आया । रमुआ से जब उसने अहिल्या के बारे में सब पूछा तो रमुआ ने उसे सब सच सच बता दिया । विकास बोला " रमेश काका आप इंसान के भेष में देवता हो । जो काम आपने किया है उसके बारे में किसी का सोचना भी नामुमकिन है । यह सब  कल्पना से परे हैं । मुझे आप पर आज फक्र हो रहा है । मैं अहिल्या से मिलना चाहता हूँ अगर आपकी इज़ाज़त हो तो " रमुआ विकास के साथ अहिल्या के कमरे में गया । उसने विकास का परिचय दिया । अहिल्या विकास से बोली " मैं इन्हें नहीं जानती लेकिन इन्होंने देवदूत बनकर मेरी जान बचाई है । मुझे नई ज़िन्दगी दी है । ये एहसान मैं जीवन भर नहीं भुला सकुंगी ।" रमुआ बोला " ये कोई एहसान नहीं है । इंसानियत का फ़र्ज़ अदा किया है मैंने और कुछ नहीं ।"
विकास बोला " काका आप इन्हें लेकर अपने घर चलें । दो चार दिन घर पर आराम करेंगी तो पूरी तरह ठीक हो जायेगी फिर आप दोनों देवताल  लौट जाईयेगा ।" रमुआ मान गया ।
रमुआ अहिल्या के लिए दवाईयां और कुछ फल लेने बाजार गया हुआ था । विकास अहिल्या के कमरे में आया । अहिल्या पलंग पर बैठी हुई खिड़की के बाहर देख रही थी । विकास के आते ही वो उठने को हुई तो विकास ने उसे इशारे से बैठे ही रहने को कहा ।
विकास ने रमुआ के साथ अपने पारिवारिक संबंधों को विस्तार से बताया । अहिल्या रमुआ के बारे में सुनकर आत्मविभोर होते हुए बोली " देवता जैसे इंसान है लेकिन अकेले ही हैं इस दुनिया में । कितना अन्याय है ये । ऐसे महान इंसान को भी भगवान् अकेले रखे हुए हैं ।"  विकास  कुछ देर ख़ामोश रहा और गहरे चिंतन में डूबा रहा । कुछ देर बाफ उसके चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे उसने कोई फैसला कर लिया हो । वो अहिल्या से बोला " मैं अंकलजी के अतीत के बारे में सब कुछ जानता हूँ । अगर आप में सुनने की शक्ति है तो मैं उनके बीते हुए वक़्त के बारे में आपको सब कुछ बताना चाहता हूँ क्योंकि जैसे अंकलजी अकेले हैं वैसे आप भी बिलकुल अकेली हो । अकेलापन क्या होता है ये आप दोनों से बेहतर भला और कौन जान सकता है।" अहिल्या एक पल को  चौंकी फिर बोली " आप जरूर बताएं । मेरे से बुरा अतीत तो होगा नहीं । मैं सुन   सकती हूँ सब ।" विकास पलंग के सामने की कुर्सी पर बैठ गया और उसने अहिल्या को सब कुछ सच सच बतला दिया शुरू से लेकर अंत तक । अहिल्या जैसे जैसे रमुआ के साथ हुई घटनाएं सुनती गई उसकी आँखें भीगती चली गई । ये आंसू कब उसे सुबक सुबक कर रोने पर मजबूर कर गए उसे पता ही नहीं चला । जब विकास सब कुछ कह चुका तो अहिल्या इतना रो चुकी थी कि अब और आंसुओं के बहने की कोई गुंजाईश बाकी नहीं बची थी और सिसकियों की आवाज़ें उस खामोश कमरे में गूंज रही थी ।
विकास ने अहिल्या को पानी का गिलास पकड़ाया । अहिल्या पानी पीकर और अपने चेहरे को पौंछकर कुछ देर शांत बैठ गई । विकास ने देखा अहिल्या की दोनों आँखें बंद थी । थोड़ी देर बाद अहिल्या ने ऑंखें खोली विकास की तरफ देखा और बोली " विकास बाबू अब तो आप भी मेरे लिए किसी देवता से कम नहीं रहे । आपने मेरे पिता से मुझे मिलवा दिया जिनके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी । मुझे सिर्फ यह मालूम था या बतलाया गया था कि वे इस दुनिया में नहीं है और मेरी माँ की मौत और मेरे जन्म के लिए वे ही जिम्मेदार है । आज मुझे सारी हकीकत पता चल गई आपके द्वारा । आपने दो इंसानों को जीवन जीने के लिए मक़सद तलाश कर दे दिया । अब मैं अपने बापू के घर ही जाकर रहूंगी । उस पाप की हवेली में मेरा दम बरसों से घुट रहा है अब मैं उस कालकोठरी को हमेशा हमेशा के लिए छोड़ दूंगी । मैं अब बापू  की सेवा करुँगी । उन्होंने अपने जीवन में कोई सुख नहीं पाया लेकिन अब मैं उन्हें दुनिया के सभी सुख उन्हें दूंगी । अब वो अकेले नहीं है उनकी बेटी उनके साथ है और अंतिम सांस तक उनके साथ ही रहेगी ।"
विकास की आँखें ख़ुशी से छलछला उठी । उसने मन ही मन खुद से कहा - मैने कोई गलत काम नहीं किया अहिल्या को अंकलजी के अतीत के बारे में कहकर । दो हर तरह से अकेले इंसान आपस में मिल गए । कितना  अनोखा बंधन हुआ है ये । आज भगवान ने मुझसे एक बहुत ही पुण्य का काम करवा लिया । मेरा जीवन सफल हो गया ।
विकास ने अहिल्या से कहा " आपके साहस की कोई दूसरी मिसाल नहीं । आपने जो हौसला दिखलाया है अपने बापू को अपनाने का उसे ज़माना याद रखेगा । भगवान् आपके इस कदम के बदले में आपको बहुत ही सुख भरा जीवन अब देगा । आप अंकलजी को लेकर अपने गाँव जाएँ । मैं यहाँ से कुछ आदमी भिजवा दूंगा जो अंकलजी के उजड़े और टूटे हुए पुश्तैनी घर को फिर से बना देंगे । आप दोनों उसी घर में रहिएगा ।" अहिल्या ने अपने हाथ जोड़े और विकास से बोली " आप देवता ही नहीं भगवान् हो हमारे लिए ।"
रमुआ जब घर वापस लौटा तो विकास ने उसे सब कुछ बता दिया कि वो अहिल्या से सब कह चुका है और अहिल्या उसी के साथ रहेगी और वो उसके पुश्तैनी घर को फिर से बनाने का फैसला भी कर चुका है । रमुआ की ख़ुशी का ठिकाना न रहा । वो लगभग दौड़ता हुआ कमरे में गया जहां अहिल्या बैठी थी । रमुआ जैसे ही कमरे के दरवाजे पर आकर खड़ा हुआ अहिल्या ने उसे देखा और बोली " बापू "
रमुआ अपने लिए बापू सुनकर जैसे निहाल हो गया । वो आगे बढ़ा और अहिल्या को अपने सीने से लगाते हुए कहा " बिटिया । आज मैं धन्य हो गया । तुमने अपने अभागे बापू को अपना लिया ।" अहिल्या ने रमुआ के आंसू पौंछे और बोली " चलो बापू अब अपने घर चलते हैं अपने गाँव चलते हैं ।"
रमुआ और अहिल्या जब अपने गाँव रवाना हुए तो विकास तब तक अपना हाथ हिलाकर दोनों को जाते देखता रहा जब तक कि दोनों उसकी आँखों से बहुत दूर होकर ओझल नहीं हो गए ।
रेडियो पर गाना बज रहा था - वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहाँ ...........

रविवार, 22 दिसंबर 2013

उम्मीद 
 
पृथ्वी सिंह को लगा जैसे उसके क़दमों के नीचे से ज़मीन खिसक गई है।  उसकी आँखों के सामने अँधेरा नज़र आने लगा और वो लड़खड़ाते हुए ज़मीन पर लगभग गिर पड़ा।  उसकी पत्नि सरोज ने दौड़कर उसे सम्भाला और सहारा देकर पृथ्वी सिंह को कुर्सी पर बिठाया।  पृथ्वी सिंह की बेटी चित्रा भागकर पानी लाइ और पृथ्वी दो घूँट पीकर कुछ संभला।  
हुआ ये था कि पृथ्वी सिंह ने अपने बचपन के मित्र हरी सिंह चौधरी की इकलौती बेटी सुमन कंवर के साथ अपने बड़े बेटे अर्जुन सिंह का रिश्ता बचपन में ही पक्का कर दिया था।  अर्जुन सिंह को इस बात की जानकारी नहीं थी और जब अर्जुन सिंह अपनी पढ़ाई पूरी करने एक बाद नौकरी पर लगा तब उसे पृथ्वी सिंह और सरोज ने सारी बात बताई।  इस बीच अर्जुन सिंह जहां नौकरी कर रहा था वहीँ पर काम कर  लड़की सुधा से उसकी दोस्ती हुई और बाद में दोनों में प्रेम हो गया। दोनों ने तय कर लिया कि वे जल्दी ही अपने घरवालों को बतलाकर आपस में शादी कर लेंगे।
इस बार जब अर्जुन यही बतलाने के लिए कुछ दिनों की छुट्टी लेकर  अपने गाँव आया और जैसे ही पृथ्वी सिंह ने उसे सुमन के साथ सगाई की बात बतलाई अर्जुन ने साफ़ मना करते हुए सुधा के साथ अपने रिश्ते और प्रेम की बात कह दी।  यही सुनकर पृथ्वी सिंह लगभग बेहोशी की हालत में पहुँच गया। सरोज का रो रोकर बुरा हाल था , वो सोच रही थी कि अर्जुन सिंह ने कितनी आसानी से सगाई की बात ठुकरा दी और किसी सुधा नाम की लड़की , जिसे कि सिवाय  अर्जुन के और कोई जानता तक नहीं है शादी की बात कह दी। 
अर्जुन का छोटा भाई भानु और बहन चित्रा अपने बड़े भाई के इस जवाब से सिहर गए थे। पृथ्वी सिंह ने खुद को सम्भाला और अर्जुन को समझाने लगा और जान पहचान और शादी सगाई की बातों को पूरी परिपक्वता से तय करने की दुहाई देने लगा ; लेकिन अर्जुन ने उसकी एक नहीं सुनी। अब पृथ्वी सिंह का पारा सातवें  आसमान पर जा पहुंचा और लगभग चीखते हुए बोला " तू इसी बगत ये घर छोड़कर चला जा नालायक। तुझसे मेरी हर  उम्मीद  थी मगर तूने आज हमारी हर उम्मीद तोड़ दी. अब तेरा इस घर से कोई नाता नहीं बचा. जो औलाद अपने माँ -बाप की नहीं हो सकी वो इस खानदान की क्या होगी। निकल जा इस घर से । " सरोज , भानु और चित्रा सभी बीच बचाव करने लगे लेकिन ना तो पृथ्वी सिंह ने किसी की सुनी और ना ही अर्जुन ने कोई नरमी दिखलाई।
अर्जुन ऊपर कमरे में गया और अपना सामान लेकर वापस नीचे आ गया।  चित्रा , ( चित्रा और सुमन बचपन की सहेलियाँ  थी )  ने अपने बड़े भाई को शांत होकर सोचने की सलाह दी तो अर्जुन बोला " चित्रा, शादी कोई गुड्डे-गुड्डियों का खेल नहीं है कि किसी का रिश्ता किसी के साथ बाँध दो बिना सोचे समझे और बिना बच्चों से पूछे हुए. ये रिश्ता मैं कैसे मंज़ूर कर सकता हूँ जबकि मैंने आज तक उस लड़की को देखा तक नहीं और ना ही उसने मुझे ही देखा है. ये रिश्ता बेमेल है. मैं जा रहा हूँ. जब भी आप बुलाओगे मैं आ जाउंगा ;लेकिन ये सगाई मेरी तरफ से टूटी समझो और इस घर से रिश्ता मेरी तरफ से कभी नहीं टूटेगा। " अर्जुन अपना सामान  लेकर स्टेशन चला गया। 
 
चित्रा से ये सब देखा नहीं गया और वो दौड़ती हुई सुमन के पास गई। चित्रा ने सुमन को सारी बात विस्तार से बता दी. सुमन एक पल के लिए ऊपर से नीचे तक काँप गई लेकिन तुरंत संभलते हुए बोली " वो ऐसा नहीं कर सकते।" सुमन तेज क़दमों से रेलवे स्टेशन की तरफ चल दी क्यूंकि गाडी आने में अभी समय बाकी था । सुमन  स्टेशन पहुंची तो अर्जुन प्लेटफार्म पेड़ नीचे खड़ा दिखा। गाँव की परम्परा अनुसार सुमन घूँघट निकाले थी. सुमन अर्जुन सिंह के सामने  खड़ी हो गई।  अर्जुन चौंका तो सुमन बोली "मैं सुमन हूँ" अर्जुन ने तुरंत  अपना चेहरा दूसरी तरफ करते हुए कहा " देखिये सुमन जी , मेरा और आपका कोई ताल्लुक नहीं है।  जो रिश्ता दोनों के घर वालों ने किया है वो किसी भी हालत में मानने और निभाने लायक नहीं है।  वैसे भी बाबासा ने मुझे घर से बेदखल कर दिया है और मैं वापस दिल्ली  जा रहा हूँ " सुमन ने जवाब दिया " कोई भी पिता अपने बेटे से इस तरह के जवाब को सहन करने की स्थिति में नहीं हो सकता और बाबासा के साथ भी यही हुआ है. जिस तरह आप इस रिश्ते की बात से  चौंके , उसी तरह वे भी चौंके और हैरान हुए होंगे।  वे हमसे उम्र में बड़े हैं।  हमारे जन्मदाता है , उन्हें हक़ है हमें डांटने का ; हमें समझाने का ।  मैं बाबासा से आपकी तरफ से माफ़ी मांग लुंगी , मुझे उम्मीद है वे हमें क्षमा कर देंगे।  आप मेरे साथ घर चलिए" अर्जुन सुमन की बातें सुनकर मन ही मन  सोचने लगा कि गाँव में रही सुमन एक बहुत ही पढ़ी लिखी और बड़ी उम्र की शहरी महिला की तरह बातें कर रही है।  लेकिन अगले ही पल उसने बेरुखी से सुमन से कहा " मैंने बाबासा से साफ़ शब्दों में इस रिश्ते को तोड़ देने की बात कह  दी है, मेरा फैसला अटल है।  आप अपने घर जाएँ , इस तरह सभी के सामने एक पराये मर्द से बात कर मर्यादा ना तोड़ें " सुमन की आँखें छलछला उठी , उसने भर्राई आवाज में कहा " आप मुझे पराई समझ सकते हैं लेकिन मैं नहीं।  हम  अक्सर जोश में खुद को सही समझकर अपनों से बड़ों की बातों को हवा में उड़ा देते हैं , लेकिन अंत में पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता।  आप आज जा रहे हो , लेकन देखियेगा ये घर ही आपका घर रहेगा और ये रिश्ते ही रहेंगे।  मुझे पूरी उम्मीद है आपको लौटकर आना ही पडेगा " अर्जुन ने सपाट चेहरे के साथ कहा " उम्मीदों पर वे लोग जिया करते हैं जिन्हें अपने आप पर भरोसा नहीं होता और भगवान् भरोसे उम्मीद के सहारे ज़िंदगी बिता देते हैं।  " सुमन मुड़ी और यह कहते हुए चली गई " ना मेरी उम्मीद झूठी , ना मैं किसी के भरोसे लेकिन मेरा भगवान् सच्चा और मेरा विश्वास अडिग है। यही भगवान् और यही विश्वास मेरी उम्मीद है। " अर्जुन सुमन की इस आत्मविश्वास से भरी बात से सहमा और लेकिन फिर पल इंजिन की आवाज सुनकर सामान उठाकर  आगे बढ़ गया। गाडी चल दी और सुमन गाड़ी  के पीछे उड़ती धूल में अपने किस्मत को तलाशने लगी। 
 
अर्जुन ने दिल्ली लौटने के  बाद सुधा को पूरी बात बता दी।  सुधा ने अर्जुन का हौसला बढ़ाते हुए कहा " जो भी  हुआ वो सब मेरी वजह से हुआ है।  इन सब का कारण मैं ही हुँ. लेकिन मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूंगी , चाहे कुछ भी हो जाए। " अर्जुन को सुधा की इस बात से अपनी हिम्मत बढ़ती हुई लगी.  
इस घटना के एक महीने के बाद अर्जुन और सुधा ने कोर्ट में शादी कर ली । अर्जुन इस वक़्त तक एक कमरे के एक छोटे मकान में रह रहा था लेकिन शादी के बाद तुरंत उन्होंने दो कमरों का एक नया मकान किराए पर ले लिया। दोनों वहीँ साथ साथ रहने लगे। 
दोनों का वैवाहिक जीवन आरम्भ हुआ और पांच महीने तक खुशनुमा सफ़र जैसा  रहा। सब कुछ सपनोँ  की दुनिया जैसा लग रहा था।  सुधा को अचानक एक दूसरी कंपनी में करीब दोगुनी तनख्वाह  बेंगलोर में एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी का ऑफर मिला।  सुधा ने अर्जुन को यह बात बताई और अपने बेंगलोर जाने के फैसले के बारे में बताया। अर्जुन ने सुधा को मना किया कि जब दोनों मिलकर अच्छा कमा लेते हैं  दूर जाकर ये नौकरी करने की कोई आवश्यकता नहीं है. लेकिन सुधा ने ये तर्क दिया कि जब तक बच्चे नहीं हो जाते ऐसे हर मौके का फायदा उठा लेना चाहिए। यही समय है अधिक से अधिक पैसे कमाने का.  इस बात को लेकर दोनों में तनातनी हुई लेकिन आखिर में सुधा ने अर्जुन को मना ही लिया। अर्जुन ने भारी दिल और भीगी आँखों से सुधा को बंगलौर की फलाईट में बैठाया।  सुधा की आँखें भी भर आई. अर्जुन कुछ दिन काफी परेशान रहा मगर फिर धीरे धीरे सब सामान्य होता चला गया. 
 एक दिन अर्जुन सिंह अपने  पुराने घर  के मालिक के ऑफिस गया क्यूंकि वो मकान मालिक भी अर्जुन के गृह जिल्हे का  रहनेवाला था. अर्जुन  को देखते ही वो बोला " कहाँ हो कंवर सा , एक हफ्ते से कोशिश कर रहा था मैं तुम्हारे नए पते के बारे में पता लगाने की ।  ये लो तुम्हारे घर से कोई चिट्ठी आई पड़ी है एक हफ्ता हुआ है । तुमने अपने नए पते की खबर घर दी थी  क्या?"
अर्जुन ने बात सम्भालते हुए कहा " खबर तो दी थी , हो सकता है , बाबासा भूल गए होंगे।  चलो धन्यवाद।  मैं अब चलता हूँ "
अर्जुन ने घर आकर जब चिट्ठी खोली तो पता चला वो उसके छोटे भाई भानु ने लिखी थी. उसमे लिखा था कि वो यानि भानु सबसे छुपाकर ये चिट्ठी लिख रहा है ।  चित्रा की शादी तय हो गई है और बाबासा और माँ ने अर्जुन को बुलाने के लिए मना किया है।  अर्जुन शादी की तारीख पढ़कर हैरान रह गया।  आज से केवल दो दिन बाद ही शादी की तारीख है ! वो तुरंत अपने बॉस के घर गया और सारी बात बताकर, छुट्टी लेकर अगले दिन सवेरे ही ट्रेन से अपने गाँव रवाना हो गया.  उसे जो  जल्दी   जल्दी में सूझा उसी  हिसाब से घर में सभी के लिए कपडे खरीद लिए.
अर्जुन को घर आया देख पृथ्वी गुस्से से भर गया ।  लेकिन अर्जुन के मामा ने उन्हें शांत कर दिया। अर्जुन ने सभी के पैर छुए. भानु और चित्रा अर्जुन को देख बहुत खुश हुए और गले से लग गए। शाम को शादी की एक रस्म थी।  अर्जुन ने देखा एक युवती लाल साडी में घूँघट निकाले उसकी माँ के साथ पूरी तन्मयता से काम करने में जुटी हुई है।  अर्जुन उसे पहचान गया और उसके माथे  पर पसीना आ गया क्यूंकि वो सुमन ही थी। अर्जुन चुपचाप  बैठा रहा सारी रस्म के दौरान। सुमन बीच बीच में कनखियों से अर्जुन को देखती रही लेकिन अर्जुन सर झुकाये ही बैठा रहा. रात के खाने के बाद सुमन अपने घर रवाना हुई तब अर्जुन घर के बाहर ही खड़ा था।  सुमन उसे देखकर उसके करीब आकर रुकी।  सुमन ने कहा " आपने अच्छा किया जो चिट्ठी के मिलते ही आ गए।  मैंने ही भानु से कहकर चिट्ठी लिखवाई थी ।  बाबासा और माझी सा तो अभी तक गुस्से में ही है. लेकिन गाँव में हमारे घर की इज्ज़त बनी  रहे इसीलिए मैंने ये कदम उठाया। " सुमन चली गई और अर्जुन उसे दूर तक जाते हुए देखता रहा और सोचता रहा कि सुमन खुद को अभी भी इस घर की बहू  समझ रही है और  उसी हिसाब से व्यवहार भी कर रही है।  उसे समझ में नहीं आया कि वो आखिर करे तो क्या करे और सुमन से कुछ कहे तो क्या कहे और कैसे कहे?
अगले दिन भानु ने उसे बताया कि सुमन भाभीसा  खुद ही घर आई और माँ से बोली कि ये उसका घर है और वो अपने बचपन की सहेली की शादी में अपने कर्तव्य को निभाने आई है।  अर्जुन ये सुनकर सोचने लगा कि सुमन उसके लिए एक पहेली बनती जा रही है. वो कुछ भी नहीं समझ पा रहा था सारे घटनाक्रम को।  शाम को चित्रा की बरात आ गई ।  खूब धूमधाम से शादी हो गई. सुमन तमाम रस्मों  के निभाने तक चित्रा  के साथ साये की तरह से रही ।  सुबह चित्रा की विदाई हुई।  माहौल बहुत भारी हो गया. चित्रा अर्जुन के पैर छूने के बाद  फफक कर रो पड़ी. अर्जुन भी खुद को रोक नहीं पाया , बचपन में वो चित्रा को गोदी में उठाये पूरे घर में घूमा करता था और उसके एक आंसू पर बाबासा से लड़ाई कर लेता था. ये सब दोनों को याद आने लगा.  
विदाई के बाद अर्जुन घर की छत पर आकर खड़ा हो गया और गाँव देखने लगा. सुबह का वक़्त था। बच्चे स्कूल जा रहे थे।  उसे बचपन के दिन याद आने लगे।  तभी सुमन चाय लिए आई और बोली " चाय पी लीजिये , कुछ हल्का हो जाएगा मन. बेटी की विदाई का दिन माँ -बाप की ज़िंदगी में सबसे भारी और दुःख वाला दिन होता है. उनके शरीर का एक हिस्सा जैसे अलग हो जाता है. माँ - बाप ही अपनी औलाद कि कमी को महसूस कर सकते हैं. बेटी अपने ससुराल जाती है और बेटा शादी के बाद अपनी दुनिया में. रिश्तों की दुनिया बहुत बड़ी है. इसे  समझने और निभाने में उमर बीत  जाती है लेकिन फिर भी कमी रह जाती है ।"  अर्जुन सुमन की बातों का जवाब देने में खुद को असमर्थ महसूस  कर रहा था. अर्जुन चाय पीने लगा , सुमन उस से कुछ दूर खड़ी आसमान की तरफ तक रही थी।  तभी हवा  का एक तेज झोंका आया और सुमन के  सर का पल्लू हवा के साथ उड़कर उसके काँधे पर आकर ठहर गया।  सुमन का चेहरा पहली बार अर्जुन के सामने आया  था।  एकदम साफ़ गोरा  रंग , तीखे  नाक नख्श और आत्मविश्वास से भरी हुई आँखें।  अर्जुन सुमन को देखने लगा तभी सुमन ने चेहरा फिर से घूँघट की ओट में छुपाया और छत से  नीचे चली गई.
अर्जुन अगले दिन दिल्ली लौट गया ।
इसी तरह  से करीब चार महीने  बीत गए।  इस दौरान सुधा और  अर्जुन आपस में दो बार मिले , एक दूसरे के पास जाकर एक एक बार। दोनों बार अर्जुन ने सुधा से वापस दिल्ली आने की मिन्नत की लेकिन दोनों ही बार सुधा ने एक ही कारण बताया कि दो साल खूब पैसे कमाएंगे बाद में परिवार शुरू  करेंगे और खूब ऐश करेंगे । अर्जुन परेशान रहने लगा।  जब कभी दोनों की आपस में फोन पर बात होती तो अर्जुन अपना आपा खो देता।  अर्जुन को ऐसा लगने लगा कि कोई अनजानी दीवार उन दोनों के बीच बनती जा रही है. एक दिन सुबह सुधा का फोन आया जो अर्जुन की ज़िंदगी की तमाम उम्मीदों को तिनके की तरह उड़ा गया।  सुधा ने उसे फोन पर कहा " सुनो अरु , एक लाइफटाईम ऑफर दिया है आज बॉस ने ।  डेनमार्क में हमारे हेड ऑफिस में मेरा बॉस प्रोमोट होकर जा रहा है दो साल के लिए।  उसने मुझे भी डबल प्रोमोशन और डबल इन्क्रीमेंट का ऑफर दिया। मैंने तो तुरंत हाँ कर दी है।  अरु , सिर्फ दो साल और ढ़ेर  सारा पैसा।  परिवार शुरू हम और दो साल बाद कर लेंगे।  ज़िंदगी कौनसी भागी जा रही है।  तुम भी इस खबर से खुश हो ना अरु ?"
अर्जुन का सर घूमने लगा , एक ही साँस में सुधा का ये सारी बात कह देना और बिना उस से पूछे इतना बड़ा फैसला कर लेना उसे आगबबूला कर गया।  अर्जुन सिंह लगभग चीखते हुए बोला " तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है सुधा। मेरे से पूछे बिना इतना बड़ा फैसला कर लिया ! तुम्हारी ज़िंदगी में मेरी कोई अहमियत है या  नहीं? तुम इस तरह से कैसे अकेली जा सकती हो और वो भी बिना मेरी हाँ के ? मैं कुछ नहीं रहा और तुम्हारा बॉस तुम्हारा सब कुछ हो गया ! ज़िंदगी है या कोई मज़ाक ? तुम कहीं नहीं जा रही हो और ये नौकरी छोड़कर दिल्ली आ रही हो , ये मेरा फैसला है।"  चित्रा ने बिफरते हुए अर्जुन को जवाब दिया " अरु , तुम मेरी तरक्की से जलने लगे हो।  मैंने ये फैसला हम दोनों के भविष्य को देखते हुए किया है. मेरा बॉस सिर्फ बॉस है , तुम शक की नज़र से मत देखो उसे।" अर्जुन और चित्रा में तकरार बढ़ गई फोन पर बात करते करते ही और मामला यहाँ तक पहुँच गया कि चित्रा ने तेज आवाज़ में अर्जुन से कह दिया "तुम रहोगे गाँव के गँवार ही ना , तुम क्या जानोगे भविष्य की कीमत ।  तुम खुद एक स्वार्थी इंसान हो और मुझे स्वार्थी कह रहे हो ! तुमने अपने स्वार्थ के लिए अपने माँ -बाप को छोड़ दिया , गाँव की सीधी सादी और मासूम पत्नि  तक को ठुकरा दिया जिसका कोई क़ुसूर भी नहीं था और  आज भी अपने स्वार्थ के लिए मुझे नौकरी छोड़ने के लिए कह रहे हो। तुम्हें हमसफ़र नहीं एक घरेलु पत्नि  चाहिए , मेरे भी ख्वाब है मेरी भी कोई उम्मीद है तुम से।  तुम मुझसे उम्मीद कर सकते हो कि मैं तुम्हारे कहे कहे करती रहूँ , तो क्या मैं तुमसे इतनी भी उम्मीद ना करूँ कि सिर्फ दो साल मुझे नौकरी करने दो , पैसे कमाने दो। मैं डेनमार्क जाउंगी तो जाउंगी।  तुम्हें जो सोचना है सोच लो।  मैं  सुमन नहीं हूँ जो एक तुम्हारे आने की झूठी उम्मीद में आज भी इंतज़ार कर रही है।  तुम्हारी सोच संकुचित है और कमजोर भी " अर्जुन ने गुस्से से फोन पटक दिया। 
 एक सप्ताह  बाद सुधा पहुँच  गई. दिल्ली पहुँचने  के ठीक दो दिन बाद उसकी डेनमार्क के लिए  फलाईट थी ।  अर्जुन  और सुधा  के बीच कोई नहीं  बातचीत हुई। यहाँ  तक कि  जरुरी सामान खरीदने  सुधा  अकेली गई. एक तरह से ये अलगाव  की शायद शुरुवात थी। 
अर्जुन सुधा को विदा करने  एयरपोर्ट गया। सुधा  चेक इन के लिए भीतर जाने लगी अर्जुन बोला " तुम वापस लौटोगी या  नहीं ?"
सुधा - "तुम्हें क्या लगता  है? " 
अर्जुन - " मुझे उम्मीद नहीं रही अब"
सुधा - " रिश्ते उम्मीदों के नहीं भरोसे पर टिके रहते हैं  "
अर्जुन - " मुझे अब भरोसा नहीं रहा तुम पर ।  तुमने उस दिन जो कुछ भी कहा मुझे फोन पर और जिस तरह से एकतरफा फैसला किया तुमने।  इसके बाद सब ख़त्म सा लग रहा है। तुमने सच कहा मैंने अपना स्वार्थ देखा।  तुमने भी तो अब ऐसा ही फैसला किया है।  मैं बेटा होकर भी  खून के रिश्ते को नहीं निभा सका ; तुम तो पराई हो  ;कोई और घर की से आई हो।  हर तरह से अजनबी।  मुझे तुमसे कोई उम्मीद रखना खुद को ही धोखा देने जैसा हुआ।  जब मैं बेटा होकर भी अपने माँ - बाप को छोड़कर  चला आया  तो तुम्हारा मुझे छोड़कर जाना कोई गलत नहीं है।  सही और गलत तुमने मुझे सिखला दिया।  तुम्हारा ये एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगा।  बस यही उम्मीद करूंगा कि आज के बाद ना मैं स्वार्थी रहूँ और ना ही तुम। स्वार्थ की नींव पर बनी रिश्तों की ईमारतों इसी तरह से भरभराकर गिरा करती है , किसी का कोई क़ुसूर नहीं । अलविदा "
अर्जुन इतना कहकर घर चला आया। अगले दो दिन वो ऑफिस नहीं जा सका।  बचपन से लेकर अब तक की तमाम घटनायें याद करता रहा और सारे दिन और सारी रात सोचता रहा।  तीसरे दिन जब वो घर से बाहर निकला तो वो बहुत कुछ तय कर चुका था। ऑफिस में अपने बॉस से उसने सब कुछ सच सच बता दिया और नौकरी से इस्तीफे की बात भी कह दी ।  उसका बॉस बहुत ही सुलझा हुआ इंसान था । उसने अर्जुन से कहा " मैं तुम्हारी मानसिक स्थिति समझ रहा हूँ।  तुम्हारा इस्तीफा मेरे पास रहेगा। कल से तुम चाहे तो एक पूरे महीने  भर की छुट्टी लेकर अपने घर चले जाओ और अपनी ज़िंदगी को फिर से संवारकर लौट आओ। एक  महीने के बाद अपना फैसला मुझे बता देना ।" अर्जुन हाँ में जवाब देकर घर चला आया ।  शाम को उसने तलाकनामे के कागज़ात सुधा को भिजवा दिए। उसी रात को वो अपने गाँव जानेवाली गाड़ी में बैठ चुका था । 
 
 अर्जुन ट्रेन मे सो नहीं सका। वो यही  सोचता  रहा कि घरवालों से  किस तरह से सामना करेगा और बाबासा से कैसे नज़र मिलायेगा. इसी उधेड़बुन मे उसका गांव आ गया . अर्जुन अपना सामान लेकर घर की तरफ चलने लगा. सुबह का वक़्त था और पृथ्वी सिंह मंदिर से लौटकर आंगन मे बैठा ही था कि उसे अर्जुन सिंह आता दिखाई दिया। एक पल को तो बाप का लाड़ जाग गया लेकिन अगले ही पल वो मुंह फेरकर दूसरी तरफ मुड कर बैठ  गया. अर्जुन घर मे दाखिल हुआ , अपना सामान एक तरफ रखा और पृथ्वी सिंह के पैर छुने झुका , पृथ्वी उठा और कुछ दूर जाकर बोला " अब कोई और नया फैसला करने आये हो ?" अर्जुन एकदम ठंडी आवाज़ मे बोला " बाबासा , मैं लौट आया हूँ" पृथ्वी ने एक कुटिल मुस्कान चेहरे पर लाते हुये कहा " क्यूं, उस शहरी मेमसाब ने ठुकरा दिया या तुम छोड़ आये हो ?" अर्जुन ने उसी तरफ ठंडी आवाज़ मे जवाब दिया " मैने अपने सभी गलत फैसलों को सुधारकर सब कुछ छोड़कर घर लौट आया हूँ और आपका हर आदेश मेरे लिये लोहे की लकीर होगा। मुझे सही और गलत सब समझ में आ गया है बाबासा। "
पृथ्वी सिंह ने एक ठहाका लगाते हुए कहा " वो तुम्हारे भविष्य के सपने क्या हुए  ? वो नये विचार क्या हुए  ? इतनी जल्दी ढह गई नयी विचारधारा की नींव पर खड़ी इमारत ?" अर्जुन बोला " नहीं बाबासा , नयी विचारधारा उतनी गलत नहीं निकली जितना मैं खुद गलत निकला. मेरा स्वार्थ और लालच मेरी नाकामयाबी की वजह बन गये. दोनों सोच को मिलाकर चलता तो आज यूं फिर उसी जगह ना आता जहाँ से सफर शुरू किया था. मैं गलत था . माँ-बाप अपनी औलाद का बुरा कभी नहीं चाहते , लेकिन ये जरूर है कि औलादें उनका बुरा जरूर सोच लेती है कभी कभी जैसा मैने किया. ये सच है कि बचपन मे किये पक्के कर दिए गये इस रिश्ते को ; इस तरह से सगाई और शादी के रिश्ते अक़्सर भावनाओं मे बहकर कर दिये जाते हैं , मुझे सोच समझकर देख भालकर कर हाँ या ना में फैसला करना चाहिये था. जब सब कुछ मेरे साथ ऐसा बीत रहा था कि मैं हर बाज़ी हारते जा रहा था तो सुमन जी की कही एक एक बात मुझे आईना दिखला रही थी और उस आईने मे सुमन जी नज़र आ रही थी. मैने पढ़ाई तो बहुत की बाबासा लेकिन व्यावहारिकता नहीं पढ़ सका. अपनी सोच को बड़ी और साफ नहीं कर सका. सुधा विदेश जा चुकी है हमेशा हमेशा के लिये मैं कल उसे तलाकनामा भेज चुका हूँ. मैं अपनी ज़िंदगी वहीं से आरंभ करूंगा जहाँ से मैं आपको छोड़कर गया था. सुमन जी के साथ  अन्याय और गलत व्यवहार के लिए मैं आप से और माँ से क्षमा माँगता हूँ। आप जो भी फैसला करेंगे मुझे वो मंज़ूर होगा।  चाहे आप अपनाओ या ठुकराओ। " 
सरोज और भानु भी आ चुके थे और अर्जुन की बातें सुन रहे थे . सरोज ने अपने पति को आंख से ईशारा किया , पृथ्वी की आँखें भर कर छलक  रही थी उसने अर्जुन के कंधे पर हाथ रखा और बोला " उस लड़की ने तुझ पर इतने अत्याचार कर लिये और तू हमें खबर भी नहीं कर सका ! तू हम को छोड़कर गया था पगले हमने तुझे थोड़ी छोड़ा था. रही बात सुमन की तो वो तुझे अपनाये या ठुकराए ये फैसला वो खुद ही करेगी , हम नहीं। " सरोज आगे बढ़ी अर्जुन के सिर पर अपने हाथ रखे और बोली " सबसे पहले तू मंदिर चला जा , इस वक़्त सुमन रोज़ाना मंदिर मे पूजा करने जाती है और देर तक वहीं बैठी रहती है. " अर्जुन ने पृथ्वी सिंह और सरोज के पैर छुये , भानु को गले लगाया और मंदिर की तरफ तेज कदमों से चल पड़ा . सुमन पूजा के बाद मंदिर मे ही सीढियों पर बैठी थी . ठंडी बहती हवा सुहा रही थी और इसी से उसने अपनी पलकें मूंद ली और हवा की ठंडक को महसूस करने लगी. तभी एक आहट से उसने आँखें खोली और अर्जुन को सामने खड़ा पाया जो छलकती आँखों से उसे निहारे जा रहा था। सुमन खड़ी हो गई और घूंघट निकालने लगी ; अर्जुन ने आगे बढ़कर उसका हाथ थामा और बोला " तुम्हें घूंघट निकालने की जरूरत नहीं , सिर तो मुझे झुकाना चाहिये . हर तरह से अपराधी मैं हूँ . बाबासा और माँ का तुमने एक बेटी की तरह खयाल रखा है और आगे भी रखोगी इसलिये आज से कोई घूंघट नहीं . मैं बाबासा और माँ से आशीर्वाद लेकर यहाँ आया हूँ अपने साथ घर ले जाने . मैं लौट आया हूँ सुमन . तुम्हारी एक एक बात सच निकली और तुम्हारी ही हर बात से मैने उन तमाम मुसीबतों मे फैसले लिये और लौट आया इसी उम्मीद के साथ तुम माफ कर दोगी. मेरा अपराध बहुत बड़ा है लेकिन तुम्हारा दिल शायद उससे भी कहीं बड़ा है . लेकिन मैं हर सज़ा भुगतने के लिये तैय्यार हूँ और इंतज़ार करने के लिये भी। तुम चाहे ठुकराओ या अपनाओ मुझे हर फैसला मंज़ूर होगा।  अपराधी मैं हूँ और सज़ा का हक़दार भी. सिर्फ कहूंगा कि एक आखिरी उम्मीद रखे हुए मैं तुम्हारे पास आया हूँ." अर्जुन ने अपने हाथ जोड़े और बोला " हर सज़ा मजूर है मुझे " सुमन अर्जुन के करीब आकर खड़ी हो गई और बोली " कैसी सज़ा और कैसा इंतज़ार . मुझे उम्मीद थी आप लौटोगे. आप लौट आये हो लेकिन इतने कमजोर भी ना होइये" सुमन ने अर्जुन का हाथ थामा और बोली " चलिये घर चलते हैं." सुमन की उम्मीद टूटी नहीं थी।  


 
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शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

 तलाश



स्वामी शान्तिदास अपने कमरे में आकर बैठे ही थे कि उनके ख़ास सेवक इन्दर ने आकर सुचना दी कि मशहूर फिल्म अभिनेत्री स्वर्णा कुमारी उनसे मिलने के लिए आ पहुंची है. स्वामीजी को याद आया कि आज ये मुलाकात तय हुई थी. वे पलंग पर लेटने के बजाय वहीँ एक आसन पर बैठ गए.  इन्दर जाकर स्वर्णा कुमारी जी को ले आया. स्वामीजी ऑंखें  बंद  किये बैठे थे. लम्बे बाल, दाढ़ी और चेहरे पर एक तेज स्वामी जी की पहचान बन चुका था. स्वर्णा ने स्वामीजी के चरण छुए और उनके सामने के आसन पर ही बैठ गई. स्वामीजी ने आँखें खोली. स्वामीजी ने जब स्वर्णा कुमारी का चेहरा देखा तो हैरान राह गए. स्वामीजी एक तरह से हिल गए भीतर तक. उनके माथे पर पसीना आ गया पल भर में ही. आँखें किसी तलाश में कहीं खो गई और जुबां कांपने लगी. स्वामीजी ने अपनी ऑंखें फिर बंद कर ली. स्वामीजी के मन में क्या तूफ़ान आया था इसका अंदाजा स्वर्णा कुमारी नहीं लगा  पा रही थी. जब स्वामीजी ने काफी  देर तक आँखें नहीं खोली तो स्वर्णा ने इस रहस्यमय चुप्पी तो तोड़ने को प्रयास किया.
 
स्वर्णा कुछ समझ नहीं सकी. उन्होंने कहा " मेरा प्रणाम स्वीकारें स्वामीजी." 
स्वामीजी ने खुद को संभाला और कांपती हुई आवाज में जवाब दिया " सदा खुश रहो."
स्वर्णा " स्वामीजी, मैं खुश कतई नहीं हूँ. इसी ख़ुशी की तलाश में आपके पास आई हूँ."
स्वामीजी ने संभलकर धीमी आवाज में जवाब दिया " देवी, अगर आप ही खुश नहीं है तो इस संसार में कौन खुश होगा. धन, दौलत, शोहरत और ऐशो-आराम की हर वस्तु आपके पास है. फिर खुश क्यूँ नहीं हो."
स्वर्णा " स्वामीजी, इन सभी से ख़ुशी नहीं मिलती. मन की शांति से सुख मिलता है. ख़ुशी हासिल होती है. मेरा मन शांत नहीं है."
स्वामी जी बोले " मन तो आज तक मेरा भी शांत नहीं है देवी और ना ही मैं खुश हूँ. किन्तु मन को शांत रखना और वश में रखना ही तो जिंदगी का संघर्ष है. जो हम सभी को जारी रखना होता है."
स्वर्णा " स्वामीजी, अगर आप भी यही उत्तर देंगे तो हम कहाँ जायेंगे शांति की तलाश में."
स्वामी जी " मैं स्वयं शांति की तलाश में दर दर भटक रहा हूँ. पन्दरह बरस बीत गए, मेरी तलाश अभी पूरी नहीं हुई."
स्वर्णा " स्वामीजी, कुछ तो उपाय बताएं आप. मैं बहुत ही ज्यादा परेशां हूँ. एक एक पल जीना बोझ बन चुका है. सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है."
स्वामी जी " देवी, बहुत कुछ पाने  के लिए जब हम ये थोडा कुछ खो देते हैं तो बाद में जब हमें बहुत कुछ मिल तो जाता है, मगर उस थोड़े से कुछ के ना होने से हमारी जिंदगी अधूरी रह  जाती है. हर इन्सान आज के युग में यही थोडा कुछ खोकर अपनी जिंदगी को नरक  बना चुका है. जब हम आवश्यकता से अधिक खुशियाँ और आराम तलाशना शुरू करते हैं तो अंत में यही  होता है. मन की शांति खो जाती है. कितने ही अपने बिछुड़ जाते हैं. इंसान धन-दौलत के ढेर पर हमेशा अकेलापन ही महसूस करता है. धन-दौलत ऐशो-आराम दे सकती है मगर मन की शान्ति नहीं दे सकती. जब हमारे अपने ही साथ नहीं रहेंगे तो मन की शांति मिलेगी कहाँ से?"
स्वर्णा ने हैरानी से स्वामीजी को देखा और बोली " स्वामीजी , मैं तो शुरू से अकेली ही थी स्वामीजी. कई मेरे साथ आए, कुछ देर साथ चले, फिर अलग हो गए. मगर यह नहीं पता कि आखिर किस की वजह से मैंने सब कुछ खोया है?"
स्वामी जी " आप अकेले में ध्यान लगाकर बैठें, वर्तमान भूलकर भूतकाल में जाएँ और आरंभ से अब तक धीरे धीरे याद कर सोचें. शायद आपको सब कुछ याद आयेगा तभी आपको अपनी समस्या का पता चल सकेगा."
स्वर्णा ने स्वामीजी से उनके आश्रम में दो दिन रुकने की अनुमति ले ली. इन्दर ने स्वर्णा को एक कुटिया नुमा कमरे में ठहरा दिया. उस कुटिया में ज़मीन पर एक बिस्तर लगा हुआ था। पास ही में मटके में पानी। स्वर्णा ने कुछ देर उस कुटिया को हिकारत से देखा मगर फिर कुछ सोचकर उसी बिस्तर पर बैठ गई। बिस्तर के करीब एक छोटी सी टेबल थी उस पर कुछ पुस्तकें भी थी। उसने देखा सभी पुस्तकें ध्यान, शांति और जीवन के ऊपर थी। उसने बेमन से एक एक किताब उठाई , पन्ने पलटे मगर जल्दी ही उसे सुस्ती आने लगी और वो उस बिस्तर पर लेट गई; लेटते ही उसे नींद आ गई. स्वर्णा करीब दो घंटों बाद उठी तब शाम हो चली थी. इन्दर एक सेविका के साथ चाय नाश्ता लेकर आया. इन्दर वहीँ रुक गया। स्वर्णा और इन्दर चाय पीने लगे. 
 
स्वर्णा ने इन्दर से पुछा " स्वामी जी कहाँ के रहने वाले हैं?" 
इन्दर ने जवाब दिया " मैं स्वामीजी के साथ पिछले बारह वर्षों से जुड़ा हुआ हूँ. स्वामी जी का जन्म स्थान तो मैं भी नहीं जानता मगर इतना पता है कि स्वामी जी मुंबई से ऋषिकेश आये और फिर यहीं आश्रम बना लिया. सारे देश में भ्रमण करते हैं स्वामी जी मगर अधिकांश समय इसी आश्रम में गुजारते हैं. "
स्वर्णा की उत्सुकता और बढ़ गई ये सुनकर के स्वामी जी मुंबई से आए थे. मगर इन्दर को मुंबई के जीवन की जानकारी नहीं थी स्वामी जी के.
शाम को स्वर्णा स्वामी जी के प्रवचन में शामिल हुई. स्वर्णा बार बार स्वामी जी के शब्दों को सुनकर ना जाने क्या याद करने की कोशिश करती जो असफल ही हो रही थी. उसे स्वामी जी के शब्दों में से कुछ कुछ शब्द पहले भी कहीं सुने हुए से लग रहे थे. मगर कब और कहाँ सुने कुछ याद नहीं आ रहा था. रात को भी स्वर्णा सोते हुए यही याद करने की कोशिश करती रही. अगले दिन सुबह स्वर्णा फिर से स्वामी जी से मिलने पहुंची. स्वामी जी पूजा से उठे ही थे. स्वामी जी स्वर्णा को देखकर चौंक गए क्यूंकि स्वर्णा से अभी उनकी कोई मुलाकात होनी तय नहीं हुई थी. स्वर्णा ने प्रणाम किया हाथ जोड़कर और बोली " स्वामी जी, इन्दर जी मुझे बताया कि आप मुंबई से ऋषिकेश आए थे. मुंबई में आप क्या करते थे? "
स्वामी शान्तिदास इस सवाल से घबरा गए. स्वामी जी ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और बोले " आशा है आपका कल का दिन अच्छा बीता होगा."
स्वर्णा ने फिर पूछा " स्वामी जी आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. मैं यह सिर्फ जिज्ञासावश पूछ रही हूँ क्यूंकि मैं भी मुंबई में सत्रह सालों से रह रही हूँ."
स्वामी जी " मैं एक नौकरी करता था , मगर दिल नहीं लगता था काम में. इसीलिए यहाँ आ गया. अब तो भगवान भक्ति में ही दिल लगता है."
स्वर्णा को ना  जाने ऐसा क्यूँ लगा कि स्वामी जी का जवाब सही नहीं है. वो कुछ छुपा रहे हैं. मगर वो उन्हें मजबूर भी नहीं कर सकती थी क्यूंकि वो खुद  अपनी समस्या लेकर उनके पास आई थी. स्वामी जी स्वर्णा को साथ लेकर मंदिर में आ गए. वहाँ कई और भक्त मौजूद थे. स्वामी जी का प्रवचन आरम्भ हो गया.
स्वामी जी बोलने लगे " हम कई बार अपने स्वार्थ के कारण कई अच्छी वस्तुओं और लोगों को ठुकरा देते हैं. आखिर ऐसा क्यूँ? उस समय हमारा मस्तिष्क काम क्यूँ नहीं करता? समय बीत जाने के पश्चात ही हमें इस गलतीयों का अहसास क्यूँ होता है?  इसका उत्तर है उस वक्त हमें सिर्फ हम स्वयं ही दिखाई देते हैं. हमें हमारे सिवाय सभी पराये और हमसे इर्ष्या करने वाले लगते हैं. हमें ऐसा आभास होता है उस समय कि ये सभी लोग या कोई एक जो हमें आगे बढ़ने के लिए हमारे द्वारा अपने अपनाए जा  रहे तरीको को गलत बतला रहे हैं वे या वो हमारी सफलता नहीं देखना चाहता है. इसीलिए वो हमारे हर कदम को गलत बतला रहा है. यही है हमारी आज के मन की अशांति का मूल कारण. जब अकेलापन हमारे चारों ओर फ़ैल जाता है तभी हमें इन सभी गलतीयों का एहसास होता है मगर कई दफा तब तक काफी देर हो चुकी होती है. हमें पश्चाताप का अवसर तक नहीं मिलता है. फिर जिंदगी एकाकी हो जाती है. इसलिए हमें हर समय सभी अपनों की बातों को ध्यान से सुनने के पश्चात ही कोई बड़ा कदम उठाना चाहिए. अगर सभी उस कदम को गलत कह रहे हैं तो खुद के मन के विपरीत जाकर उस कदम को पीछे हटा लेना चाहिये. पीछे खींच लेना चाहिये. गलत दिशा में जिद वश आगे ना बढ़ कर वहीँ कुछ देर खड़े रहकर सोचकर फिर कोई दूसरा निर्णय लेना चाहिये. यही हमारी जिंदगी का मूलमंत्र होना चाहिये. आप अब ध्यान लगाकर मेरी कही बातों को मन ही मन में सोचें और मनन करें. जय गंगा मैया की. सभी को मेरा प्रणाम."
 
स्वर्णा को इस प्रवचन को सुनने के पश्चात एक तरह से पूरा यकीन हो गया कि हो ना हो इस इंसान से वो पहले कहीं मिल चुकी है और उसकी ऐसी बातें वो पहले भी सुन चुकी है. मगर याद कुछ भी नहीं आया उसे. दोपहर में स्वर्णा स्वामी जी के आश्रम में अलग अलग लोगों से मिलने पहुंची. कई लोग उसे जानते थे क्यूंकि वो आज फ़िल्मी दुनिया की एक स्थापित हिरोईन थी. 
 
स्वर्णा को आश्रम के एक कोने में एक बड़ी उम्र के बाबा मिले. पूछने पर पता चला कि ये स्वामी शान्तिदास जी के गुरु हैं. स्वर्णा ने उनसे स्वामी जी के बारे में पुछा. बाबा ने जवाब दिया " शान्तिदास मुंबई से आया था. बहुत तनावग्रस्त और हर तरह से टूटा हुआ. उसके धंधे के साझीदार ने उसका साथ एकाएक छोड़ दिया था. शान्तिदास और वो लड़का दोनों एक साथ उस शहर में आए थे अपना भविष्य तलाशने. शान्तिदास ने बताया कि उसने लाख समझाया मगर उसके साझीदार उसे छोड़कर स्वार्थी और धूर्त लोगों के साथ मिलकर जिंदगी में बहुत कुछ पाने के लिए अलग हो गया. शान्तिदास को लाखों का नुकसान  हो गया. उसकी सभी पूंजी ख़तम हो गई. उसके पास कुछ नहीं बचा. 
शान्तिदास पहले से इस संसार में अकेला ही था और उसके बाद हर तरह से टूटकर अकेला रह गया. वो मरना चाहता था गंगा मैया में कूदकर. हमने उसे  बचाया. समझाया और आश्रम में लेकर आ गए. यहाँ वो भक्ति में लीन हो गया और मैंने उसे शान्तिदास नाम दे दिया. क्यूंकि उसने शांति पाने का रास्ता स्वत: ही खोज लिय़ा था. उसने जिस तरह से अपने आप को बदला, संभाला और बाद में कितने ही और अपने जैसे लोगों को शांति का मार्ग दिखलाया शान्तिदास नाम अब सार्थक हो चुका है उसका. अब मैंने आश्रम की सभी गतिविधियाँ उसी को सौंप दी है. शान्तिदास अब मेरा सबसे करीबी शिष्य है. मगर फिर भी सब कुछ होते हुए भी वो आज तक उस घटना को नहीं भुला पाया है."
स्वर्णा ने स्वामी जी की कहानी सुनी तो उसकी आँखों में से आंसू की धारा बह निकली. उसे स्वामी जी की कहानी बहुत जानी पहचानी लगी मगर फिर भी उसे सब कुछ ऐसा याद नहीं आया जिस से उसे यह पता चल सकता कि आख़िरकार उस शान्तिदास स्वामी के शब्द और भाषा इतनी जानी पहचानी क्यूँ लग रही है.
स्वर्णा दो दिन बाद मुंबई लौट गई क्यूंकि उसकी एक फिल्म का प्रीमियर शो था.
 
मुंबई आने के बाद भी स्वर्णा स्वामी जी को नहीं भुला पाई. फिल्म के प्रीमियर शो के बाद स्वर्णा फिर से ऋषिकेश पहुँच गई. स्वामी शान्तिदास को जब ये खबर मिली तो स्वामी जी एकाएक यात्रा पर निकल गए.  स्वर्णा एक बार फिर उन बाबा के पास गई. बाबा ने शाम को मिलने का कहा.
स्वर्ण आकर अपने कमरे में बैठ गई. उसे अपना बीता हुआ समय याद आने लगा. उसे या भी याद आया कि वो किस तरह इन परिस्थितियों में पहुंची. स्वर्णा एक ऐसे दौर से गुज़र रही थी जो उसे भीतर से हिला चुका था. स्वर्णा फिल्मों में पिछले पंद्रह सालों से हैं मगर पिछले दस सालों में उसने कई सफलताएं प्राप्त की. वो एक एक्स्ट्रा की हैसियत से फिल्मों में आई मगर तीन-चार साल के संघर्ष के बाद उसकी गाडी चल निकली. 
वो एक बड़े निर्माता के साथ ने उसे कई फ़िल्में दिलवाई। .मगर ये दोस्ताना संबंध दो साल ही रहा.. फिर स्वर्णा ने एक अरबपति फायनेंसर से दोस्ती की और उसके सहारे अपने केरियर को चमकाया। इस से उसका करियर बहुत चल निकला. उस फायनेंसर की मदद से स्वर्णा ने एक के बाद एक कई हिट फ़िल्में दी. मगर सात साल के बाद दोनों के संबंध ख़त्म हो गए., जब उस फायनेंसर ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा तो स्वर्णा ने उस से सम्बन्ध ख़त्म कर लिए।
फिर उस फायनेंसर ने किसी नयी विदेशी मूल की हिरोईन से संबंध बना लिए. स्वर्णा इस घटना से बिलकुल टूट गई. उसका केरियर  धीरे धीरे ढलान पर आ गया. वो अब अकेली हो गई. बड़े बड़े निर्माता  निर्दशक उस से दूर होने लगे. बहुत कम फ़िल्में उसे मिलती. 
 
स्वर्णा ने एक आखिरी कोशिश की एक बड़े हीरो के साथ दोस्ती के रिश्ते को  बनाकर फिर से कुछ करने की. मगर उस हीरो की पत्नी ने ऐसा नहीं होने दिया. भरी प्रेस में उस हीरो की पत्नी ने स्वर्णा को थप्पड़ मारकर अपने पति से दूर रहने की बात कह दी. इस घटना के बाद स्वर्णा ने खुद एक फिल्म बनाई और लोगों ने इसे पसंद भी किया. अच्छी कमाई भी हुई. स्वर्ण ने एक और फिल्म बनाई खुद के लिए. ये भी ठीक ठाक चली. मगर अब स्वर्णा को अकेलापन खाने लगा था. इतने धोखे खाने के बाद उसे अब हर कोई धोखेबाज और फरेबी ही लगने लगा था.  स्वर्णा धीरे धीरे नशा करने लगी. फ़िल्मी जगत में स्वर्णा के नशे की लत की खबर आग की तरह फ़ैल गई और लगभग हर कोई उस से दूर हो गया।
 
एक दिन स्वर्णा के एक हमदर्द ने उसे ऋषिकेश के स्वामी शान्तिदास जी के बारे में बताया. स्वर्णा ने इसे एक अंतिम मौका समझा और ऋषिकेश आने को तैयार हो गई. स्वर्णा इन सब पिछली बातों को याद कर सोचने लगी कि वो आई थी मन की शांति की तलाश में औरक्यूँ स्वामी जी को लेकर इतना परेशां हो रही है. 
सुबह स्वर्णा को इन्दर ने बताया कि स्वामीजी हरिद्वार के कनखल में गंगा घाट पर बने जानकी कुटीर आश्रम में है. स्वर्णा तुरंत वहाँ के लिए रवाना हो गई. 


स्वर्णा जब कनखल पहुंची तो स्वामी शान्तिदास गंगा किनारे बनी सीढियों पर बैठे हुए थे. उनके दोनों पैर गंगा के पानी में डूबे हुए थे. स्वर्णा स्वामी जी के पास बैठ गई. शान्तिदास को ज़रा भी आभास नहीं हुआ कि कोई उनके पास आकर बैठा है. शान्तिदास पिछले दो घंटों से इसी तरह बैठे हुए थे.
तभी उनके एक शिष्य ने आकर कहा " स्वामी जी, भोजन कर लीजिये. आप ने सुबह से कुछ नहीं खाया है."
शान्तिदास " मेरा मन बहुत विचलित है आज. मैं शाम की आरती के बाद ही खाऊंगा. तुम जाओ और मेरे लिए निम्बू का रस भिजवा दो "
स्वर्णा ने स्वामी जी के सामने आकर बैठते हुए कहा " प्रणाम स्वामी जी "
शान्तिदास स्वर्णा को देखकर चौंक गए. उनकी आँखें हैरान राह गई. स्वर्णा ने देखा कि स्वामी जी के चेहरे पर कुछ घबराहट के भाव आ गए थे. स्वर्णा ने फिर कहा " क्या बात है स्वामी जी? आपकी तबियत ख़राब है क्या?"
शान्तिदास ने खुद को संभाला और धीरे से कहा " नहीं, मैं ठीक हूँ. आपको यहाँ का पता किसने दिया?"
स्वर्णा ने जवाब दिया " इन्दर जी ने "
शांति दास ने पूछा " आपको कोई विशेष कार्य है मुझ से?"
स्वर्णा ने जवाब दिया " जी स्वामी जी, मैं जब से आप से मिली हूँ, आपके मुंबई से आने का सुना है. ना जानेमुझे ऐसा क्यूँ लग रहा है कि शायद आपकी कहानी मुझे कुछ जानी पहचानी सी लग रही है. अगर आपको कोई आपत्ति ना हो तो क्या आप मुझे आपकी मुंबई की जिंदगी के बारे में बतला सकते हैं?"
शान्तिदास ने थोडा क्रोधित होते हुए कहा " देखिये देवी जी, आज मेरा स्वास्थ  ठीक नहीं है. मैं विचलित हूँ सुबह से. सरदर्द और कमजोरी है. आप मुझे परेशान  ना करें. फिर आपको इन सब बातों से क्या लेना देना ? आप अपने मन की शांति तलाशने आई थी. उसी को तलाशने  का उपाय मैंने बताया था आपको. उसे अमल में लाईये. इधर उधर मन भटकायेंगी तो मन के शांति किस तरह प्राप्त होगी आपको?"
 
स्वर्णा मन ही मन सोचने लगी कि स्वामी जी का इस तरह से उससे मिलते ही विचलित होना कुछ शंका तो पैदा कर ही रहा है. स्वर्णा ने स्वामी जी से अपने सवालों के लिए माफ़ी मांगी और शाम को देहरादून लौटकर मुंबई की फ्लाईट पकड़ ली. स्वर्णा मुंबई आने के बाद लगातार अपने बीते दिनों को खंगालने लगी कि आखिर स्वामी जी का मुंबई में उसकी जिंदगी से क्या ताल्लुक हो सकता है?  मगर हर बार की तरह वो असफल ही रही.
शान्तिदास ने अपने गुरु जी से आज्ञा ली और कुछ दिनों के लिए जोशीमठ के लिए निकल पड़े. जोशीमठ ने दुर्गम पहाड़ियों के मध्य शांति दास के गुरु का एक आश्रम था. शान्तिदास वहीँ रुके. हर तरह के लम्बे और बड़े बड़े पेड़, कल कल बहती नदी. शान्तिदास आश्रम के एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बैठ गए. शान्तिदास में मन की शांति अशांति में बदल गई थी. 
शान्तिदास सुबह उस पेड़ के नीचे बैठा तो वो अतीत में लौट गया.
 
एक नौजवान मुंबई में नया नया आया था. उसकी लेखनी में दम था, शब्दों में पकड़ थी. वो नाटक और फिल्मो के लिए लिखना चाहता था. मुंबई में जल्द ही उसे एक प्रोडक्शन हाउस में एंट्री मिल गई. उसकी एक कहानी पर एक कलात्मक फिल्म भी बनी. मगर कमर्शियल फिल्मो के हिसाब से उसकी लेखनी को किसी ने पसंद नहीं किया. उसने जगह जगह मिलकर कोशिश की , मगर कुछ हासिल नहीं हुआ. एक दिन वो एक स्टूडियो में बैठा हुआ था . तभी उसने एक खूबसूरत लड़की को भी वहाँ आते देखा. उसे लग गया कि ये लड़की भी उसी की तरह काम की तलाश में है. उसकी शकल बता रही थी.
हुआ ये कि दोनों ही निराश उस ऑफिस से निकले. बस स्टॉप पर उस लड़की ने पूछा " तुम क्या हीरो बनने आए हो?" जवाब मिला " नहीं , मैं कहानियां लिखता हूँ. एक फिल्म आई थी इमारत. कला फिल्म थी. मेरी ही कहानी थी. तारीफ़ हुई मगर बाद में कोई काम नहीं मिला. काम की तलाश में दर  दर  भटक रहा हूँ." लड़की बोली " मेरा नाम सोना है. गुरदासपुर से आई हूँ. तुम्हारा नाम?" 
वो बोला " मैं  भोपाल से हूँ. मेरा नाम प्रभाकर जोशी  है."
सोना " कहाँ रहते हो?"
प्रभाकर " दादर में एक जगह पेइंग गेस्ट हूँ."
सोना " महीने का कितना देते हो वहाँ?"
प्रभाकर " पंद्रह सौ , सुबह की एक कप चाय मिलती है इसमें."
सोना " मेरे लिए भी बात कर लो. मैं खार में तीन हज़ार दे रही हूँ. अब पैसे भी  ख़तम  हो रहे हैं."
प्रभाकर " आज अभी चलो, दोपहर को घर ही मिलती है आंटी."
दोनों की यह पहचान दोस्ती में बदल गई. दोनों एक ही घर में पेइंग गेस्ट्स बन गए. साथ साथ स्ट्रगल करने लगे. धीरे धीरे दोस्ती अच्छी हो गई. सभी जगह एक दूजे के लिए सिफारिश करते. सोना को दो तीन फिल्मों में छोटे छोटे रोल मिले. प्रभाकर को दो फिल्मों में डायलोग लिखने का काम मिला. दोनों की दोस्ती बहुत गहरी हो गई. दो साल में ही दोनों को ठीक ठाक सफलता मिल गई. दोनों एक दूजे को एक दूजे के लिए भाग्यशाली समझने लगे. कुछ समय बाद दोनों को यह लगा कि शायद वे दोनों एक दूजे को कुछ कुछ पसंद भी करने लगे हैं. सब कुछ अच्छा चल रहा था. अचानक कुछ ऐसा हुआ कि सोना को यह लगने लगा कि प्रभाकर का साथ उसे नुकसान पहुंचा रहा है.  अगर उसका साथी कोई हीरो / निर्माता निर्देशक या फायनेंसर हो तो फायदा ज्यादा होगा. सोना प्रभाकर से दूरी बनाने लगी. प्रभाकर समझ नहीं सका इन सब  को. फिर अचानक सोना की जिंदगी में कमल किशोर आ गया. नया नया हिट निर्माता. सोना ने  कमल किशोर का सहारा  ले लिया., प्रभाकर को जब यह सब पता चला तो उसने सोना को फ़िल्मी जगत की सच्चाई बताई. उसे हर तरह से आगाह किया. 
मगर सोना को एक ऐसा सहारा नज़र आया कमल किशोर में जो उसे कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचा सकता था. और हुआ अभी यही. अगले तीन सालों में सोना की तीन फ़िल्में आई कमल किशोर की और तीनों सुपर हिट रही. कमल किशोर ने भी इसकी वजह से करोड़ों रुपये कमाए।  इन तीन सालों में सोना प्रभाकर को पूरी तरह से भूल गई. प्रभाकर छोटी मोटी विज्ञापन फिल्मे की स्क्रिप्ट्स लिखता. कभी किसी फिल्म में डाय्लोग्स लिखने का सहायक के तौर का काम भी मिल जाता. उसकी गाडी एक माध्यम वर्गीय इन्सान की तरह से चल रही थी. अब उसमे और सोना में सदीयों लंबा फासला था. प्रभाकर सोना को नहीं भूल सका था. जबकि सोना कब का उसे भूलकर कहीं आगे बढ़ चुकी थी.
 
कभी किसी फ़िल्मी समारोह में सोना और प्रभाकर आमने सामने आते तो सोना प्रभाकर को कभी नोटिस भी नहीं करती.  एक बार ऐसे ही एक समारोह में प्रभाकर ने सोना से जब उसके हल चाल पूछे तो सोना ने उसकी तरफ अनजानी नज़र डाली और ऐसे देखा जैसे वो उसे पहचानती नहीं है. इसके बाद प्रभाकर को इस व्यवहार से बहुत धक्का लगा था. प्रभाकर ने भी इस घटना के बाद सोना के सामने जाना बंद कर दिया. सोना अब स्वर्णा कुमारी बन चुकी थी. उस ने नाम बदल लिया था और इसी नाम से वो और अधिक हिट फ़िल्में  देने लगी.
प्रभाकर का लेखक के रूप में फ़िल्मी करियर एक दिन अचानक चमका जब उसकी एक कहानी को एक बहुत बड़े निर्माता-निर्देशक ने पसंद कर लिया और फिल्म बनाई. फिल्म जबरदस्त हिट हो गई. प्रभाकर की मांग बढ़ गई. अगले तीन सालों में प्रभाकर फ़िल्मी दुनिया में सबसे महँगा लेखक बन चुका था. प्रभाकर मगर अब तक सोना को नहीं भूल सका था. उसे रह रहकर सोना का इस तरह से छोड़ देना  अखरता रहता था. धीरे धीरे प्रभाकर का मन अशांत होने लगा. उसका दिल हर वक्त उचटा हुआ रहता. उसका लेखन प्रभावित होने लगा. उसे शराब की लत लग गई. सबसे महंगा लेखक केवल छः महीनों में अब बिना काम का हो गया था. प्रभाकर मन ही मन सोना से इतनी मौहब्बत करने लगा था कि वो अब अख़बार या पत्रिका में उसकी किसी के साथ तस्वीर तक देखना पसंद नहीं करता था. एक एक कर के उसके सभी दोस्त उस से दूर होते चले गए. प्रभाकर अस्पताल में दाखिल हुआ. बड़ी मुश्किल से शराब की आदत छूटी .
 
प्रभाकर जब अकेलेपन की तमाम हदें पर कर गया तो एक दिन उसने मुंबई में अपना सब कुछ बेच दिया और बदहवाशी के हालात में हरिद्वार चला  आया. दो दिन रुकने के बाद वो ऋषिकेश गया गंगा आरती के लिए. उसने यह सोच लिया कि गंगा आरती के बाद वो गंगा जी में जल समाधी ले लेगा. उस शाम गंगा आरती के बाद प्रभाकर घाट  से धीरे धीरे एक एक कर सीढीयाँ उतरता गया और गंगा जी में उतरता गया. जब उसका सिर्फ सिर ही दिखाई देने लगा तो कुछ साधुओं ने कोई आशंका होती देख उसे खींच कर बाहर निकाला और अपने आश्रम में लेकर आ गए. प्रभाकर दो तीन दिन तक खामोश रहा. बाद में उस आश्रम के बाबा ने प्रभाकर से सब पूछा तो प्रभाकर ने सही बात ना बता कर कुछ कहानी को बदलकर हकीकत जैसी बनाकर बता दी. 
प्रभाकर बाबा के सानिध्य में भगवान भक्ति में लग गया. सिर्फ आठ-दस  महीनों में ही प्रभाकर एक सामान्य इंसान से स्वामी शान्तिदास बन चुका था. हरतरफ उसके प्रवचनों और कही गई बातों की चर्चा होने लगी. उसकी कलम में जादू तो था ही पहले से , वो अब अपने लिखे शब्दों को खुद बोलता तो उन शब्दों का जादू भक्तों के सर पर जादू की तरह चढ़कर बोलने लगा। जो कोई उसकी शरण में आता वो अपनी सभी समस्याओं को सुलझाकर ही वापस लौटता क्यूंकि लेखक होने की वजह से उसकी समझ और सोच काफी गहरी थी। कई बड़े बड़े उद्योगपति, फिल्म जगत की हस्तियाँ, राजनिति के बड़े बड़े नेता तक उसकी शरण में आने लगे. इन्दर शान्तिदास का ख़ास सेवक था. वो शान्तिदास का पूरा ख़याल रखता. कौन कब मिलेगा सब वो ही तय करता. इसी इन्दर ने एक दिन शान्तिदास को कहा कि मुंबई के स्वर्णा कुमारी नाम की बहुत बड़ी अभिनेत्री उस से मिलना चाहती है. वो अपने जीवन से तंग आ चुकी है.
 
वो स्वर्णा का नाम सुनकर हैरान रह गया। वो स्वर्णा से किसी रूप में मिलना नहीं चाहता था। शान्तिदास चाहकर भी स्वर्णा से मुलाक़ात के लिए मना नहीं  कर सकता था क्यूंकि आज तक उस ने किसी को मिलने के लिए ना नहीं कहा था. बड़े भारी मन से उसने हाँ कह दी.
 
तभी शांति दास की तन्द्रा टूटी और वो अतीत से वर्तमान में लौट आया. इन्दर सामने खडा था. इन्दर ने शान्तिदास से अचानक इस आश्रम में रुकने का करण पूछा और उनकी ऐसी स्थिति का कारण भी पूछा तो शान्तिदास ने बड़े भारी मन से इन्दर को अपनी और स्वर्णा की आज तक की कहानी बतला दी. इन्दर एक गहरी सोच में डूब गया. उस वक्त तो वो कुछ ना बोला, मगर सारी रात वो जागता रहा और शान्तिदास के बारे में उस कहानी को लेकर सोचता रहा.


 सवेरे इन्दर शान्तिदास के साथ गंगास्नान के बाद ध्यान में बैठ गया. ध्यान के बाद इन्दर ने शान्तिदास से कहा " स्वामी जी, जिस स्थिति में आप बरसों पहले मुंबई छोड़कर ऋषिकेश आए थे. आज उसी स्थिति में स्वर्णा देवी भी मुंबई से बार बार ऋषिकेश आ रही है.. आप स्वर्णा देवी से अलगाव को सहन नहीं कर सके. स्वर्णा देवी असफलता को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है. अब वो अकेलेपन की सभी सीमाएं पारकर एक अत्यंत ही दुखदायी स्थिति में पहुँच चुकी है. आज स्वर्णा देवी एक ऐसे सहारे की तलाश में है जो उन्हें ना केवल इस गंभीर स्थिति से निकलने में मदद के बल्कि आगे के लिए भी एक सच्चा साथी बन सके. आप भी उन दिनों इसी स्थिति में थे. मैं तो यह भी मानता हूँ कि स्वामी जी आप आज भी उन दिनों सी स्थिति से उभरे नहीं है. मैं पहले दिन से आपके करीब रहा हूँ. मैं आपको ना सिर्फ जानता हूँ बल्कि समझता भी हूँ आपके दिल की बातों को. स्वामी जी , आप को आज भी स्वर्णा देवी की तलाश है और स्वर्णा देवी को आज आप जैसे मन से चाहने वाले सहारे की तलाश है. आप जिस की तलाश में यहाँ आये थे, वो स्वयं आपकी तलाश में यहाँ तक आ पहुंची है. आप दोनों की तलाश यही समाप्त हो जानी चाहिये. ऐसा मेरा विचार है."
शान्तिदास इन्दर की बातों को बहुत ही गौर और आश्चर्य के साथ सुन रहा था. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि इन्दर इतनी गहरी और स्पष्ट बात कैसे आसानी से कहता जा रहा है! जो तलाश कभी पूरी नहीं होगी, ऐसा शान्तिदास आज तक सोच रहा था. इन्दर ने स्वर्णा के साथ उसके संबंधों के बारे में सब जानकर उसे वो बतला दिया जो शायद वो कभी सोच नहीं सकता था. इन्दर ने शान्तिदास की तरफ देखा और बोला " स्वामी जी, अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं स्वर्णा देवी से यह सब वार्ता विस्तार से कर लेता हूँ. मुझ से आपका एकाकीपन सहन नहीं हो रहा है अब जबसे आपने स्वर्णा देवी के बारे में सब बताया है."
शान्तिदास कुछ ना बोला. वो आश्रम में अपनी कुटिया में आकर लेट गया. इन्दर ने कुछ देर पश्चात कुटिया में झांककर देखा तो स्वामी जी गहरी नींद में थे. इन्दर ने स्वामी जी के शांत ओजस्वी चेहरे को देखा और मन ही मन सोचा " स्वामी जी, आज एक बहुत ही लम्बे अरसे एक पश्चात इतनी शांति और संतुष्टता के साथ नींद ले रहे हैं. इसका यही मतलब है कि स्वामी जी को मेरा प्रस्ताव मंज़ूर है. अब मुझे स्वामी जी के जवाब का इंतजार किये बिना स्वर्णा देवी से बात कर लेनी चाहिये."
 
इन्दर ने ऋषिकेश लौटकर स्वर्णा का मुंबई में टेलीफोन नंबर निकाला और उसके हाथ फोन की तरफ बढ़ गए. स्वर्णा अपने कमरे में बैठी चाय पी रही थी. तभी फोन की घंटी बजी. स्वर्णा ने फोन उठाया और बोली " हेलो,कौन है?"
इन्दर " जी मैं स्वामी शान्तिदास जी के आश्रम ऋषिकेश से इन्दर बोल रहा हूँ, क्या मेरी बात सोना जी से हो सकती है ?"
स्वर्णा इन्दर के मुंह से सोना नाम सुनकर चौंक गई. इन्दर को उसका यह नाम कैसे पता? स्वर्णा बोली " इन्दर जी मैं स्वर्णा बोल रही हूँ. मगर आपको मेरा यह नाम कैसे पता चला?"
इन्दर बोला " यह सब मैं आपको जोशीमठ आने पर बताऊंगा. आप पहली फ्लाईट से देहरादून आ जाइए. एयरपोर्ट पर हमारे आश्रम का सेवक आपको कार के साथ मिल जायेगा. स्वामी जी आपसे मिलना चाहते हैं. कुछ जरुरी सन्देश है आपके लिए. शायद आप जिस तलाश में हमारे आश्रम आई थी. वो तलाश पूरी ही चुकी है."
स्वर्णा ने दूसरे दिन सवेरे सवेरे की फ्लाईट में टिकट बुक करवा लिया और करीब नौ बजे वो देहरादून के एयरपोर्ट पर उतर चुकी थी. गेट पर एक गेरुयें कुरते में एक युवक उसके पास आया और बोला " स्वर्णा देवी , मैं स्वामी शान्तिदास जी के आश्रम से हूँ, हमें इसी वक्त जोशीमठ निकलना है." स्वर्णा उसके साथ जोशीमठ के लिए निकल पड़ी. पूरे रास्ते वो बीती रात की तरह लगातार सोचती रही कि आखिर ये शान्तिदास है कौन जिससे मिलने के बाद उसकी जिंदगी में बहुत ज्यादा उथल पुथल हो गई है. वो अनजान होकर भी इतना जाना पहचाना क्यूँ लग रहा है. वो खुद को भूलने लगी है और स्वामी जी के बारे में सोचने लगी है. अब अचानक स्वामी जी का यह सन्देश कैसे आ गया? इन्दर को उसका सोना नाम किस तरह पता चला? क्या स्वामी जी उसे पहले से जानते हैं? या किसी ने स्वामी जी को उसका अतीत बतला दिया है? स्वामी जी ने कनखल में उसे डांटकर भगा दिया था और अब अचानक फिर से बुलाया है और वो भी जोशीमठ? ये क्या माजरा है? एक के बाद एक कई सवाल उसके जहाँ में घूमने  लगे.
ऊँची पहाड़ियों को पार कर  अब कार उबड़ खाबड़ रास्ते पर चलने लगी. करीब आधे घंटे इसी तरह के रास्ते पर चलने के बाद सामने एक आश्रम दिखाई दिया. चार-पांच कुटियाएँ बनी हुई थी. खूब हरियाली थी. कार रुकी तो सामने इन्दर खड़ा था. उसने स्वर्णा को देखा और बोला " नमस्ते, आईये." स्वर्णा ने तुरंत इन्दर से पुछा " आपको मेरा सोना नाम कैसे पता चला?" इन्दर मुस्कुरा दिया और बोला " जी अब इन सवालों का कोई अर्थ नहीं है. स्वामी जी से मिल लीजिये. आपके सभी प्रश्नों के उत्तर उनके पास है और सभी समस्याओं का भी. वे आपका ही इंतजार कर रहे हैं. आइये."
 
स्वर्णा की उत्सुकता अब चरम पर पहुँच गई. इन्दर ने आश्रम में ही पीछे एक ऊँची पहाड़ी के पीछे बहने वाले झरने के पास ले जाकर कहा " वो रहे स्वामी जी, आप मिल लीजिये. आपकी तलाश पूरी हुई मन की अशांति की. नया जीवन शुभ हो. "
स्वर्णा ने एक बार फिर इन्दर की तरफ देखा. मगर वो इन्दर के चेहरे से कुछ पढ़ ना पाई. इन्दर जा चुका था. स्वर्णा ने देखा स्वामी जी झरने के बहते हुए पानी में पाँव लटकाए हुए उसकी तरफ पीठ किये बैठे हैं. स्वर्णा को याद आया कि इन्दर ने बतलाया था कि स्वामी जी को इसी तरह बहते हुए पानी में पैर लटकाकर बैठना बहुत सुकून देता है. स्वर्णा स्वामी जी के ठीक पास जाकर स्वामी जी की तरह ही बैठ गई, जब स्वर्णा ने अपने दोनों पैर पानी में डाले तो उसे उसकी ठंडक से बहुत ही सुख पहुंचा. स्वर्णा की आहट से शान्तिदास के तन्द्रा टूटी उसने देखा कि स्वर्णा उनके पास बैठी है तो वे चौंक गए. स्वर्णा ने देखा कि स्वामी जी का चेहरा एकदम शांत है. मगर मन पूरी तरह से अशांत है. वो बोली " मेरे लिए क्या आज्ञा है स्वामी जी? इन्दर जी ने मुझे अचानक यहाँ बुलाया है. उन्हें मेरा सोना नाम किस तरह पता चला ?" स्वामी जी कुछ ना बोले. तभी स्वर्णा को इन्दर आता दिखाई दिया, उसके हाथ में एक ट्रे थी जिसमे शायद चाय थी. इन्दर ने ट्रे वहीँ रख दी. फिर स्वर्णा की तरफ एक अलग मुस्कान से देखा और बोला " सोना देवी अब आप सुकून के साथ प्रभाकर जी के साथ चाय पीजिये और अपने अपने मन की शांति की तलाश को समाप्त कीजिये."
 
इतना कहकर इन्दर चला गया. स्वर्णा इन्दर के मुंह से स्वामी जी के लिए प्रभाकर नाम सुनकर ऐसा चौंकी कि वो उठ खड़ी हुई और स्वामी जी की तरफ बहुत गौर से देखने लगी . जब काफी देर तक उसने स्वामी जी की आँखों को घूरकर देखा तो उन आँखों में प्रभाकर का कुछ कुछ अक्स नजर आया जिसे उसने बरसों पहले ठुकरा दिया था. सोना को अब स्वामी जी के उन सभी शब्दों में जाना-पहचानापन याद आया कि यह सब प्रभाकर का ही तो था. सोना ने देखा कि स्वामी जी की आँखों में एक बहुत ही गहरा सूनापन था. बिलकुल किसी पत्थर की तरह.
सोना ने प्रभाकर की खामोशी को तोड़ने के लिए कहा " प्रभाकर तुम!!  ये तुम प्रभाकर से शान्तिदास कैसे बन गए? यह सब कुछ क्या है? "
प्रभाकर ने एक गहरी सांस ली और बोला " हर तरफ अन्धेरा था; कोई राह नज़र नहीं आई मुझे तो मैंने ये फैसला किया." प्रभाकर ने अब तक की सारी कहानी सुनाई सोना को. सोना खामोशी से प्रभाकर की कहानी सुनती रही. सब कुछ सुनाकर जब प्रभाकर खामोश हो गया तो सोना बोली " मगर तुमने मेरे पीछे किया. क्यूँ? हम दोनों तो दोनों संघर्ष कर रहे थे. बस उतनी ही जान-पहचान थी. फिर मेरी चिंता तुमने इतनी क्यूँ की? अपनी जिंदगी ख़त्म करने चले थे मेरे गलत संगत में चले जाने के बाद. तुम मुझे सब कुछ साफ़ साफ़ कहो प्रभाकर. तुम्हें मेरी इतनी परवाह क्यूँ हुई? "
 
प्रभाकर बोला " मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं तुम्हें कह सकूँ कि मैं तुम्हें बेपनाह चाहता हूँ. क्यूंकि उन दिनों तुम एक बहुत बड़ी हिरोईन बन चुकी थी और मैं एक स्ट्रगलर के सिवाय कुछ भी नहीं था."
सोना काँप गई प्रभाकर के इस जवाब से. उससे एक बार तो कुछ भी नहीं कहते बना. वो सोचने लगी कि वो वास्तव में कितनी गलत फैसले कर रही थी उन दिनों. एक सच्चा हमसफ़र उसके सामने था मगर वो अंधी दौड़ में धोखेबाजों के साथ मिल गई थी और आज जब वो अपने केरियर की ढलान पर है तब उसके साथ उस वक्त का कोई भी साथ नहीं दे रहा है तब की तरह आज भी प्रभाकर उसके सामने है. आज प्रभाकर देश का सबसे सफल दार्शनिक है और वो खुद एक शुन्य के सिवाय कुछ भी नहीं;  मगर तब भी प्रभाकर उस से उस वक्त का सच आज भी कह रहा है. वो कितनी गलत थी और प्रभाकर आज भी कितना सच्चा है.
जिस मन की शांति की तलाश में वो पिछले साल भर से दर दर भटक रही थी वो तलाश वास्तव में इन्दर की बातों में आज समाप्त हो गई थी और प्रभाकर जिस तलाश में सारे देश में लोगों को जिंदगी के मायने समझाकर अपनी असली जिंदगी की तलाश कर रहा था वो तलाश वो खुद ही थी. सोना ने प्रभाकर को अपनी बरसती आँखों से देखा. प्रभाकर अभी भी किसी चट्टान की तरह शांत बैठा हुआ था. सोना ने प्रभाकर के हाथ अपने हाथ में लिए और बोली " अब तो तुम्हारी तलाश पूरी हो गई है प्रभाकर अब तो इस उदासी को कहीं दूर फेंक दो. मैं जिस गलत रास्ते पर थी उसे अब छोड़ चुकी हूँ, भूल चुकी हूँ. अब तुम भी मुझे माफ़ करो और मुझे अपने साथ लेकर चलो अपनी जिंदगी के सफ़र में. जहाँ तुम्हारी तलाश ख़त्म हुई है वहीँ मेरी  तलाश भी ख़त्म हो गई है . अब वक़्त है एक नए सफ़र का जिसमे कोई तलाश नहीं है मंजिल सामने है और हमें मंजिल तक जाना है।" 
प्रभाकर की आँखें छलछला गई. उसने सोना की तरफ देखा और बोला " जिंदगी का सफ़र कहीं और से शुरू नहीं कर यहीं से करना है. यहीं जोशीमठ में एक छोटा सा आशियाँ बना लेंगे और यहीं रहेंगे. पत्थरों के बड़े बड़े घरों में लोग भी पत्थर दिल लोग बसते हैं. हमें ऐसी बस्ती में नहीं रहना है. हम यहीं रहेंगे. कुदरत की गोद में. " सोना ने हाँ में सिर हिलाते हुए कहा " मुझे अब कुछ नहीं सोचना जब तुम मेरे साथ हो. मेरे लिए तुम कभी गलत हो ही नहीं सकते। "
 
इन्दर दूर खडा हुआ इस अनोखी तलाश को ख़त्म होता हुआ देख मन ही मन बहुत खुश हो  रहा था।
  
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