रविवार, 10 फ़रवरी 2013


काश कभी मैं समझ पाता 
 
 
देहरादून से दिल्ली की गाडी छूटने में थोड़ी देर ही बची थी। आकाश कोच में अपनी सीट पर सामान रखकर बैठने ही जा रहा था कि अचानक  एक युवती की आवाज आई " अंकल जी, रास्ता दीजिये प्लीज। मुझे बहुत सा सामान लाना है अभी और ट्रेन के छूटने में सिर्फ दस मिनट ही बाकी है। प्लीज अंकल जी।"  आकाश तुरंत अपनी साइड लोअर सीट पर बैठ गया। वो लड़की भागती हुई दरवाजे की तरफ गई और दो सूटकेस लेकर दौड़ती हुई आई। आकाश ने उस से कहा " बेटी, तुम ये सामान मुझे पकड़ा दो और बाकी का सामान ले आओ। मैं तुम्हारी मदद किये देता हूँ" उस लड़की ने आकाश से कहा " सो नाइस ऑफ़ यु अंकल जी।" बाद में आकाश और उस लड़की ने मिलकर करीब पंद्रह सूटकेस और बेग्स लाकर उस केबिन में यहाँ वहाँ रख दिए।
आकाश ने उस लड़की से पूछा " तुम्हारे साथ इतना सामान!" उस लड़की ने जवाब दिया " नहीं अंकल जी। हम कुल बीस लड़कियां है। हमारी बस रास्ते में खराब हो गई थी ना इसलिए ऐसा हुआ। मैं सब सामान लेकर एक वेन में बैठकर आगे आ गई। बाकी सब लड़कियाँ अब पहुंची है हमारे सामान लगाने के बाद। आपका बहुत बहुत शुक्रिया अंकल जी। आप ना होते तो मैं सामान गाडी के छूटने तक भीतर नहीं ला सकती थी।" आकाश ने एसी कोच के गहरे कांच से बाहर देखा गाडी रवाना हो चुकी थी। तभी एक एक कर बाकी की सभी लडकियां भी आ गई और सामान को सीट के नीचे जमाने लगी।
आकाश देहरादून से दिल्ली जा रहा था। उसे वहां साहित्य अकादमी की तरफ से पुरस्कार दिया जाने वाला था। कुछ देर बाद वो लड़की आकाश के सामने वाले सीट पर आकर बैठ गई। आकाश ने ध्यान से उस लड़की का चेहरा अब ही देखा था। आकाश को उसका चेहरा बहुत जाना पहचाना सा लगा। कहाँ देखा आकाश को कुछ याद नहीं आया। वो लड़की बोली " अंकल आप कहाँ जा रहे हैं?"
आकाश - " मैं दिल्ली जा रहा हूँ।"
लड़की ने कहा " हम सभी भी दिल्ली ही जा रहे हैं। हम वहीँ पढ़ती हैं इंदिरा कोलेज में। हमारी देहरादून, मसूरी पिकनिक आई थी। अच्छा आप भी दिल्ली ही रहते हो?"
आकाश - " नहीं। मैं मसूरी में रहता हूँ बरसों से। साहित्यकार हूँ। साहित्य अकादमी ने मुझे इस वर्ष के पुरस्कार के लिए चुन है। वो पुरस्कार लेने ही जा रहा हूँ। वैसे मैं मसूरी कभी नहीं छोड़ता। आज पूरे बीस सालों बाद मसूरी से बाहर निकला हूँ।"
वो लड़की बोली - " साहित्य अकादमी का पुरस्कार! फिर तो आप बहुत बड़े लेखक हुए। आपका नाम ?"
आकाश - " आकाश शर्मा . मेरे उपन्यास  तनहा आकाश को इस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए चुना गया है। तुम्हारे बारे में भी कुछ बताओ।"
लड़की बोली " मेरा नाम शीतल चौधरी है। मैं दिल्ली में होस्टल में रहकर एम् एस सी कर रही हूँ। "
आकाश " तुम्हारे परिवार वाले?"
शीतल - " पिताजी तो अब नहीं रहे। माँ है; जो ऋषिकेश में रहती है और बच्चों का एक स्कूल चलाती है। मैं अकेली संतान हूँ "
आकाश फिर से शीतल के चेहरे को देखकर सोचने लगा की आखिर इसका चेहरा इतना जाना पहचान क्यूँ लग रहा है जबकि वो इस लड़की को शायद पहली दफे ही देख रहा होगा आज। उधर शीतल आकाश की बातों को मन में दोहराने लगी कि आज मैं मसूरी से बीस सालों बाद बाहर निकला हूँ। शीतल ने हिम्मत जुटाई  और आकाश से पूछ ही लिया " अंकल जी, अपने बारे में भी तो कुछ बताएं आप।"
आकाश ने आज तक कभी किसी बहरी व्यक्ति से इतनी घुलमिलकर और खुलकर बातें नहीं की थी , मगर उसने शीतल को बताना शुरू कर दिया " शीतल; मैं मसूरी में पिछले बीस सालों से अकेला ही रह रहा हूँ। मेरे परिवार में मेरे अलावा मेरा नौकर है। माता-पिता अब नहीं रहे। मैंने शादी नहीं की। मेरे भाई बहन कहाँ है मैं नहीं जानता . मगर इतना पता है मेरे एक छोटा भाई है और सबसे छोटी एक बहन। मसूरी में मेरा घर , मेरा कमरा और लिखने की कलम और कागज़ यही मेरी दुनिया है। मैं उसी में सिमटा  हुआ रहता हूँ।" शीतल को आकाश के बारे में बहुत उत्सुकता पैदा होने लगी और अधिक जानने की मगर तभी उसके साथ वाली लडकियां आ गई और उसे ना चाहते हुए भी उनके साथ जाना पड़ा।
 
रात हो चली थी। आकाश सोने की तैय्यारी करने लगा। तभी शीतल आती हुई दिखी उसे। आकाश ने अपनी सीट पर जगह बनाई और शीतल उसके सामने बैठ गई। शीतल बोली " अंकल जी, मैं मसूरी आकर आपसे मिलना चाहूंगी। दशहरे की छुट्टियों में मैं ऋषिकेश आउंगी माँ से मिलने; तब मसूरी आउंगी। मुझे आपसे मिलना है; मुझे बहुत उत्सुकता हो रही है कि आपसे मिलूं; बहुत सी बातें करूँ और आपके बारे में विस्तार से जानूं, आपसे कुछ सीखूं। क्या आप मुझे वक़्त देंगे ?"
आकाश को लगा जैसे उसका आज पहली बार खुद पर से काबू नहीं रहा है; उसके मुंह से निकल गया " जरुर आ जाना तुम। मैं इंतज़ार करूँगा।"
इसके बाद काफी देर तक शीतल आकाश से उसके लिखे उपन्यासों पर बात कनरे लगी और आकाश भी उसे अपने लिखे उपन्यासों के बारे में बतलाने लगा। शीतल ने आकाश से उसका पता माँगा आकाश ने एक पर्ची पर अपना पता लिख कर दे दिया। शीतल ने पढ़ा - आकाश शर्मा, " अनामिका" डेनियल हिल्स मसूरी। सुबह दिल्ली आने पर शीतल नमे आकाश से नमस्ते कहा और बोली " अंकलजी, मैं दशहरे की छुट्टियों में मसूरी आ रही हूँ।" आकाश मुस्कुराकर रह गया।
शीतल होस्टल तो आ गई मगर उसे बार बार आकाश की बातें और उसका अकेलापन रह रहकर याद आने लगा। शीतल को आकाश में की जिंदगी में कोई रहस्य नज़र आने लगा था। वो ये सोचने लगी कि कब दशहरा आये और वो माँ से मिलकर बाद में मसूरी जाए और पता लगाए कि आखिर आकाश की जिंदगी कैसी पहेली है!

शीतल को साहित्य अकादमी के पुरस्कार का दिन याद था।  रात को दूरदर्शन पर समाचार देखा उसने। आकाश को पुरस्कार लेते दिखाया गया।  
बाद में एक इंटरव्यू भी था छोटा सा। उसमे आकाश की कही एक बात ने शीतल के इस शक को और पुख्ता कर दिया कि कोई बहुत बड़ा रहस्य जरुर है उसकी जिंदगी में। उनसे यह पूछे जाने पर कि उपन्यास का नाम तनहा आकाश क्यूँ रखा तो आकाश का बहुत ही छोटा सा मगर रहस्यमय ज़वाब था " आकाश तो हमेशा से ही तनहा ही है। आप ऊपर नज़रें उठाकर देख लीजिये। हर तरफ सिवाय तनहाईयों के कुछ भी नज़र नहीं आएगा।"
 
दशहरे की छुट्टियां हो गई। शीतल ऋषिकेश आई। अपनी माँ के साथ कुछ दिन रही और बाद में यह बहन कर कि उसकी एक सहेली मसूरी में बीमार है और वो दो दिन वहाँ रुककर उससे मिलकर लौट आएगी। शीतल की माँ शीतल से  मौहब्बत करती थी। उसकी छोटी से छोटी बात को ध्यान से सुनती और  उसकी हर बात का ख़याल रखती क्यूंकि शीतल ही उसकी दुनिया थी। उसने शीतल को मसूरी जाने के लिए हाँ  कह दी।
 
शीतल मसूरी पहुँच गई। उसे पूछने पर पता चला की डेनियल हिल्स मसूरी के घने जंगल शुरू होते ही सबसे पहली पहाड़ी का नाम है। वहाँ गिनती के कोटेजेस है मगर जगह बहुत ही शांत और खुबसूरत है। शीतल पहाड़ी  चढ़ने लगी। करीब आधे घंटे चढ़ने के बाद के बाद उसके सामने कोटेज आ गई जिस पर लिखा था "अनामिका" 3 या 4 कमरों वाली ये कोटेज  ओर से रंग बिरंगे फूलों के पौधों से गिरी हुई थी। शीतल ने लकड़ी से बनी कम्पाउंड वाल के बीच छोटे से लकड़ी की पट्टियों से बने दरवाजे को खोल दिया और भीतर आ गई। सन्नाटा था। उसे कोई नज़र नहीं आया।    उसने आवाज लगाईं " आकाश अंकल। आकाश अंकल। आप कहाँ हो?" मगर शीतल को कोई दिखाई नहीं दिया। उसने कोटेज का पूरा चक्कर लगाया और देखा कि सच में ही घर में कोई नहीं है। वो बाहर बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठ गई। अपना बेग अपनी गोद में रखे आसपास फूलों को निहारने लगी। थोड़ी देर बाद उसे एक आदमी आता हुआ दिखा। वो करीब आया तो पता चला दूधवाला है। उसने खुद ही बरामदे में कोने में रखे एक बर्तन में दूध डाला और शीतल से पूछा " आप सरजी से मिलने आई है? सरजी के आने का समय हो गया है। अभी आते ही होंगे  कभी कभी वो थोडा अधिक दूर निकल जाते हैं घूमते घूमते।"
पांच मिनट ही बीते थे कि आकाश आ गया। शीतल देखती रह गई। जिस दिन आकाश गाडी में मिला था तब उसने कुर्ता -पायजामा और जेकेट पहन रखी थी जबकि अभी वो एक हलके नीले रंग के ट्रेक सूट में था। ऐसा लगा जैसे आकाश का अचानक ही दस पंद्रह साल छोटा हो गया हो। आकाश शीतल को देखकर बोल " तो तुम आ ही गई। नहीं रह सकी मेरे बारे में बहुत कुछ जानने से। बहुत जिद्दी हो तुम। भला यूँ कोई अपने बारे में किसी अनजाने को सब कुछ बताता है क्या ?" शीतल चौंक गई आकाश की इस बात से। उसका चेहरा सपाट हो गया एक पल में ही। वो लगभग रुआंसी हो गई। आकाश आकर सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया और मुस्कुराते हुए बोला " मैं सब को मन करता आया हूँ मगर तुम्हें सब कुछ कहना है यह सोचकर ही तो मैंने तुम्हें अपना पता दिया था उस दिन। इतना घबराती क्यूँ हो तुम?"" शीतल की जान में जान आई। दोनों एक साथ हंसने लगे।
आकाश ने दूध का पतीला लिया, घर के दरवाजे का ताला खोला। शीतल ने देखा पूरा घर बहुत ही साफ़ सुथरा और सलीके से सजाया हुआ था। कुल तीन कमरे थे और सभी कमरों में किताबें ही किताबें थी। कई पेंटिंग्स भी लगी थी। शीतल रसोई में पहुंची तक तक आकाश चाय बनाकर छान कर दो गिलास भर चूका था। शीतल ने पूछा " सब काम आप खुद ही करते हो?" आकाश ने जवाब दिया " सिर्फ सुबह की चाय और आधी रात की कोंफी मैं बनाता हूँ बाकी का सारा काम देंज़िंग मेरा नौकर करता है। वो अभी आता ही होगा। दोपहर का खाना बनाता है। कपडे धोना साफ़ सफाई करना और बाद में शाम को चाय पिलाकर और रात का खाना बनाकर लौट जाता है। "
दोनों बैठक में आ गए और चाय पीने लगे। आकाश बोल " अपने पिताजी और माँ के बारे में तो कुछ बताओ?" शीतल ने कहा " मैं आपसे आपके बारे में जानने आई हूँ। अगर आपको मेरे बारे में जानना है तो ऋषिकेश आना पड़ेगा।" शीतल ने जिस अंदाज से यह बात कही आकाश खिलखिलाकर हंसने लगा। शीतल उसे आश्चर्य से देखने लगी। देंजिंग भी आ चुका था। उसने आकाश को इस तरह से हँसते देखा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसने आज आकाश को पहली बार इतना खुलकर हँसते हुए देखा था। आकाश ने अपनी हंसी रोकी और बोला " ठीक है; मैं ऋषिकेश आउंगा तब तुम अपने सब के बारे में बतला देना। अब तो नाराज़ नहीं हो ना!" शीतल मुस्कुरा दी।

शीतल बाहर बगीचे में घुमने लगी क्यूंकि आकाश नहाने चला गया था और देंजिंग घर की साफ़ सफाई कर रहा था। आकाश नहाने के बाद शीतल को लेकर घर से कुछ ही दूरी  पर बने एक हनुमान मंदिर में ले गया।  वहाँ आकाश ने पूजा की। बाद में दोनों बाज़ार निकल गए। आकाश ने कुछ खाने पीने की चीजें खरीदी। शीतल ने भी एक मफलर खरीदा और एक शाल। इसके बाद दोनों घर लौट आये। घर आये तब तक देंजिंग ने खाना तैयार कर दिया था। आकाश और शीतल ने दोपहर का खाना खाया।
अब दोनों बाहर बगीचे में एक पेड़ की छाँव में बैठ गए। शीतल को इंतज़ार था आकाश के बोलने का। आकाश ने शीतल की तरफ देखा और कहना शुरू किया " मैं अपने माता -पिता और दो छोटे भाई-बहन के साथ काठगोदाम रहता था। मेरे पिता सरकारी नौकर थे। सरकारी कोलोनी में। साधारण परिवार था हमारा। बस घर खर्च चल जाता था। बात उन दिनों की है जब मैं बी ए फाइनल में था। हमारी कोलोनी में ही एक परिवार रहने आया। उस घर में एक लड़की थी। बहुत ही शनत चेहरे और स्वाभाव की। पहली बार देखते ही मुझे वो अच्छी लगने लगी थी। जब भी मैं उसके घर के सामने से गुज़रता तो उसकी एक झलक को बेताब रहता था। जब भी कभी वो दिख जाती मैं बहुत सुकून महसूस करता था। इसी तरह कई महीने निकल गए। वो अक्सर खामोश निगाहों से ही मुझे देखा करती थी। उसके चेहरे पर कभी कोई भाव नहीं आता था। मैं उसके चेहरे को देखकर थोडा घबरा उठता था और नज़रें झुकाकर उसके सामने से निकल जाता। एक बार हम दोनों का आमना सामना हुआ पहली बार। हम दोनों ही बाज़ार में थे। बिलकुल आमने सामने। उस वक्त भी उसकी आँखें खामोश थी और मुझे देखे जा रही थी। मैंने हर बार की तरह अपनी नज़रें झुकाई और घर आ गया। इसके बाद भी हम कई दफा एक दूसरे के सामने से गुज़रते मगर वो ही ख़ामोशी हम दोनों के दरम्यान रहती थी। मैं मारे डर के उसे कुछ नहीं कह पाता था कि मैं तुम्हें पसंद करने लगा हूँ दिल से। वो भी हमेशा उसी तरह से खामोश नज़रों से मुझे देखा करती।
इसी तरह से दिन महीने बीतते बीतते करीब दो साल गुज़र गए।
एक दिन जब मैं कोलेज से घर लौटा तो मुझे अचानक तेज़ बुखार आ गया। वो बुखार ऐसा चढ़ा कि मैं टाईफाइड का शिकार हो गया। पूरे दो महीने बिस्तर में पडा रहा।  
 
जिस दिन मैं जब दो महीनों के बाद कोलेज के लिए निकला तो मैंने उसे अपने घर की बालकनी में खडा पाया .मेरी नज़रें अचानक चमक उठी। तभी मैंने देखा कि उसकी खामोश आँखें आज बहुत चिंता में डूबी हुई लग रही है। मैं उसे देखते देखते उसके घर के सामने से होता हुआ सायकिल चलता कोलेज चला गया। दोपहर को कोलेज की छुट्टी के बाद मैं जब कोलेज से बाहर आया तो मैंने देखा कि मेरे कोलेज के सामने एक मोड़ पर वो खड़ी  हुई है। मैं कुछ दूरी से उसे देखने लगा। मुझे देखते ही उसका चेहरा बेचैन हो गया। आज पहली बार उसे ऐसा देखकर मुझे चिंता हो गई। आखिर हिम्मत जुटाकर मैं उसके करीब गया। मैं जैसे ही उसके करीब पहुंचा उसकी आँखें आंसू बहाने लगी। मैं घबरा गया। कांपती आवाज में मैंने पूछा " आप रो क्यों रही है? ऐसा क्या हुआ है?"
उसने अपने को रोका और सुबकती आवाज में कहा " हमारे पापा की ट्रांसफर रामपुर हो गई है और हम लोग इसी रविवार को रामपुर जा रहे हैं। मैं पिछले कई हफ़्तों से तुम्हारा इंतज़ार कर रही थी कि तुम मिलो और तुम्हें सब बता दूँ। हम तुम्हारे बिना नहीं रह सकेंगे वहां। हमने कई बार तुम्हें कहना चाहा था मगर तुम कभी समझ ही नहीं सके कि हम तुमसे  बहुत कुछ कहना चाहते हैं। हम यह कहना चाहते थे कि हम अब तुम्हारे बिना खुद को अकेला समझते हैं। हमारी सूनी आँखें हर रोज़ तुम्हे देखे बिना चैन नहीं पाती है। अब जब हम तुम से दूर जा रहे हैं तो वहाँ तुम्हें कैसे देखेंगे और कैसे रहेंगे? तुम अपने घर में हमारे बारे में बात कर के रामपुर जरुर आना। हम कभी भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकेंगे। अगर तुम नहीं आये तो हम अकेले ही जिंदगी गुज़ार देंगे मगर किसी और के साथ नहीं रह सकेंगे। बस हमारी इतनी बात तुम याद रखना।" इतना कहकर वो तेज़ क़दमों से चली गई। मैं बर्फ की तरफ जम चुका था। मेरी साँसे जैसे जहां थी वहीँ ठहर गई थी। सब कुछ घूमने लगा आँखों के सामने। मैं भारी क़दमों से घर आ गया। सारी रात लेटा लेटा  रोता रहा। वो इतना कुछ कहना चाहती थी और मैं उसकी आँखों से कुछ भी नहीं पढ़ सका। वो क्या कहना चाहती थी काश कभी मैं समझ पाता। अब तो सारी  दुनिया ख़त्म होने को है दो दिन बाद।
 
 रविवार दो दिन बाद ही था। क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा था। दो दिन निकल गए। रविवार को सुबह ही एक छोटा ट्रक उसके घर के सामने खडा था। सामान लादा जा रहा था। कुछ देर बाद ट्रक लदकर चला गया।  शाम को जब मैं उसके घर की तरफ गया तो वो सभी लोग एक तांगे में बैठ रहे थे। मैंने उसकी आँखों को देखा। पूरी तरह से लाल थी। शायद वो बहुत रोई थी। हम दोनों की नज़रें मिली। तभी तांगा  चल पडा। कुछ देर मैं अपनी सायकल तांगे के पीछे चलाता रहा मगर बाद में स्टेशन के आते ही मैं रुक गया। स्टेशन में जाते वक़्त उसने मुझे और मैंने उसे आखिरी बार देखा। मेरी आँखें भी अब बहुत बह रही थी। वो सुबकते हुए स्टेशन में दाखिल हो गई।
मैं दो दिन कोलेज नहीं गया। सारे सारे दिन रोता रहता। जब माँ ने पूछा तो मैंने सब कुछ साफ़ साफ़ बता दिया। माँ ने रात को पिताजी को सब बात बताई। पिता जी को काटो तो खून नहीं। जोर से बोलते हुए कहा " पढ़ाई की चिंता नहीं। साहबजादे इश्क फरमाना चाहते हैं। अपनी औकात देखी है कभी! पढ़ाई ख़त्म हुई नहीं है। नौकरी हो जाए तब ऐसी बातें सोचना।"
मैं टूट चुका था। पढ़ाई में दिल बिलकुल नहीं लग रहा था। एम् ए प्रीवियस में मैं फेल हो गया। पिताजी ने खूब डांट लगाईं। मुझे अपने मौसाजी के यहाँ अल्मोड़ा पढने भेज दिया। मौसा मौसी ने मेरा साथ खूब दिया। बहुत समझाया। सभी घर वालों के बिना मेरी जिंदगी बिखरने लगी। एक साथ दो दो जुदाई ने मुझे हर तरह से तोड़ कर रख दिया।  मैं कुछ संभल गया। पिताजी कभी कभार मौसाजी से मेरी खबर ले लेते। माँ के ख़त आते। मैं जवाब भी देता। अपनी गलती मानता हर ख़त में। अपने पास बुलाने को कहता। माँ का जवाब आता कि " कुछ बन जाओ फिर मैं बुला लुंगी। अभी पिताजी नहीं आने देंगे। छोटे भाई बहन पर बहुत गलत प्रभाव पड़ा  है इस बात का। आस पड़ोस और रिश्तेदारों में भी बात  फ़ैल गई है। हमारी बहुत बदनामी हुई है। सभी रिश्तेदार यही कहते हैं कि लड़का हाथ से निकल गया है। दूर ही रखो कुछ साल वरना बेटी का रिश्ता नहीं होगा। हम मजबूर हैं तुम्हें नहीं बुला सकते हैं अभी।" 
एम् ए पूरी हो गई। मेरी नौकरी मौसा ने वहीँ एक लकड़ी के कारखाने में लगवा दी। मौसा शिक्षक थे। उनका तबादला कहीं और हो गया  और मैं फिर से तनहा हो गया।  पिताजी को मेरे नौकरी की बात पता लग चुकी थी मगर उनका कोई ख़त नहीं आया। अब मां के ख़त भी आने बंद हो गए थे। मैंने सोचा इस बार मालिक जब मेरा प्रमोशन करेगा तब ढेर सारी खरीद दारी करूंगा सभी के लिए और घर जाकर सभी को चौंका दूंगा।
फिर वो दिन भी आया जब मैं सभी के लिए कपडे और मिठाई लेकर काठगोदाम अपनी कोलोनी पहुंचा। घर पर ताला लगा हुआ था। पड़ोसियों  ने खबर दी कि पिताजी की ट्रांसफर मुग़ल सराय हुए चार माह बीत चुके हैं। किसी के पास मेरे पिताजी का मुग़ल सराय का पता नहीं मिला। पास वाली दूकान के सेठ ने मुझे इतना भर बताया कि मेरी ताई और तायाजी ने सभी के कान भरे और ऐसे भरे हैं कि अब मेरे घर वाले मुझ से हर तरह का रिश्ता ख़त्म कर चुके हैं। मेरे लिए अब सभी दरवाजे बंद हो चुके हैं। मैंने यही सोचा कि  हमारे साधारण वर्ग के समाज में ऐसा आम है कि  छोटी सी घटना से किसी को भी घर परिवार के लिए अशुभ मान लिया जता है और रिश्तेदार आग में घी का काम कर देते हैं। मैं सभी को याद करता हुआ घर लौट आया। इसी तरह से वक़्त बीतता गया और दो साल निकल गए। मेरी हंसी गायब हो गई। मैं अब बहुत कम बोलता था।
मेरी सब बात जब मेरे सेठ को पता चली तो उसने मुझे कुछ दिन की छुट्टी दी और कहा कि मैं मुग़ल सराय जाकर अपने घर वालों से अपनी पहल पर मिलकर उनसे माफ़ी मांग लूँ और उन्हें मना लूँ। मुझे बात जंच गई। मैं मुग़ल सराय आया। पिताजी के विभाग के हिसाब से सरकारी ऑफिस का पता चल गया। जब मैं उनके ऑफिस पहुंचा और उनके बारे में पूछा तो जो जवाब मिला वो मुझे जीते जी मार डालने से कम नहीं था। उनके एक सहकर्मी ने मुझे कहा " आज से करीब तीन महीने पहले की बात है। तुम्हारे माता-पिता बाज़ार से घर लौट रहे थे। रात का समय था। रेलवे क्रोसिंग पर उन्हें तेज गति से आ रही गाडी का अंदाजा नहीं लग सका कि  वो किस लाइन पर आ रही है। वे दोनों उस ट्रेन के नीचे आ गए।" मैं बेहोश होकर वहीँ गिर गया। होश आने के बाद और पूछताछ से यह पता चला कि मेरे ताया-ताईजी मेरे छोटे भाई बहन को अपने साथ ले गए।
अब हर तरह से मेरी दुनिया ख़त्म हो गई थी। कुछ भी शेष नहीं था जिसे मैं गँवा सकूँ। मैंने नौकरी छोड़ने का फैसला किया। सेठ ने मुझे नहीं छोड़ा। मैं कुछ दिन और रुका। कुछ दिन बीते तो मैं अल्मोड़ा छोड़कर मसूरी आ गया। सेठ ने ही मुझे अपने ससुराल वालों के होटल में भेज दिया ये सोचकर कि होटल में काम कम रहेगा और आने जाने वाले लोगों से मेरा दिल बहल जाएगा और मैं जल्दी सामान्य हो जाऊँगा। होटल में मेरा दिल लग गया। अब मैं यूहीं लिखने लगा। जो भी दिल में आता डायरी  में लिख देता। एक बार मेरे होटल में वाराणसी के एक प्रकाशक आकर ठहरे। मैंने बातों ही बातों में अपने लिखे के शौक के बारे में बताया। उन्होंने मेरी लिखी एक लघु कथा पढ़ी।वो उसे अपने साथ ले गए। महीने भर बाद एक लिफाफा मेरे नाम आया। एक पत्रिका थी जिसमे मेरी लिखी वो लघु कथा छपी थी। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब तो मैंने उन प्रकाशक को अपनी लिखी और भी कई कहानियाँ भेजी। उनमे से भी कई छपी अलग अलग पत्रिकाओं में। साल भर में ही मेरी करीब दस कहानियाँ छाप गई। अब तो पत्रिकाओं के ऑफिसों से पत्र और फोन आने लगे कि कहानी भेजिए कोई। मेरा हौसला लगातार बढ़ता चला गया। अब नौकरी बाधक बनती जा रही थी मेरे लेखन में। आखिरकार मैंने नौकरी छोड़ दी। होटल के मालिक से बात कर के कुछ पैसे उधार लेकर मैंने इस घर को खरीद लिया।

 अब मैं सारा समय लिखने में लगाने लगा। लखनऊ, वाराणसी, आगरा, दिल्ली और मेरठ से निकलने वाली कई पत्रिकाओं में मेरे लेख, कहानियाँ और लघु उपन्यास छपने लगे। मुझे लोग जगह जगह साहित्यिक गोष्ठियों में बुलाते मगर मुझे पता नहीं कहीं बहार जाने में घबराहट महसूस होने लगी थी कि फिर कहीं जाउंगा तो और कोई बुरी खबर ना मिल जाय मुझे। मैं अपने आप में ही सिमटकर रह गया।
फिर अचानक एक दिन मेरी जिंदगी के सफ़र को डायरी में उतारने की इच्छा पैदा हुई। मैंने डायरी में अब तक से सफ़र को लिखना शुरू कर दिया। मगर कई घटनाएं अपने मन से भी जोड़ी क्यूंकि ये सफ़र ऐसा नहीं था कि लोग रूचि से पढ़ें। पूरे साल भर की मेहनत रंग लाइ और वाराणसी वाले प्रकाशक श्री मुरली मनोहर जी शास्त्री मेरे सामने यहीं बैठे थे। उन्होंने उपन्यास छपने का जिम्मा ले लिया। उपन्यास छपा और बिका ; खूब बिका। सभी शहरों से बधाई सन्देश आये। कई संस्थानों ने मुझे सम्मानित किया। लेकिन मैं एक भी सम्मान लेने मसूरी से बाहर नहीं गया। वो डर अभी तक मेरे दिल में घर किये हुआ था। जब मेरे उपन्यास का सातवाँ संस्करण छापा तो दिल्ली से खबर आई कि मेर अब तक के हिंदी साहित्य के योगदान और मेरे इस आत्मकथा रुपि उपन्यास तनहा आकाश को इस साल का साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है तो मैं तनहा ही रो उठा। आज इतना बड़ा सम्मान मिल रहा है और मेरे परिवार में ख़ुशी मनाने वाला कोई नहीं। शास्त्री जी ने मुझे प्रेम्पुर्वक्क डांटकर कहा " आकाश ये पुरस्कार लेने तुम दिल्ली जा रहे हो। हमारा आदेश है।" मैंने शास्त्रीजी के आदेश को मान लिया और दिल्ली जाकर इस सम्मान को ग्रहण किया। देहरादून से रवाना हुआ तो एक लड़की मिली; वो तुम हो और आज मेरे सामने बैठी हुई हो। शीतल मेरी जिंदगी का ये अब तक का सफ़र है।"
शीतल अब तक यह सब सुनते सुनते जैसे कहीं दूर आसमान में पहुँच कर खो गई थी। उसकी आँखें सूनी हो गई थी और वो लगातार आकाश को देखे जा रही थी और आंसू बहते जा रही थी। ऐसा सफ़र जिसमे हर मोड़ पर एक ऐसी खबर की इंसान हिल जाए, टूट जाए ; ख़त्म हो जाए। लेकिन इस इंसान ने अपने अश्कों को खुद ही पिया , हर सदमे को झेला, हिम्मत ना होते हुए भी जिंदगी से हार नहीं मानी। शीतल ने आकाश से कहा "अंकल जी; क्या इस से भी संघर्षपूर्ण सफ़र हो सकता है किसी का?"
आकाश ने एक गहरी सांस ली और बोला " शीतल, मुझे सफलता तो मिली अंत में। हज़ारों ऐसे लोग भी हैं जो इस अंजाम तक नहीं पहुँच पाते। बीच में ही ख़त्म हो जाते हैं। और अगर कुछ बच भी जाए तो अंतिम सांस तक संघर्ष करते करते कब इस दुनिया से चले जाते हैं किसी को पता ही नहीं चलता। एक शेर याद आ गया ग़ज़ल का शीतल। ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई से ; खुदा किसी को किसी से मगर जुदा ना करे।"
शीतल की रुलाई रुक नहीं पा रही थी। आकाश उठा और शीतल के लिए पानी ले आया। जब शीतल पानी पि रही थी तो आकाश बोला " मैंने तो यह सब कुछ खुद झेला है मगर तुम तो इसे सुनकर ही रोने लगी! अभी तो तुम्हारा सफ़र शुरू हुआ है। हौसला बनाए रखो। हौसला है , जीने की तमन्ना है तो सब कुछ है इस दुनिया में वरना कुछ भी नहीं।"
शाम हो चली थी। आकाश रसोई की तरफ बढ़ा चाय बनाने के लिए क्यूंकि आज उसने देंजिंग को छुट्टी दे दी थी दोपहर में बाद। आकाश नहीं चाहता था कि देंजिंग उसकी कहानी सुने। शीतल ने जब आकाश को रसोई के तरफ जाते  हुए देखा तो उसके पीछे आते हुए कहा " अंकल जी , चाय मैं बनाती हूँ। आज आप मेरे हाथ की चाय पीजिये।" शीतल चाय बनाकर ले आई। दोनों चाय पीने लगे।
देर शाम देंजिंग आकर रात का खाना बना गया। आकाश शीतल के साथ थोडा बाहर जाकर पहाड़ी पर बने घुमावदार छोटे छोटे रास्तों पर घूम आया। रात को खाने के बाद शीतल ने आकाश के लिए कोंफी बनाई। आकाश ने दिल खोलकर कोफ़ी की तारीफ करते हुए कहा " वाह, आज तक मेरे अलावा मेरे जैसी कोफ़ी कोई नहीं बना सका ; मगर आज तुमने मुझे भी मात दे दी।" शीतल बहुत खुश हो गई। कुछ देर ख़ामोशी छाई रही। बाद में शीतल बोली " अंकल जी, मुझे तो सिर्फ इतना ही बताया है मेरी माँ ने कि मेरे पापा शराबी और जुआरी थे। पैसे बहुत थे मगर इस आदतों की वजह से कोई उन्हें लड़की नहीं देता था। मेरे नाना-नानी ने मेरी माँ की उनके साथ ज़बरदस्ती शादी कर दी थी। माँ ने कहा कि इस शादी से मेरे पापा ने मेरे नाना-नानी को बहुत सारे रूपये भी दिए थे। बहुत लालची थे मेरे नाना-नानी माँ बताती है। मेरी माँ को बहुत तंग  किया करते थे। शादी के बाद मेरे पापा माँ शराब पीने के बाद बहुत मारते थे। बहुत ज़ुल्म करते थे। शादी के साल भर बाद ही मेरा जनम हो गया। मेरी माँ मैं जब दो महीने की थी तो एक दिन रात को घर छोड़कर और ढेर सारा पैसा लेकर ऋषिकेश आ गई। वहाँ एक आश्रम में वो रहने लगी। मेरी स्कूल की पढ़ाई के बाद माँ ने मुझे उसी आश्रम के एक और महिला की मदद से मुझे दिल्ली पढने भेज दिया। बाद में माँ ने आश्रम की मदद से एक छोटा घर अलग से ले लिया है उसी घर में एक छोटा स्कूल चला रही है। मैं पढने के बाद मान को दिल्ली बुला लुंगी और वहीँ कोई नौकरी कर लुंगी। माँ ने बहुत बुरे दिन देखे हैं। मैंने माँ को कई बार आसमान की तरफ तकते और आंसू बहाते  हुए देखा है। कभी कुछ नहीं बताती कि वो क्या सोचती है? क्या याद आता है ? आखिर क्या है उनके दिल में जो वो मुझसे छुपाये हुए है। मेरे सामने आते ही वो मुस्कुरा देती है और मुझे अपने गले से लगा लेती है। मैं पूछती हूँ तो एक ही जवाब देती है " हर बात बताई नहीं जाती। कई बातें दिल में दफ़न कर रखनी पड़ती है। कई बातों का सिर्फ खुद से ही सरोकार होता है। उन पर खुद का ही अधिकार होता है। तू जानकार क्या करेगी। तू अपनी जिंदगी बना, अपनी जिंदगी जी। मेरे ग़मों को मत याद रख। तेरी जिंदगी में खुशियाँ भरना मेरा काम है . मैं तुझे अपने गम क्यूँ दूँ? तुझे खुश देखती हूँ तो मैं सब गम भूल जाती हूँ। तू खुश रहाकर। मेरे आंसुओं की परवाह ना कर। अब इन आँखों को आंसुओं से बेपनाह मौहब्बत हो गई है। जब तक आंसू आँखों को भिगोते नहीं ये आँखें नींद की आगोश में नहीं जाती। जब तू लगातार खुश रहने लगेगी ना तो देखना ये आंसू भी एक दिन सूख जायेंगे।"
आकाश अपनी जगह से उठा, उसने शीतल के सर पर हाथ रखा और बोला " तुम सुबह से आई हो तभी से ग़मों के समन्दर में नहा रही हो। अब तुम सो जाओ। बहुत थक गई होगी तुम। सुबह उठकर हम घूमने चलेंगे। जाओ सो जाओ।" शीतल को आकाश ने कमरा बता दिया जहां एक पलंग लगा हुआ था। शीतल वहीँ लेट गई। शीतल की आँखों में बार बार अपनी माँ चेहरा आने लगा; कहीं दूर खोया हुआ। कुछ ही पलों में शीतल गहरी नींद में थी।
सुबह आकाश जब हर रोज़ की तरह घूमने निकलने को तैयार हुआ और शीतल के कमरे में झांका तो शीतल सोई हुई मिली। आकाश उसे देखकर मुस्कुराया। उसके करीब आकर उसने शीतल के सर पर हाथ फेरा और घुमने निकल गया। आकाश के जाने के कुछ ही देर बाद शीतल जाग गई। उसने ब्रश किया, चाय बनाकर पी और घर में सभी कमरों को घूम घूमकर देखने लगी। 

आकाश का लिखने का कमरा अब उसके सामने था। कोने में एक टेबल लगी थी। उस पर कई डायरियां पड़ी थी। एक बहुत बड़ा सेल्फ बना हुआ था जिस में आकाश कहानियाँ जिन जिन मेग्ज़िन्स में छपी थी वे सभी करीने से सजाकर रखी  हुई थी। तनहा आकाश की कई प्रतियां एक सेल्फ में अलग से रखी हुई थी। शीतल एक एक कर आकाश की लिखी हुई डायरियों को उलट पुलटकर देखने लगी। अचानक उसकी नज़र एक बहुत ही पुरानी सी लग रही डायरी पर पड़ी। उसने वो डायरी उठाई और खोलकर पढने लगी। एक दो पाने पढने के बाद उसे यह यकीं हो गया की ये आकाश की सबसे पुरानी डायरी है और इसमें आकाश ने अपने स्कूल -कोलेज के दिनों की तमाम बातें लिखी है। शीतल वहीँ कुर्सी पर बैठकर वो डायरी पढने लगी। जैसे जैसे वो डायरी के पन्ने पलटती गई उसकी आँखें पढने के साथ साथ सोचने लगी और उसकी पेशानी पर बल पड़ने लगे। बीच बीच में थोड़ा रुक जाती; कुछ याद करती , फिर पढने लग जाती। यह सिलसिला लगातार चलने लगा। एक जगह आकर शीतल रुक गई पढ़ते पढ़ते। उसने उस पन्ने को दोबारा पढ़ा। इसके बाद फिर पढ़ा। शीतल ने कुछ पन्ने फिर से पलते और फिर से पढ़ना शुरू कर दिया। उसने उस एक पन्ने को कई बार पढने के बाद अब आगे पढने लगी। शीतल की आँखों में चमक भी आई और आंसू भी। शीतल उस डायरी को पूरा पढने के बाद अपनी आँखों को पौंछते हुए नहाने चली गई। शीतल जब नहाकर तैयार होकर अपने कमरे से बाहर निकली तब तक आकाश आ चुका था। वो बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था। दो ग्लास चाय के
टेबल पर रखे हुए थे। शीतल उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई। आकाश ने अखबार से अपनी नज़रें हटाई और शीतल की तरफ देखा। उसे शीतल का चेहरा कुछ कुछ गुस्से में दिखा। आकाश सोचने लगा कि शीतल के चेहरे में ऐसा क्या है जो बार बार कुछ याद दिला देता है और सोचने पर मजबूर कर देता है। दोनों चाय पीने लगे।
अचानक शीतल बोली " अंकल जी, आप काठगोदाम की सरकारी कोलोनी में रहने वाले किसी श्री देव प्रकाश जी को जानते हैं?"
शीतल का यह सवाल आकाश को भीतर तक हिला गया। उसके हाथों से अखबार लगभग फिसल गया था। वो संभला। शीतल की तरफ देखा। शीतल का चेहरा कठोर था मगर गुस्सा नहीं था। आकाश ने धीरे से कहा " शायद हाँ। मगर ..."
शीतल ने बीच में टोकते हुए कहा " शायद! क्या आप पक्की तरह से शायद शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं अंकल जी या कुछ मुझ से छुपा रहे हो?"
आकाश अब कुछ ठिठका मगर फिर संभलते हुए बोला " हूँ, वो हमारे घर से कुछ ही दूरी पर शायद रहते थे।"
शीतल - " उनके घर में किसी से आपकी जान पहचान थी क्या उन दिनों?"
आकाश इसी सवाल से बचना चाह रहा था और शीतल ने वो ही सवाल बन्दूक से गोली की तरह दाग दिया था। आकाश ने जवाब दिया रुक रुक कर बोलते हुए " एक ही कोलोनी में रहते थे तो सभी को शकल से तो जानते ही थे सभी।"
शीतल - " कौन कौन था उनके घर में? कुछ याद आता है आपको अंकलजी?"
आकाश ने कुछ कठोरता से शीतल से ही जवाब पूछ लिया " ये सब तुम क्यों पूछ रही हो? इन सब से तुम्हें क्या हासिल? तुम तो उस वक़्त थी भी नहीं सी दुनिया में!"
शीतल - " अंकल जी; पहले आप जवाब दीजिये मेरे सवाल का , फिर मैं आपके सवाल का जवाब भी दूंगी विस्तार से। उस घर में और कौन कौन रहता था जिसे आप अच्छी तरह से जानते थे"
आकाश में ध्यान दिया कि शीतल ने  जब "अच्छी तरह" ये दो शब्द बोले तो उसने बहुत जोर डाला था इन दोनों शब्दों पर। वो मनन ही मन सोचने लगा कि शीतल देव प्रकाश, सरकारी कोलोनी काठगोदाम यह सब कैसे जान गई। अगर जान भी गई है तो उसका इन सबसे क्या नाता है? और अगर कोई नाता भी है तो वो उससे क्यों पूछ रही है की वो किस किस को अच्छी तरह से जानता है उस घर में? आकाश ने अंदाज लगा लिया कि शीतल ने जरुर उसकी वो पर्सनल डायरी पढ़ ली है जो वो नियमित रूप से कोलेज के वक़्त लिखता था। उसने यह सोच लिया कि  आखिर सच जवाब देने से शीतल क्या हासिल कर लेगी ; क्यूंकि शीतल तो उस वक़्त जन्मी भी नहीं थी।  आकाश ने बात संभालते हुए जवाब दिया " देव प्रकाश जी का परिवार रहता था। उनकी पत्नी थी और शायद एक बेटी भी थी।"
शीतल ने आँखें तरेरी और थोड़ा मुस्कुराते हुए बोली " शायद एक बेटी थी  या एक बेटी थी जिसे आप अच्छी तरह से जानते थे।"
आकाश ने फिर ध्यान दिया कि इस बार भी शीतल ने "अच्छी तरह" पर जोर डाला है। आकाश ने अब यह मान लिया मन ही मन कि शीतल उस डायरी को पढ़कर उसी से उसके अतीत के कुछ अनछुए पहलुओं को जानना चाहती है जो उसने उस से नहीं बताये हैं।
आकाश बोला " तुम भी ना गज़ब की जिद्दी लड़की हो। हाँ मैं उनकी एक बेटी थी जिसे मैं अच्छी तरह से जानता था।  तुमने शायद मेरी पर्सनल डायरी को पढ़ लिया है शीतल। किसी की पर्सनल डायरी पढ़ना गलत बात होती है। मैंने तुम्हें सब कुछ बता दिया अपने बारे में तो तुम खोद खोदकर और बातें पूछ रही हो? आखिर क्या हासिल कर लोगी तुम इन सब से? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम यह सब जानकर खुद कोई कहानी लिख दो। आखिर क्यूँ तुम उस वक़्त की बातें पूछना छह रही हो?"
शीतल की आँखें छलछला उठी; वो बोली "  अंकल जी, आप उस लड़की को बहुत अच्छी तरह से जानते थे; उस लड़की को बेहद बेहद प्यार करते थे। वो भी आपसे बे-इन्तहा मौहब्बत करती थी। मगर आप दोनों कभी एक दूजे को वक़्त रहते बता नहीं सके और जुदा हो गए। "
आकाश ने कहा " हाँ ये सच है। जब तुमने सब पढ़ लिया तो मेरे मुंह से क्यूँ सुनना चाहती हो शीतल? आखिर क्या मिल जाएगा तुम्हें?"
शीतल - " क्या नहीं अंकल जी , शायद बहुत कुछ मिल जाएगा। आपने उस लड़की का नाम जानबूझकर डायरी में अनामिका लिखा और असली नाम छुपाया है। आप उस लड़की को इतना चाहते थे, चाहते हो कि आपने अपने इस घर का नाम भी अनामिका रखा है। आपने असली नाम क्यूँ नहीं लिखा डायरी में अंकलजी?"
अब आकाश के घबराकर चौंकने की बारी थी। शीतल को कैसे पता कि अनामिका असली नाम नहीं है। ऐसा तो उसने कहीं नहीं लिखा कि  अनामिका असली नाम नहीं है। शीतल यह सब कैसे जानती है?
आकाश ने लगभग हकलाते हुए शीतल से कहा " जब हम मिल नहीं सके तो उसका नाम लिखकर मैं उसे हर जगह जाहिर नहीं करना कहता था। आखिर ये मेरा पर्सनल मामला है। सभी को क्यूँकर बताना। मगर तुम यह सब कैसे जानती हो? तुम्हें क्या पता कि अनामिका असली नाम नहीं है? तुम असली अनामिका को जानती हो क्या?"
शीतल ने आकाश की तरफ एक अलग नज़र से देखा, अब शीतल की आँखों में गुस्सा या सवाल नहीं था, उसकी आँखों में एक याचना थी; एक अजीब तरह का सुकून था जो गंगा जमुना की तरह आंसुओं के साथ बह बहकर बाहर आ रहा था; शीतल की जुबां लड़खड़ाई पहली बार ; उसने रुंधे गले से कहा " अंकल जी अनामिका का असली नाम सरिता है ना? "
आकाश ने आज बरसों बाद सरिता नाम एक आवाज के माध्यम से सुना ; वर्ना सरिता नाम उसकी यादों में हमेशा हमेशा के लिए दफन हो चुका था। वो शीतल को आश्चर्य से देखने लगा और सोचने लगा कि शीतल का सरिता से क्या सम्बन्ध है? शीतल की जुबां पर सरिता नाम कैसे आ गया? आकाश ने अपनी सारी ताकत लगाईं और अपने सर को हाँ  की मुद्रा में हिलाते हुए कहा " हाँ, सरिता ही अनामिका है। मगर तुम ये नाम कैसे जानती हो? तुम्हें यह सब कैसे पता ? तुम्हारा देव प्रकाश जी और उनके परिवार से क्या नाता है? सरिता के बारे में तुम इतना सब कुछ मेरी डायरी से जान सकी मगर ये नाम तुम्हें कैसे पता चला? "
शीतल अपनी कुर्सी से उठी ; आकाश के सामने आकर खड़ी हो गई। शीतल ने आकाश का हाथ पकड़ा और नीचे ज़मीन घुटनों के बल बैठते हुए बोली " अंकलजी, सरिता मेरी माँ है।"
आकाश को ऐसे लगा जैसे कोई रेत का तूफ़ान उसे चारों तरफ से घेर गया है अचानक से ही। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है और वो चिल्ला रहा है -- " मुझे बचाओ , मैं इस रेतीले तूफ़ान में फंस गया हूँ। मुझे बचाओ सरिता मुझे बचाओ। सरिता ...........सरिता ......."
अचानक उसे शीतल की आवाज सुनाई दी " अंकलजी, अब मुझे पता चला कि मेरी माँ क्यूँ हर वक्त आकाश की तरफ देखती रहती है सूनी आँखों से।  उन्हें शायद आज भी दूर आसमान में आपका चेहरा आकाश का चेहरा दिखाई देता है जिसे वो घंटों निहारती रहती है। अंकल जी, आज मुझे पता चला कि मेरी माँ  की जिंदगी आज तक अधूरी क्यूँ है। काश मैं कभी समझ पाती या जान पाती कि माँ  की पिछली जिंदगी में यह सब हुआ था तो आपको बहुत साल पहले ही खोज निकालती। मैं सब कुछ भुलाकर आपकी तलाश में निकल जाती और आपको तलाशकर ही दम लेती। "
आकाश की आँखें अचानक बहने लगी। आकाश को पता ही नहीं चला कि वो रो रहा है। जा आंसुओं की बूँदें उसकी हथेली पर गिरी तब उसे एहसास हुआ की ये बूँदें उसी की है। आकाश अपनी आँखों को बंद किये वो मंज़र देख रहा था तब सरिता स्टेशन में दाखिल हो रही थी और वो उसे अपने से हमेशा हमेशा के लिए दूर होती देख रहा था।
शीतल ने अपने रुमाल से आकाश की आँखों के आंसू पौंछे। आकाश ने जब अपनी आँखें खोली तो उसे शीतल के चेहरे में सरिता का चेहरा नज़र आया। आकाश ने मन ही मन सोचा कि क्यूँ उसे शीतल का चेहरा पहली मुलाकात से ही जाना पहचाना लग रहा था। उसने शीतल के हाथों से अपने हाथ अलग किये और उसके सर पर अपने दोनों हाथ रखते हुए बोला " शीतल; तुम जैसी बेटी हो तो कोई भी माँ  अपने आप को धन्य समझेगी। उम्र के इस पडाव पर भी तुम अभी तक अपनी माँ की ही खुशियाँ तलाश रही हो। उसी के लिए तुम जिए जा रही हो। "
शीतल ने आकाश की गोद में अपना सर रख दिया और फुट फुट कर रोने लगी। आकाश लगातार शीतल के सर को अपने दोनों हाथों से सहलाए जा रहा था। वो सोचने लगा कि कुदरत भी क्या क्या रिश्ते बना देती है! कैसे कैसे बिछुडों को कहाँ कहाँ मिला देता है।
शीतल की रुलाई जब थमी तो उसने अपना चेहरा ऊपर किया और आकाश के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले लिया। उसने आकाश से कहा " आप मेरी माँ से मिलने चलोगे ना पापा!"
आकाश पापा संबोधन से हैरानी से शीतल की तरफ देखने लगा। वो शीतल का बाप कैसे हो सकता है। उसने तो सरिता को सिर्फ चाहा था; कभी उससे कोई इज़हार नहीं किया, कभी कोई बात नहीं की; सरिता की शादी किसी और के साथ हुई, शीतल उसी की बेटी है, उसका पिता कोई और है . उसका पिता भले ही आज उसके साथ्ज नहीं रहता मगर ज़िंदा तो होगा ही; दुनिया की नज़रों में तो वो ही शीतल का पिता है; फिर ये संबोधन उसके लिए क्यूँ शीतल द्वारा !
आकाश के छेरे के भावों को शीतल ने पढ़ लिया था शायद। वो बोली " पापा; जब मेरी माँ ने कभी मेरे जनम के लिए जिम्मेदार इंसान को अपना मन से माना ही नहीं तो फिर उसके साथ हमारा क्या रिश्ता? सिर्फ जिस्मानी रूप से सात फेरे लेने से और मन और आत्मा से हर पल जुदा रहने वालों को पति-पत्नी कैसे कहा जा सकता है? विवाह के सात फेरे ही काफी नहीं होते इस रिश्ते के लिए। मन और आत्मा का मिलन उससे कहीं ज्यादा जरुरी होता है पापा।  समाज और दुनिया की नजरों में रिश्ता जो दिखता है वो रिश्ता असली रिश्ता नहीं होता, जो रिश्ता विचारों को ; मन और आत्मा को मिलाये वो रिश्ता कहलाता है। मन और आत्मा से तो आप दोनों ने प्रेम किया था; वो बात अलग है कि जिस बंधन में आप दोनों को बंधना था उसमे आप बांध नहीं पाए; उस रिश्ते में आप जुड़ नहीं पाए। तो क्या हुआ; आज तो मैं आप दोनों को उस रिश्ते में जोड़ सकती हूँ। उस बंधन में बाँध सकती हूँ। मेरा यह दावा भी है कि  आप दोनों मेरी इस बात को टाल  भी नहीं सकते। कोई माँ -बाप आखिर अपनी औलाद की सही बात को नकार सकते हैं क्या? "
आकाश शीतल की बातों को सुनकर सोचने लगा कि इस लड़की ने आज उसे रिश्तों और बंधनों की एक नई  परिभाषा समझाई है; वो परिभाषा जो किसी भी तरह से गलत नहीं है मगर दुनिया की नज़रों में तो गलत ही है। मानवीय पहलुओं को छूनेवाली अनगिनत कहानियाँ और उपन्यास लिखने वाले साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कार लिए इस साहित्यकार के पास आज शीतल की इन बातों का कोई ठोस कारण नहीं था जिस से वो शीतल की बातों को नकार सके।
शीतल ने आकाश से कहा " पापा, हम ग्यारह बजे की बस से ऋषिकेश चल रहे हैं। मैं नाश्ता बनाकर ला रही हूँ तब तक आप कपडे पहनकर तैयार हो जाईयेगा।" इतना कहकर शीतल रसोई में चली गई। आकाश अपनी जगह ही बैठा रह गया।
 
शीतल जब नाश्ता लेकर आई तो उसने देखा की आकाश उसी तरह बैठा हुआ है। शीतल ने नाश्ता टेबल पर रखा और आकाश में कमरे में जाकर एक पेंट और कमीज लेकर आ गई। उसने बनावटी गुस्से से कहा " तो आप मेरी बात मानोगे नहीं!"
आकाश के चेहरे से यह साफ़ था कि वो इतनी जल्दी शायद यह फैसला नहीं कर पा रहा था कि आखिर अब उसके लिए अगला कदम क्या होना चाहिए। शीतल सब समझ गई और बोली " पापा; जब आपने सरिता को इतने दिल से चाहा है और आज भगवान् ने आप दोनों को मिलने के लिए एक आखिरी मौका दिया है तो क्या आप अब भी भगवान् के इस ईशारे को नहीं समझ रहे हो! अगर आप नहीं मिलना चाहते तो सरिता से , नहीं अपनाना चाहते मुझे तो फिर यह अकेलेपन का नाटक क्यूँ? चेहरे पर बरसों से यह उदासी की नकली और दिखावे की चादर क्यूँ ओढ़ रखी है आपने? "
आकाश ने शीतल के इन सवालों से खुद को उलझा पाया; वो बोल " शीतल, समाज भी तो कोई चीज है जो इन सभी को देखती है। हम इस तरह से समाज को अनदेखा अकैसे कर सकते हैं?"
शीतल ने तमतमाए चेहरे से कहा " पापा, वो समाज उस वक़्त कहाँ था जब मेरी माँ की पैसों के लालच में एक शराबी और जुआरी के साथ शादी कर दी गई? उस वक़्त कहाँ था ये समाज जब वो शराबी मेरी माँ को दिन रात पीटता था, हर तरह के ज़ुल्म करता था। आज तक वो समाज कहाँ है जब वो शराबी और जुआरी जो आपके इस समाज की नजरों में उसका पति है; अपनी पत्नी और बेटी की कोई सुध लेने हमारी तलाश में नहीं निकला है? इन सब सवालों का आपका समाज जवाब दे सकता है ? क्या आप भी इन सवालों के जवाब दे सकते हो ?"
आकाश के पास कोई जवाब नहीं था शीतल के सवालों का। शीतल ने अपना बेग उठाया और आकाश के करीब आ गई। आकाश पहली बार शीतल से घबराया हुआ लगा। वो सोचने लगा की अब शीतल का अगला सवाल या कदम क्या होगा?
शीतल बोली " पापा, मैं बाहर आपका इंतज़ार कर रही हूँ। आप कपडे बदलकर आ जाइये। बस के छूटने में सिर्फ एक घंटा बाकी है अब।" 
आकाश शीतल को आत्मविश्वास से भरे क़दमों से बाहर की तरफ जाता देखने लगा। वो उठा , शीतल द्वारा दिए गए पेंट- शर्ट लिए और कपडे बदलने अन्दर चला गया। आकाश कपडे बदलकर जब बाहर गेट पर आया तो उसने देखा शीतल एक विजयी मुस्कान के साथ खड़ी  उसका इंतज़ार कर रही थी। शीतल ने आकाश को देखते ही कहा " मुझे पता था मेरे पापा मेरी बात कभी नहीं टाल सकेंगे।" आकाश मुस्कुरा दिया। शीतल आकाश का हाथ थामकर बस स्टॉप की तरफ आगे बढ़ गई।


जब बस ऋषिकेश पहुंची तो बस स्टॉप से केवल दस मिनट पैदल चलने के बाद आकाश ने देखा कि  शीतल एक घर की तरफ इशारा कर रही है। एक पुराना घर था; जिसके दो हिस्से थे। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। कई बड़े पेड़ थे उसी घर के चारों तरफ भी। शीतल ने घर का दरवाजा खोला और भीतर आ गई। आकाश भी अन्दर दाखिल हो गया। शीतल के घर के दुसरे हिस्से की तरफ इशारा करते हुए कहा " वहीँ स्कूल चलता है मम्मी का।" शीतल आगे बढ़ गई। आकाश जैसे ही घर के इस हिस्से में दाखिल हुआ उसे ऐसा लगा जैसे उसके कदम अचानक बहुत भारी हो गए हैं। हवाएं अचानक थम गई है। एक अजीब सा खालीपन मगर फिर भी अपनेपन से भरा हुआ एक एहसास उसके भीतर समाना शुरु हो गया है। वो दोनों एक बरामदे में पहुंचे। शीतल ने आकाश को एक पेड़ के पीछे खडा कर दिया और वो खुद बरामदे में चली गई। आकाश ने देखा कि एक महिला की पीठ उसकी तरफ थी जो बच्चों को पढ़ा रही थी। कुल दस-पंद्रह बच्चे बैठे हुए थे सामने। कुछ और बच्चे दूर कोने में बैठे कुछ लिख रहे थे। शीतल एकदम से उस महिला के सामने जाकर कड़ी हो गई। वो महिला , जो कि  सरिता थी, शीतल को देखकर चौंक गई और बोली " तुम तो कल आनेवाली थी ना! फिर आज ही कैसे आ गई? तुम्हारी सहेली की तबियत तो अब ठीक है ना? कैसी है अब वो?" आकाश समझ गया कि शीतल झूठ बोलकर ही मसूरी आई थी। शीतल बोली " वो एकदम ठीक है अब।" फिर वो बच्चों की तरफ मुड़ी और जोर से बोली " आज आप सब की आधे दिन की छुट्टी है। सब अपने अपने घर चले जाओ। चलो छुट्टी हो गई।" बच्चे आवाज करते हुए अपने अपने बेग उठाकर भागने लगे। सरिता ने आश्चर्य से शीतल की तरफ देखा और बोली " ये क्या पागलपन है ? बिना मतलब क्यूँ छुट्टी कर दी।"
शीतल ने सरिता का हाथ पकड़ा और बोली " मम्मी; आज मैं तुम्हें किसी से  मिलवाना चाहती हूँ। अपने साथ ही लाइ हूँ उन्हें। तुम शायद जिंदगी भर नहीं ढूंढ सकती थी जिन्हें मैं ढूंढ लाइ हूँ।" सरिता को कुछ समझ नहीं आया। शीतल ने सरिता के साथ उस पेड़ की तरफ रुख किया जिसके पीछे आकाश खडा था। आकाश ने पेड़ के पीछे से सरिता का चेहरा आज बीस-बाईस सालों के बाद देखा। उसे सरिता वैसी ही दिखाई दी जैसी वो उन दिनों दिखती थी बस वक़्त, हालात और इंतज़ार ने चेहरे को एकदम फीका और रंगहीन कर दिया था। आकाश के दिल की धड़कन तेज़ हो गई। सरिता ने शीतल से पूछा " किसे साथ लेकर आई है तू? मैं किसे ढूंढ रही थी जिनसे तू आज मिलवाना चाहती है? ये क्या पहेलियाँ है शीतल?"
शीतल ने पेड़ के एकदम पास पहुंचकर आवाज लगाईं  " पापा, अब आप सामने आ सकते हो।"
सरिता का सर चक्कर खा अगया। एक साथ उसके जहाँ में सवालों की बरसात  हो गई - क्या सरिता अपने बाप को दोबारा घर ले आई है? मगर ऐसा तो सम्भव ही नहीं है क्यूंकि वो तो उस से भी ज्यादा अपने बाप स एनाफ्रत करती है। फिर ये कौन है जिसे वो पापा पुकार रही है? क्या सचमुच वो उसके पति को फिर से ले आई है क्या?
सरिता जब तक और कुछ सोचती आकाश पेड़ के पीछे से निकलकर उसके सामने खडा हो गया था। शीतल आगे बढ़ी और आकाश का हाथ थामते हुए बोली " मम्मी, आज मैं अपने असली पापा को ढूंढ लाइ हूँ और तुम्हारे असली पति को भी। क्या तुम ढूंढ पाती इन्हें अपनी जिंदगी में कभी!"
सरिता और आकाश दोनों एक दूसरे को पलक झपकाए बिना देखने लगे। दोनों को ही यकीन नहीं हो रहा था की वे एक दूसरे के सामने आज बरसों बाद खड़े हैं और वो हो गया है जिसकी उन्होंने इस जनम में हर उम्मीद छोड़ दी थी।
शीतल ने सरिता का हाथ पकड़ा उसके काँधे पर अपना माथा टिकाते हुए बोली " मम्मी; चलो पापा के साथ ; हमें अब हमारा घर मिल गया है। अब यहाँ नहीं रहेंगे हम। एक नई जिंदगी जो शुरू करनी है हम तीनों को ही। तुम पापा के पास रुको, मैं थोड़ी ही देर में तुम्हारा सार सामान लेकर आती हूँ।" इतना कहकर शीतल ने सरिता का हाथ आकाश के हाथ पर रख दिया और खुद घर में चली गई।
कुछ देर एक दुसरे को बहती आँखों से निहारते आकाश और सरिता अचानक मुस्कुराए और सरिता ने आकाश के सीने पर अपना सर टिका दिया। शीतल दो बेग लेकर आ गई। उसने खुद को दोनों के बीच में किया और अपने एक हाथ से आकाश का हाथ थाम लिया  और दूसरे हाथ से सरिता का हाथ थाम लिया  और आगे बढ़ते हुए बोली " पापा-मम्मी जल्दी चलो मसूरी की बस छूटने में सिर्फ आधा घंटा बाकी है।"
एक साथ सभी के कदम आगे बढ़ चुके थे। तीनों की अधूरी जिंदगी आज एक पूरी जिंदगी बन गई थी।
 

3 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. मंजुल जी
      इस कहानी का शुरू का हिस्सा एकदम सच्चा है । मेरे एक दोस्त के बड़े भाई के साथ ऐसा बीत चुका है । एक दिन यह याद आया तो मैंने कहानी लिखने की सोची । बाद की घटनाएं मैंने कहानी को एक अच्छा अंत देने के लिए खुद जोड़ी है ।

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    2. मंजुल जी
      इस कहानी का शुरू का हिस्सा एकदम सच्चा है । मेरे एक दोस्त के बड़े भाई के साथ ऐसा बीत चुका है । एक दिन यह याद आया तो मैंने कहानी लिखने की सोची । बाद की घटनाएं मैंने कहानी को एक अच्छा अंत देने के लिए खुद जोड़ी है ।

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