रविवार, 22 दिसंबर 2013

उम्मीद 
 
पृथ्वी सिंह को लगा जैसे उसके क़दमों के नीचे से ज़मीन खिसक गई है।  उसकी आँखों के सामने अँधेरा नज़र आने लगा और वो लड़खड़ाते हुए ज़मीन पर लगभग गिर पड़ा।  उसकी पत्नि सरोज ने दौड़कर उसे सम्भाला और सहारा देकर पृथ्वी सिंह को कुर्सी पर बिठाया।  पृथ्वी सिंह की बेटी चित्रा भागकर पानी लाइ और पृथ्वी दो घूँट पीकर कुछ संभला।  
हुआ ये था कि पृथ्वी सिंह ने अपने बचपन के मित्र हरी सिंह चौधरी की इकलौती बेटी सुमन कंवर के साथ अपने बड़े बेटे अर्जुन सिंह का रिश्ता बचपन में ही पक्का कर दिया था।  अर्जुन सिंह को इस बात की जानकारी नहीं थी और जब अर्जुन सिंह अपनी पढ़ाई पूरी करने एक बाद नौकरी पर लगा तब उसे पृथ्वी सिंह और सरोज ने सारी बात बताई।  इस बीच अर्जुन सिंह जहां नौकरी कर रहा था वहीँ पर काम कर  लड़की सुधा से उसकी दोस्ती हुई और बाद में दोनों में प्रेम हो गया। दोनों ने तय कर लिया कि वे जल्दी ही अपने घरवालों को बतलाकर आपस में शादी कर लेंगे।
इस बार जब अर्जुन यही बतलाने के लिए कुछ दिनों की छुट्टी लेकर  अपने गाँव आया और जैसे ही पृथ्वी सिंह ने उसे सुमन के साथ सगाई की बात बतलाई अर्जुन ने साफ़ मना करते हुए सुधा के साथ अपने रिश्ते और प्रेम की बात कह दी।  यही सुनकर पृथ्वी सिंह लगभग बेहोशी की हालत में पहुँच गया। सरोज का रो रोकर बुरा हाल था , वो सोच रही थी कि अर्जुन सिंह ने कितनी आसानी से सगाई की बात ठुकरा दी और किसी सुधा नाम की लड़की , जिसे कि सिवाय  अर्जुन के और कोई जानता तक नहीं है शादी की बात कह दी। 
अर्जुन का छोटा भाई भानु और बहन चित्रा अपने बड़े भाई के इस जवाब से सिहर गए थे। पृथ्वी सिंह ने खुद को सम्भाला और अर्जुन को समझाने लगा और जान पहचान और शादी सगाई की बातों को पूरी परिपक्वता से तय करने की दुहाई देने लगा ; लेकिन अर्जुन ने उसकी एक नहीं सुनी। अब पृथ्वी सिंह का पारा सातवें  आसमान पर जा पहुंचा और लगभग चीखते हुए बोला " तू इसी बगत ये घर छोड़कर चला जा नालायक। तुझसे मेरी हर  उम्मीद  थी मगर तूने आज हमारी हर उम्मीद तोड़ दी. अब तेरा इस घर से कोई नाता नहीं बचा. जो औलाद अपने माँ -बाप की नहीं हो सकी वो इस खानदान की क्या होगी। निकल जा इस घर से । " सरोज , भानु और चित्रा सभी बीच बचाव करने लगे लेकिन ना तो पृथ्वी सिंह ने किसी की सुनी और ना ही अर्जुन ने कोई नरमी दिखलाई।
अर्जुन ऊपर कमरे में गया और अपना सामान लेकर वापस नीचे आ गया।  चित्रा , ( चित्रा और सुमन बचपन की सहेलियाँ  थी )  ने अपने बड़े भाई को शांत होकर सोचने की सलाह दी तो अर्जुन बोला " चित्रा, शादी कोई गुड्डे-गुड्डियों का खेल नहीं है कि किसी का रिश्ता किसी के साथ बाँध दो बिना सोचे समझे और बिना बच्चों से पूछे हुए. ये रिश्ता मैं कैसे मंज़ूर कर सकता हूँ जबकि मैंने आज तक उस लड़की को देखा तक नहीं और ना ही उसने मुझे ही देखा है. ये रिश्ता बेमेल है. मैं जा रहा हूँ. जब भी आप बुलाओगे मैं आ जाउंगा ;लेकिन ये सगाई मेरी तरफ से टूटी समझो और इस घर से रिश्ता मेरी तरफ से कभी नहीं टूटेगा। " अर्जुन अपना सामान  लेकर स्टेशन चला गया। 
 
चित्रा से ये सब देखा नहीं गया और वो दौड़ती हुई सुमन के पास गई। चित्रा ने सुमन को सारी बात विस्तार से बता दी. सुमन एक पल के लिए ऊपर से नीचे तक काँप गई लेकिन तुरंत संभलते हुए बोली " वो ऐसा नहीं कर सकते।" सुमन तेज क़दमों से रेलवे स्टेशन की तरफ चल दी क्यूंकि गाडी आने में अभी समय बाकी था । सुमन  स्टेशन पहुंची तो अर्जुन प्लेटफार्म पेड़ नीचे खड़ा दिखा। गाँव की परम्परा अनुसार सुमन घूँघट निकाले थी. सुमन अर्जुन सिंह के सामने  खड़ी हो गई।  अर्जुन चौंका तो सुमन बोली "मैं सुमन हूँ" अर्जुन ने तुरंत  अपना चेहरा दूसरी तरफ करते हुए कहा " देखिये सुमन जी , मेरा और आपका कोई ताल्लुक नहीं है।  जो रिश्ता दोनों के घर वालों ने किया है वो किसी भी हालत में मानने और निभाने लायक नहीं है।  वैसे भी बाबासा ने मुझे घर से बेदखल कर दिया है और मैं वापस दिल्ली  जा रहा हूँ " सुमन ने जवाब दिया " कोई भी पिता अपने बेटे से इस तरह के जवाब को सहन करने की स्थिति में नहीं हो सकता और बाबासा के साथ भी यही हुआ है. जिस तरह आप इस रिश्ते की बात से  चौंके , उसी तरह वे भी चौंके और हैरान हुए होंगे।  वे हमसे उम्र में बड़े हैं।  हमारे जन्मदाता है , उन्हें हक़ है हमें डांटने का ; हमें समझाने का ।  मैं बाबासा से आपकी तरफ से माफ़ी मांग लुंगी , मुझे उम्मीद है वे हमें क्षमा कर देंगे।  आप मेरे साथ घर चलिए" अर्जुन सुमन की बातें सुनकर मन ही मन  सोचने लगा कि गाँव में रही सुमन एक बहुत ही पढ़ी लिखी और बड़ी उम्र की शहरी महिला की तरह बातें कर रही है।  लेकिन अगले ही पल उसने बेरुखी से सुमन से कहा " मैंने बाबासा से साफ़ शब्दों में इस रिश्ते को तोड़ देने की बात कह  दी है, मेरा फैसला अटल है।  आप अपने घर जाएँ , इस तरह सभी के सामने एक पराये मर्द से बात कर मर्यादा ना तोड़ें " सुमन की आँखें छलछला उठी , उसने भर्राई आवाज में कहा " आप मुझे पराई समझ सकते हैं लेकिन मैं नहीं।  हम  अक्सर जोश में खुद को सही समझकर अपनों से बड़ों की बातों को हवा में उड़ा देते हैं , लेकिन अंत में पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता।  आप आज जा रहे हो , लेकन देखियेगा ये घर ही आपका घर रहेगा और ये रिश्ते ही रहेंगे।  मुझे पूरी उम्मीद है आपको लौटकर आना ही पडेगा " अर्जुन ने सपाट चेहरे के साथ कहा " उम्मीदों पर वे लोग जिया करते हैं जिन्हें अपने आप पर भरोसा नहीं होता और भगवान् भरोसे उम्मीद के सहारे ज़िंदगी बिता देते हैं।  " सुमन मुड़ी और यह कहते हुए चली गई " ना मेरी उम्मीद झूठी , ना मैं किसी के भरोसे लेकिन मेरा भगवान् सच्चा और मेरा विश्वास अडिग है। यही भगवान् और यही विश्वास मेरी उम्मीद है। " अर्जुन सुमन की इस आत्मविश्वास से भरी बात से सहमा और लेकिन फिर पल इंजिन की आवाज सुनकर सामान उठाकर  आगे बढ़ गया। गाडी चल दी और सुमन गाड़ी  के पीछे उड़ती धूल में अपने किस्मत को तलाशने लगी। 
 
अर्जुन ने दिल्ली लौटने के  बाद सुधा को पूरी बात बता दी।  सुधा ने अर्जुन का हौसला बढ़ाते हुए कहा " जो भी  हुआ वो सब मेरी वजह से हुआ है।  इन सब का कारण मैं ही हुँ. लेकिन मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूंगी , चाहे कुछ भी हो जाए। " अर्जुन को सुधा की इस बात से अपनी हिम्मत बढ़ती हुई लगी.  
इस घटना के एक महीने के बाद अर्जुन और सुधा ने कोर्ट में शादी कर ली । अर्जुन इस वक़्त तक एक कमरे के एक छोटे मकान में रह रहा था लेकिन शादी के बाद तुरंत उन्होंने दो कमरों का एक नया मकान किराए पर ले लिया। दोनों वहीँ साथ साथ रहने लगे। 
दोनों का वैवाहिक जीवन आरम्भ हुआ और पांच महीने तक खुशनुमा सफ़र जैसा  रहा। सब कुछ सपनोँ  की दुनिया जैसा लग रहा था।  सुधा को अचानक एक दूसरी कंपनी में करीब दोगुनी तनख्वाह  बेंगलोर में एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी का ऑफर मिला।  सुधा ने अर्जुन को यह बात बताई और अपने बेंगलोर जाने के फैसले के बारे में बताया। अर्जुन ने सुधा को मना किया कि जब दोनों मिलकर अच्छा कमा लेते हैं  दूर जाकर ये नौकरी करने की कोई आवश्यकता नहीं है. लेकिन सुधा ने ये तर्क दिया कि जब तक बच्चे नहीं हो जाते ऐसे हर मौके का फायदा उठा लेना चाहिए। यही समय है अधिक से अधिक पैसे कमाने का.  इस बात को लेकर दोनों में तनातनी हुई लेकिन आखिर में सुधा ने अर्जुन को मना ही लिया। अर्जुन ने भारी दिल और भीगी आँखों से सुधा को बंगलौर की फलाईट में बैठाया।  सुधा की आँखें भी भर आई. अर्जुन कुछ दिन काफी परेशान रहा मगर फिर धीरे धीरे सब सामान्य होता चला गया. 
 एक दिन अर्जुन सिंह अपने  पुराने घर  के मालिक के ऑफिस गया क्यूंकि वो मकान मालिक भी अर्जुन के गृह जिल्हे का  रहनेवाला था. अर्जुन  को देखते ही वो बोला " कहाँ हो कंवर सा , एक हफ्ते से कोशिश कर रहा था मैं तुम्हारे नए पते के बारे में पता लगाने की ।  ये लो तुम्हारे घर से कोई चिट्ठी आई पड़ी है एक हफ्ता हुआ है । तुमने अपने नए पते की खबर घर दी थी  क्या?"
अर्जुन ने बात सम्भालते हुए कहा " खबर तो दी थी , हो सकता है , बाबासा भूल गए होंगे।  चलो धन्यवाद।  मैं अब चलता हूँ "
अर्जुन ने घर आकर जब चिट्ठी खोली तो पता चला वो उसके छोटे भाई भानु ने लिखी थी. उसमे लिखा था कि वो यानि भानु सबसे छुपाकर ये चिट्ठी लिख रहा है ।  चित्रा की शादी तय हो गई है और बाबासा और माँ ने अर्जुन को बुलाने के लिए मना किया है।  अर्जुन शादी की तारीख पढ़कर हैरान रह गया।  आज से केवल दो दिन बाद ही शादी की तारीख है ! वो तुरंत अपने बॉस के घर गया और सारी बात बताकर, छुट्टी लेकर अगले दिन सवेरे ही ट्रेन से अपने गाँव रवाना हो गया.  उसे जो  जल्दी   जल्दी में सूझा उसी  हिसाब से घर में सभी के लिए कपडे खरीद लिए.
अर्जुन को घर आया देख पृथ्वी गुस्से से भर गया ।  लेकिन अर्जुन के मामा ने उन्हें शांत कर दिया। अर्जुन ने सभी के पैर छुए. भानु और चित्रा अर्जुन को देख बहुत खुश हुए और गले से लग गए। शाम को शादी की एक रस्म थी।  अर्जुन ने देखा एक युवती लाल साडी में घूँघट निकाले उसकी माँ के साथ पूरी तन्मयता से काम करने में जुटी हुई है।  अर्जुन उसे पहचान गया और उसके माथे  पर पसीना आ गया क्यूंकि वो सुमन ही थी। अर्जुन चुपचाप  बैठा रहा सारी रस्म के दौरान। सुमन बीच बीच में कनखियों से अर्जुन को देखती रही लेकिन अर्जुन सर झुकाये ही बैठा रहा. रात के खाने के बाद सुमन अपने घर रवाना हुई तब अर्जुन घर के बाहर ही खड़ा था।  सुमन उसे देखकर उसके करीब आकर रुकी।  सुमन ने कहा " आपने अच्छा किया जो चिट्ठी के मिलते ही आ गए।  मैंने ही भानु से कहकर चिट्ठी लिखवाई थी ।  बाबासा और माझी सा तो अभी तक गुस्से में ही है. लेकिन गाँव में हमारे घर की इज्ज़त बनी  रहे इसीलिए मैंने ये कदम उठाया। " सुमन चली गई और अर्जुन उसे दूर तक जाते हुए देखता रहा और सोचता रहा कि सुमन खुद को अभी भी इस घर की बहू  समझ रही है और  उसी हिसाब से व्यवहार भी कर रही है।  उसे समझ में नहीं आया कि वो आखिर करे तो क्या करे और सुमन से कुछ कहे तो क्या कहे और कैसे कहे?
अगले दिन भानु ने उसे बताया कि सुमन भाभीसा  खुद ही घर आई और माँ से बोली कि ये उसका घर है और वो अपने बचपन की सहेली की शादी में अपने कर्तव्य को निभाने आई है।  अर्जुन ये सुनकर सोचने लगा कि सुमन उसके लिए एक पहेली बनती जा रही है. वो कुछ भी नहीं समझ पा रहा था सारे घटनाक्रम को।  शाम को चित्रा की बरात आ गई ।  खूब धूमधाम से शादी हो गई. सुमन तमाम रस्मों  के निभाने तक चित्रा  के साथ साये की तरह से रही ।  सुबह चित्रा की विदाई हुई।  माहौल बहुत भारी हो गया. चित्रा अर्जुन के पैर छूने के बाद  फफक कर रो पड़ी. अर्जुन भी खुद को रोक नहीं पाया , बचपन में वो चित्रा को गोदी में उठाये पूरे घर में घूमा करता था और उसके एक आंसू पर बाबासा से लड़ाई कर लेता था. ये सब दोनों को याद आने लगा.  
विदाई के बाद अर्जुन घर की छत पर आकर खड़ा हो गया और गाँव देखने लगा. सुबह का वक़्त था। बच्चे स्कूल जा रहे थे।  उसे बचपन के दिन याद आने लगे।  तभी सुमन चाय लिए आई और बोली " चाय पी लीजिये , कुछ हल्का हो जाएगा मन. बेटी की विदाई का दिन माँ -बाप की ज़िंदगी में सबसे भारी और दुःख वाला दिन होता है. उनके शरीर का एक हिस्सा जैसे अलग हो जाता है. माँ - बाप ही अपनी औलाद कि कमी को महसूस कर सकते हैं. बेटी अपने ससुराल जाती है और बेटा शादी के बाद अपनी दुनिया में. रिश्तों की दुनिया बहुत बड़ी है. इसे  समझने और निभाने में उमर बीत  जाती है लेकिन फिर भी कमी रह जाती है ।"  अर्जुन सुमन की बातों का जवाब देने में खुद को असमर्थ महसूस  कर रहा था. अर्जुन चाय पीने लगा , सुमन उस से कुछ दूर खड़ी आसमान की तरफ तक रही थी।  तभी हवा  का एक तेज झोंका आया और सुमन के  सर का पल्लू हवा के साथ उड़कर उसके काँधे पर आकर ठहर गया।  सुमन का चेहरा पहली बार अर्जुन के सामने आया  था।  एकदम साफ़ गोरा  रंग , तीखे  नाक नख्श और आत्मविश्वास से भरी हुई आँखें।  अर्जुन सुमन को देखने लगा तभी सुमन ने चेहरा फिर से घूँघट की ओट में छुपाया और छत से  नीचे चली गई.
अर्जुन अगले दिन दिल्ली लौट गया ।
इसी तरह  से करीब चार महीने  बीत गए।  इस दौरान सुधा और  अर्जुन आपस में दो बार मिले , एक दूसरे के पास जाकर एक एक बार। दोनों बार अर्जुन ने सुधा से वापस दिल्ली आने की मिन्नत की लेकिन दोनों ही बार सुधा ने एक ही कारण बताया कि दो साल खूब पैसे कमाएंगे बाद में परिवार शुरू  करेंगे और खूब ऐश करेंगे । अर्जुन परेशान रहने लगा।  जब कभी दोनों की आपस में फोन पर बात होती तो अर्जुन अपना आपा खो देता।  अर्जुन को ऐसा लगने लगा कि कोई अनजानी दीवार उन दोनों के बीच बनती जा रही है. एक दिन सुबह सुधा का फोन आया जो अर्जुन की ज़िंदगी की तमाम उम्मीदों को तिनके की तरह उड़ा गया।  सुधा ने उसे फोन पर कहा " सुनो अरु , एक लाइफटाईम ऑफर दिया है आज बॉस ने ।  डेनमार्क में हमारे हेड ऑफिस में मेरा बॉस प्रोमोट होकर जा रहा है दो साल के लिए।  उसने मुझे भी डबल प्रोमोशन और डबल इन्क्रीमेंट का ऑफर दिया। मैंने तो तुरंत हाँ कर दी है।  अरु , सिर्फ दो साल और ढ़ेर  सारा पैसा।  परिवार शुरू हम और दो साल बाद कर लेंगे।  ज़िंदगी कौनसी भागी जा रही है।  तुम भी इस खबर से खुश हो ना अरु ?"
अर्जुन का सर घूमने लगा , एक ही साँस में सुधा का ये सारी बात कह देना और बिना उस से पूछे इतना बड़ा फैसला कर लेना उसे आगबबूला कर गया।  अर्जुन सिंह लगभग चीखते हुए बोला " तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है सुधा। मेरे से पूछे बिना इतना बड़ा फैसला कर लिया ! तुम्हारी ज़िंदगी में मेरी कोई अहमियत है या  नहीं? तुम इस तरह से कैसे अकेली जा सकती हो और वो भी बिना मेरी हाँ के ? मैं कुछ नहीं रहा और तुम्हारा बॉस तुम्हारा सब कुछ हो गया ! ज़िंदगी है या कोई मज़ाक ? तुम कहीं नहीं जा रही हो और ये नौकरी छोड़कर दिल्ली आ रही हो , ये मेरा फैसला है।"  चित्रा ने बिफरते हुए अर्जुन को जवाब दिया " अरु , तुम मेरी तरक्की से जलने लगे हो।  मैंने ये फैसला हम दोनों के भविष्य को देखते हुए किया है. मेरा बॉस सिर्फ बॉस है , तुम शक की नज़र से मत देखो उसे।" अर्जुन और चित्रा में तकरार बढ़ गई फोन पर बात करते करते ही और मामला यहाँ तक पहुँच गया कि चित्रा ने तेज आवाज़ में अर्जुन से कह दिया "तुम रहोगे गाँव के गँवार ही ना , तुम क्या जानोगे भविष्य की कीमत ।  तुम खुद एक स्वार्थी इंसान हो और मुझे स्वार्थी कह रहे हो ! तुमने अपने स्वार्थ के लिए अपने माँ -बाप को छोड़ दिया , गाँव की सीधी सादी और मासूम पत्नि  तक को ठुकरा दिया जिसका कोई क़ुसूर भी नहीं था और  आज भी अपने स्वार्थ के लिए मुझे नौकरी छोड़ने के लिए कह रहे हो। तुम्हें हमसफ़र नहीं एक घरेलु पत्नि  चाहिए , मेरे भी ख्वाब है मेरी भी कोई उम्मीद है तुम से।  तुम मुझसे उम्मीद कर सकते हो कि मैं तुम्हारे कहे कहे करती रहूँ , तो क्या मैं तुमसे इतनी भी उम्मीद ना करूँ कि सिर्फ दो साल मुझे नौकरी करने दो , पैसे कमाने दो। मैं डेनमार्क जाउंगी तो जाउंगी।  तुम्हें जो सोचना है सोच लो।  मैं  सुमन नहीं हूँ जो एक तुम्हारे आने की झूठी उम्मीद में आज भी इंतज़ार कर रही है।  तुम्हारी सोच संकुचित है और कमजोर भी " अर्जुन ने गुस्से से फोन पटक दिया। 
 एक सप्ताह  बाद सुधा पहुँच  गई. दिल्ली पहुँचने  के ठीक दो दिन बाद उसकी डेनमार्क के लिए  फलाईट थी ।  अर्जुन  और सुधा  के बीच कोई नहीं  बातचीत हुई। यहाँ  तक कि  जरुरी सामान खरीदने  सुधा  अकेली गई. एक तरह से ये अलगाव  की शायद शुरुवात थी। 
अर्जुन सुधा को विदा करने  एयरपोर्ट गया। सुधा  चेक इन के लिए भीतर जाने लगी अर्जुन बोला " तुम वापस लौटोगी या  नहीं ?"
सुधा - "तुम्हें क्या लगता  है? " 
अर्जुन - " मुझे उम्मीद नहीं रही अब"
सुधा - " रिश्ते उम्मीदों के नहीं भरोसे पर टिके रहते हैं  "
अर्जुन - " मुझे अब भरोसा नहीं रहा तुम पर ।  तुमने उस दिन जो कुछ भी कहा मुझे फोन पर और जिस तरह से एकतरफा फैसला किया तुमने।  इसके बाद सब ख़त्म सा लग रहा है। तुमने सच कहा मैंने अपना स्वार्थ देखा।  तुमने भी तो अब ऐसा ही फैसला किया है।  मैं बेटा होकर भी  खून के रिश्ते को नहीं निभा सका ; तुम तो पराई हो  ;कोई और घर की से आई हो।  हर तरह से अजनबी।  मुझे तुमसे कोई उम्मीद रखना खुद को ही धोखा देने जैसा हुआ।  जब मैं बेटा होकर भी अपने माँ - बाप को छोड़कर  चला आया  तो तुम्हारा मुझे छोड़कर जाना कोई गलत नहीं है।  सही और गलत तुमने मुझे सिखला दिया।  तुम्हारा ये एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगा।  बस यही उम्मीद करूंगा कि आज के बाद ना मैं स्वार्थी रहूँ और ना ही तुम। स्वार्थ की नींव पर बनी रिश्तों की ईमारतों इसी तरह से भरभराकर गिरा करती है , किसी का कोई क़ुसूर नहीं । अलविदा "
अर्जुन इतना कहकर घर चला आया। अगले दो दिन वो ऑफिस नहीं जा सका।  बचपन से लेकर अब तक की तमाम घटनायें याद करता रहा और सारे दिन और सारी रात सोचता रहा।  तीसरे दिन जब वो घर से बाहर निकला तो वो बहुत कुछ तय कर चुका था। ऑफिस में अपने बॉस से उसने सब कुछ सच सच बता दिया और नौकरी से इस्तीफे की बात भी कह दी ।  उसका बॉस बहुत ही सुलझा हुआ इंसान था । उसने अर्जुन से कहा " मैं तुम्हारी मानसिक स्थिति समझ रहा हूँ।  तुम्हारा इस्तीफा मेरे पास रहेगा। कल से तुम चाहे तो एक पूरे महीने  भर की छुट्टी लेकर अपने घर चले जाओ और अपनी ज़िंदगी को फिर से संवारकर लौट आओ। एक  महीने के बाद अपना फैसला मुझे बता देना ।" अर्जुन हाँ में जवाब देकर घर चला आया ।  शाम को उसने तलाकनामे के कागज़ात सुधा को भिजवा दिए। उसी रात को वो अपने गाँव जानेवाली गाड़ी में बैठ चुका था । 
 
 अर्जुन ट्रेन मे सो नहीं सका। वो यही  सोचता  रहा कि घरवालों से  किस तरह से सामना करेगा और बाबासा से कैसे नज़र मिलायेगा. इसी उधेड़बुन मे उसका गांव आ गया . अर्जुन अपना सामान लेकर घर की तरफ चलने लगा. सुबह का वक़्त था और पृथ्वी सिंह मंदिर से लौटकर आंगन मे बैठा ही था कि उसे अर्जुन सिंह आता दिखाई दिया। एक पल को तो बाप का लाड़ जाग गया लेकिन अगले ही पल वो मुंह फेरकर दूसरी तरफ मुड कर बैठ  गया. अर्जुन घर मे दाखिल हुआ , अपना सामान एक तरफ रखा और पृथ्वी सिंह के पैर छुने झुका , पृथ्वी उठा और कुछ दूर जाकर बोला " अब कोई और नया फैसला करने आये हो ?" अर्जुन एकदम ठंडी आवाज़ मे बोला " बाबासा , मैं लौट आया हूँ" पृथ्वी ने एक कुटिल मुस्कान चेहरे पर लाते हुये कहा " क्यूं, उस शहरी मेमसाब ने ठुकरा दिया या तुम छोड़ आये हो ?" अर्जुन ने उसी तरफ ठंडी आवाज़ मे जवाब दिया " मैने अपने सभी गलत फैसलों को सुधारकर सब कुछ छोड़कर घर लौट आया हूँ और आपका हर आदेश मेरे लिये लोहे की लकीर होगा। मुझे सही और गलत सब समझ में आ गया है बाबासा। "
पृथ्वी सिंह ने एक ठहाका लगाते हुए कहा " वो तुम्हारे भविष्य के सपने क्या हुए  ? वो नये विचार क्या हुए  ? इतनी जल्दी ढह गई नयी विचारधारा की नींव पर खड़ी इमारत ?" अर्जुन बोला " नहीं बाबासा , नयी विचारधारा उतनी गलत नहीं निकली जितना मैं खुद गलत निकला. मेरा स्वार्थ और लालच मेरी नाकामयाबी की वजह बन गये. दोनों सोच को मिलाकर चलता तो आज यूं फिर उसी जगह ना आता जहाँ से सफर शुरू किया था. मैं गलत था . माँ-बाप अपनी औलाद का बुरा कभी नहीं चाहते , लेकिन ये जरूर है कि औलादें उनका बुरा जरूर सोच लेती है कभी कभी जैसा मैने किया. ये सच है कि बचपन मे किये पक्के कर दिए गये इस रिश्ते को ; इस तरह से सगाई और शादी के रिश्ते अक़्सर भावनाओं मे बहकर कर दिये जाते हैं , मुझे सोच समझकर देख भालकर कर हाँ या ना में फैसला करना चाहिये था. जब सब कुछ मेरे साथ ऐसा बीत रहा था कि मैं हर बाज़ी हारते जा रहा था तो सुमन जी की कही एक एक बात मुझे आईना दिखला रही थी और उस आईने मे सुमन जी नज़र आ रही थी. मैने पढ़ाई तो बहुत की बाबासा लेकिन व्यावहारिकता नहीं पढ़ सका. अपनी सोच को बड़ी और साफ नहीं कर सका. सुधा विदेश जा चुकी है हमेशा हमेशा के लिये मैं कल उसे तलाकनामा भेज चुका हूँ. मैं अपनी ज़िंदगी वहीं से आरंभ करूंगा जहाँ से मैं आपको छोड़कर गया था. सुमन जी के साथ  अन्याय और गलत व्यवहार के लिए मैं आप से और माँ से क्षमा माँगता हूँ। आप जो भी फैसला करेंगे मुझे वो मंज़ूर होगा।  चाहे आप अपनाओ या ठुकराओ। " 
सरोज और भानु भी आ चुके थे और अर्जुन की बातें सुन रहे थे . सरोज ने अपने पति को आंख से ईशारा किया , पृथ्वी की आँखें भर कर छलक  रही थी उसने अर्जुन के कंधे पर हाथ रखा और बोला " उस लड़की ने तुझ पर इतने अत्याचार कर लिये और तू हमें खबर भी नहीं कर सका ! तू हम को छोड़कर गया था पगले हमने तुझे थोड़ी छोड़ा था. रही बात सुमन की तो वो तुझे अपनाये या ठुकराए ये फैसला वो खुद ही करेगी , हम नहीं। " सरोज आगे बढ़ी अर्जुन के सिर पर अपने हाथ रखे और बोली " सबसे पहले तू मंदिर चला जा , इस वक़्त सुमन रोज़ाना मंदिर मे पूजा करने जाती है और देर तक वहीं बैठी रहती है. " अर्जुन ने पृथ्वी सिंह और सरोज के पैर छुये , भानु को गले लगाया और मंदिर की तरफ तेज कदमों से चल पड़ा . सुमन पूजा के बाद मंदिर मे ही सीढियों पर बैठी थी . ठंडी बहती हवा सुहा रही थी और इसी से उसने अपनी पलकें मूंद ली और हवा की ठंडक को महसूस करने लगी. तभी एक आहट से उसने आँखें खोली और अर्जुन को सामने खड़ा पाया जो छलकती आँखों से उसे निहारे जा रहा था। सुमन खड़ी हो गई और घूंघट निकालने लगी ; अर्जुन ने आगे बढ़कर उसका हाथ थामा और बोला " तुम्हें घूंघट निकालने की जरूरत नहीं , सिर तो मुझे झुकाना चाहिये . हर तरह से अपराधी मैं हूँ . बाबासा और माँ का तुमने एक बेटी की तरह खयाल रखा है और आगे भी रखोगी इसलिये आज से कोई घूंघट नहीं . मैं बाबासा और माँ से आशीर्वाद लेकर यहाँ आया हूँ अपने साथ घर ले जाने . मैं लौट आया हूँ सुमन . तुम्हारी एक एक बात सच निकली और तुम्हारी ही हर बात से मैने उन तमाम मुसीबतों मे फैसले लिये और लौट आया इसी उम्मीद के साथ तुम माफ कर दोगी. मेरा अपराध बहुत बड़ा है लेकिन तुम्हारा दिल शायद उससे भी कहीं बड़ा है . लेकिन मैं हर सज़ा भुगतने के लिये तैय्यार हूँ और इंतज़ार करने के लिये भी। तुम चाहे ठुकराओ या अपनाओ मुझे हर फैसला मंज़ूर होगा।  अपराधी मैं हूँ और सज़ा का हक़दार भी. सिर्फ कहूंगा कि एक आखिरी उम्मीद रखे हुए मैं तुम्हारे पास आया हूँ." अर्जुन ने अपने हाथ जोड़े और बोला " हर सज़ा मजूर है मुझे " सुमन अर्जुन के करीब आकर खड़ी हो गई और बोली " कैसी सज़ा और कैसा इंतज़ार . मुझे उम्मीद थी आप लौटोगे. आप लौट आये हो लेकिन इतने कमजोर भी ना होइये" सुमन ने अर्जुन का हाथ थामा और बोली " चलिये घर चलते हैं." सुमन की उम्मीद टूटी नहीं थी।  


 
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शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

 तलाश



स्वामी शान्तिदास अपने कमरे में आकर बैठे ही थे कि उनके ख़ास सेवक इन्दर ने आकर सुचना दी कि मशहूर फिल्म अभिनेत्री स्वर्णा कुमारी उनसे मिलने के लिए आ पहुंची है. स्वामीजी को याद आया कि आज ये मुलाकात तय हुई थी. वे पलंग पर लेटने के बजाय वहीँ एक आसन पर बैठ गए.  इन्दर जाकर स्वर्णा कुमारी जी को ले आया. स्वामीजी ऑंखें  बंद  किये बैठे थे. लम्बे बाल, दाढ़ी और चेहरे पर एक तेज स्वामी जी की पहचान बन चुका था. स्वर्णा ने स्वामीजी के चरण छुए और उनके सामने के आसन पर ही बैठ गई. स्वामीजी ने आँखें खोली. स्वामीजी ने जब स्वर्णा कुमारी का चेहरा देखा तो हैरान राह गए. स्वामीजी एक तरह से हिल गए भीतर तक. उनके माथे पर पसीना आ गया पल भर में ही. आँखें किसी तलाश में कहीं खो गई और जुबां कांपने लगी. स्वामीजी ने अपनी ऑंखें फिर बंद कर ली. स्वामीजी के मन में क्या तूफ़ान आया था इसका अंदाजा स्वर्णा कुमारी नहीं लगा  पा रही थी. जब स्वामीजी ने काफी  देर तक आँखें नहीं खोली तो स्वर्णा ने इस रहस्यमय चुप्पी तो तोड़ने को प्रयास किया.
 
स्वर्णा कुछ समझ नहीं सकी. उन्होंने कहा " मेरा प्रणाम स्वीकारें स्वामीजी." 
स्वामीजी ने खुद को संभाला और कांपती हुई आवाज में जवाब दिया " सदा खुश रहो."
स्वर्णा " स्वामीजी, मैं खुश कतई नहीं हूँ. इसी ख़ुशी की तलाश में आपके पास आई हूँ."
स्वामीजी ने संभलकर धीमी आवाज में जवाब दिया " देवी, अगर आप ही खुश नहीं है तो इस संसार में कौन खुश होगा. धन, दौलत, शोहरत और ऐशो-आराम की हर वस्तु आपके पास है. फिर खुश क्यूँ नहीं हो."
स्वर्णा " स्वामीजी, इन सभी से ख़ुशी नहीं मिलती. मन की शांति से सुख मिलता है. ख़ुशी हासिल होती है. मेरा मन शांत नहीं है."
स्वामी जी बोले " मन तो आज तक मेरा भी शांत नहीं है देवी और ना ही मैं खुश हूँ. किन्तु मन को शांत रखना और वश में रखना ही तो जिंदगी का संघर्ष है. जो हम सभी को जारी रखना होता है."
स्वर्णा " स्वामीजी, अगर आप भी यही उत्तर देंगे तो हम कहाँ जायेंगे शांति की तलाश में."
स्वामी जी " मैं स्वयं शांति की तलाश में दर दर भटक रहा हूँ. पन्दरह बरस बीत गए, मेरी तलाश अभी पूरी नहीं हुई."
स्वर्णा " स्वामीजी, कुछ तो उपाय बताएं आप. मैं बहुत ही ज्यादा परेशां हूँ. एक एक पल जीना बोझ बन चुका है. सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है."
स्वामी जी " देवी, बहुत कुछ पाने  के लिए जब हम ये थोडा कुछ खो देते हैं तो बाद में जब हमें बहुत कुछ मिल तो जाता है, मगर उस थोड़े से कुछ के ना होने से हमारी जिंदगी अधूरी रह  जाती है. हर इन्सान आज के युग में यही थोडा कुछ खोकर अपनी जिंदगी को नरक  बना चुका है. जब हम आवश्यकता से अधिक खुशियाँ और आराम तलाशना शुरू करते हैं तो अंत में यही  होता है. मन की शांति खो जाती है. कितने ही अपने बिछुड़ जाते हैं. इंसान धन-दौलत के ढेर पर हमेशा अकेलापन ही महसूस करता है. धन-दौलत ऐशो-आराम दे सकती है मगर मन की शान्ति नहीं दे सकती. जब हमारे अपने ही साथ नहीं रहेंगे तो मन की शांति मिलेगी कहाँ से?"
स्वर्णा ने हैरानी से स्वामीजी को देखा और बोली " स्वामीजी , मैं तो शुरू से अकेली ही थी स्वामीजी. कई मेरे साथ आए, कुछ देर साथ चले, फिर अलग हो गए. मगर यह नहीं पता कि आखिर किस की वजह से मैंने सब कुछ खोया है?"
स्वामी जी " आप अकेले में ध्यान लगाकर बैठें, वर्तमान भूलकर भूतकाल में जाएँ और आरंभ से अब तक धीरे धीरे याद कर सोचें. शायद आपको सब कुछ याद आयेगा तभी आपको अपनी समस्या का पता चल सकेगा."
स्वर्णा ने स्वामीजी से उनके आश्रम में दो दिन रुकने की अनुमति ले ली. इन्दर ने स्वर्णा को एक कुटिया नुमा कमरे में ठहरा दिया. उस कुटिया में ज़मीन पर एक बिस्तर लगा हुआ था। पास ही में मटके में पानी। स्वर्णा ने कुछ देर उस कुटिया को हिकारत से देखा मगर फिर कुछ सोचकर उसी बिस्तर पर बैठ गई। बिस्तर के करीब एक छोटी सी टेबल थी उस पर कुछ पुस्तकें भी थी। उसने देखा सभी पुस्तकें ध्यान, शांति और जीवन के ऊपर थी। उसने बेमन से एक एक किताब उठाई , पन्ने पलटे मगर जल्दी ही उसे सुस्ती आने लगी और वो उस बिस्तर पर लेट गई; लेटते ही उसे नींद आ गई. स्वर्णा करीब दो घंटों बाद उठी तब शाम हो चली थी. इन्दर एक सेविका के साथ चाय नाश्ता लेकर आया. इन्दर वहीँ रुक गया। स्वर्णा और इन्दर चाय पीने लगे. 
 
स्वर्णा ने इन्दर से पुछा " स्वामी जी कहाँ के रहने वाले हैं?" 
इन्दर ने जवाब दिया " मैं स्वामीजी के साथ पिछले बारह वर्षों से जुड़ा हुआ हूँ. स्वामी जी का जन्म स्थान तो मैं भी नहीं जानता मगर इतना पता है कि स्वामी जी मुंबई से ऋषिकेश आये और फिर यहीं आश्रम बना लिया. सारे देश में भ्रमण करते हैं स्वामी जी मगर अधिकांश समय इसी आश्रम में गुजारते हैं. "
स्वर्णा की उत्सुकता और बढ़ गई ये सुनकर के स्वामी जी मुंबई से आए थे. मगर इन्दर को मुंबई के जीवन की जानकारी नहीं थी स्वामी जी के.
शाम को स्वर्णा स्वामी जी के प्रवचन में शामिल हुई. स्वर्णा बार बार स्वामी जी के शब्दों को सुनकर ना जाने क्या याद करने की कोशिश करती जो असफल ही हो रही थी. उसे स्वामी जी के शब्दों में से कुछ कुछ शब्द पहले भी कहीं सुने हुए से लग रहे थे. मगर कब और कहाँ सुने कुछ याद नहीं आ रहा था. रात को भी स्वर्णा सोते हुए यही याद करने की कोशिश करती रही. अगले दिन सुबह स्वर्णा फिर से स्वामी जी से मिलने पहुंची. स्वामी जी पूजा से उठे ही थे. स्वामी जी स्वर्णा को देखकर चौंक गए क्यूंकि स्वर्णा से अभी उनकी कोई मुलाकात होनी तय नहीं हुई थी. स्वर्णा ने प्रणाम किया हाथ जोड़कर और बोली " स्वामी जी, इन्दर जी मुझे बताया कि आप मुंबई से ऋषिकेश आए थे. मुंबई में आप क्या करते थे? "
स्वामी शान्तिदास इस सवाल से घबरा गए. स्वामी जी ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और बोले " आशा है आपका कल का दिन अच्छा बीता होगा."
स्वर्णा ने फिर पूछा " स्वामी जी आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. मैं यह सिर्फ जिज्ञासावश पूछ रही हूँ क्यूंकि मैं भी मुंबई में सत्रह सालों से रह रही हूँ."
स्वामी जी " मैं एक नौकरी करता था , मगर दिल नहीं लगता था काम में. इसीलिए यहाँ आ गया. अब तो भगवान भक्ति में ही दिल लगता है."
स्वर्णा को ना  जाने ऐसा क्यूँ लगा कि स्वामी जी का जवाब सही नहीं है. वो कुछ छुपा रहे हैं. मगर वो उन्हें मजबूर भी नहीं कर सकती थी क्यूंकि वो खुद  अपनी समस्या लेकर उनके पास आई थी. स्वामी जी स्वर्णा को साथ लेकर मंदिर में आ गए. वहाँ कई और भक्त मौजूद थे. स्वामी जी का प्रवचन आरम्भ हो गया.
स्वामी जी बोलने लगे " हम कई बार अपने स्वार्थ के कारण कई अच्छी वस्तुओं और लोगों को ठुकरा देते हैं. आखिर ऐसा क्यूँ? उस समय हमारा मस्तिष्क काम क्यूँ नहीं करता? समय बीत जाने के पश्चात ही हमें इस गलतीयों का अहसास क्यूँ होता है?  इसका उत्तर है उस वक्त हमें सिर्फ हम स्वयं ही दिखाई देते हैं. हमें हमारे सिवाय सभी पराये और हमसे इर्ष्या करने वाले लगते हैं. हमें ऐसा आभास होता है उस समय कि ये सभी लोग या कोई एक जो हमें आगे बढ़ने के लिए हमारे द्वारा अपने अपनाए जा  रहे तरीको को गलत बतला रहे हैं वे या वो हमारी सफलता नहीं देखना चाहता है. इसीलिए वो हमारे हर कदम को गलत बतला रहा है. यही है हमारी आज के मन की अशांति का मूल कारण. जब अकेलापन हमारे चारों ओर फ़ैल जाता है तभी हमें इन सभी गलतीयों का एहसास होता है मगर कई दफा तब तक काफी देर हो चुकी होती है. हमें पश्चाताप का अवसर तक नहीं मिलता है. फिर जिंदगी एकाकी हो जाती है. इसलिए हमें हर समय सभी अपनों की बातों को ध्यान से सुनने के पश्चात ही कोई बड़ा कदम उठाना चाहिए. अगर सभी उस कदम को गलत कह रहे हैं तो खुद के मन के विपरीत जाकर उस कदम को पीछे हटा लेना चाहिये. पीछे खींच लेना चाहिये. गलत दिशा में जिद वश आगे ना बढ़ कर वहीँ कुछ देर खड़े रहकर सोचकर फिर कोई दूसरा निर्णय लेना चाहिये. यही हमारी जिंदगी का मूलमंत्र होना चाहिये. आप अब ध्यान लगाकर मेरी कही बातों को मन ही मन में सोचें और मनन करें. जय गंगा मैया की. सभी को मेरा प्रणाम."
 
स्वर्णा को इस प्रवचन को सुनने के पश्चात एक तरह से पूरा यकीन हो गया कि हो ना हो इस इंसान से वो पहले कहीं मिल चुकी है और उसकी ऐसी बातें वो पहले भी सुन चुकी है. मगर याद कुछ भी नहीं आया उसे. दोपहर में स्वर्णा स्वामी जी के आश्रम में अलग अलग लोगों से मिलने पहुंची. कई लोग उसे जानते थे क्यूंकि वो आज फ़िल्मी दुनिया की एक स्थापित हिरोईन थी. 
 
स्वर्णा को आश्रम के एक कोने में एक बड़ी उम्र के बाबा मिले. पूछने पर पता चला कि ये स्वामी शान्तिदास जी के गुरु हैं. स्वर्णा ने उनसे स्वामी जी के बारे में पुछा. बाबा ने जवाब दिया " शान्तिदास मुंबई से आया था. बहुत तनावग्रस्त और हर तरह से टूटा हुआ. उसके धंधे के साझीदार ने उसका साथ एकाएक छोड़ दिया था. शान्तिदास और वो लड़का दोनों एक साथ उस शहर में आए थे अपना भविष्य तलाशने. शान्तिदास ने बताया कि उसने लाख समझाया मगर उसके साझीदार उसे छोड़कर स्वार्थी और धूर्त लोगों के साथ मिलकर जिंदगी में बहुत कुछ पाने के लिए अलग हो गया. शान्तिदास को लाखों का नुकसान  हो गया. उसकी सभी पूंजी ख़तम हो गई. उसके पास कुछ नहीं बचा. 
शान्तिदास पहले से इस संसार में अकेला ही था और उसके बाद हर तरह से टूटकर अकेला रह गया. वो मरना चाहता था गंगा मैया में कूदकर. हमने उसे  बचाया. समझाया और आश्रम में लेकर आ गए. यहाँ वो भक्ति में लीन हो गया और मैंने उसे शान्तिदास नाम दे दिया. क्यूंकि उसने शांति पाने का रास्ता स्वत: ही खोज लिय़ा था. उसने जिस तरह से अपने आप को बदला, संभाला और बाद में कितने ही और अपने जैसे लोगों को शांति का मार्ग दिखलाया शान्तिदास नाम अब सार्थक हो चुका है उसका. अब मैंने आश्रम की सभी गतिविधियाँ उसी को सौंप दी है. शान्तिदास अब मेरा सबसे करीबी शिष्य है. मगर फिर भी सब कुछ होते हुए भी वो आज तक उस घटना को नहीं भुला पाया है."
स्वर्णा ने स्वामी जी की कहानी सुनी तो उसकी आँखों में से आंसू की धारा बह निकली. उसे स्वामी जी की कहानी बहुत जानी पहचानी लगी मगर फिर भी उसे सब कुछ ऐसा याद नहीं आया जिस से उसे यह पता चल सकता कि आख़िरकार उस शान्तिदास स्वामी के शब्द और भाषा इतनी जानी पहचानी क्यूँ लग रही है.
स्वर्णा दो दिन बाद मुंबई लौट गई क्यूंकि उसकी एक फिल्म का प्रीमियर शो था.
 
मुंबई आने के बाद भी स्वर्णा स्वामी जी को नहीं भुला पाई. फिल्म के प्रीमियर शो के बाद स्वर्णा फिर से ऋषिकेश पहुँच गई. स्वामी शान्तिदास को जब ये खबर मिली तो स्वामी जी एकाएक यात्रा पर निकल गए.  स्वर्णा एक बार फिर उन बाबा के पास गई. बाबा ने शाम को मिलने का कहा.
स्वर्ण आकर अपने कमरे में बैठ गई. उसे अपना बीता हुआ समय याद आने लगा. उसे या भी याद आया कि वो किस तरह इन परिस्थितियों में पहुंची. स्वर्णा एक ऐसे दौर से गुज़र रही थी जो उसे भीतर से हिला चुका था. स्वर्णा फिल्मों में पिछले पंद्रह सालों से हैं मगर पिछले दस सालों में उसने कई सफलताएं प्राप्त की. वो एक एक्स्ट्रा की हैसियत से फिल्मों में आई मगर तीन-चार साल के संघर्ष के बाद उसकी गाडी चल निकली. 
वो एक बड़े निर्माता के साथ ने उसे कई फ़िल्में दिलवाई। .मगर ये दोस्ताना संबंध दो साल ही रहा.. फिर स्वर्णा ने एक अरबपति फायनेंसर से दोस्ती की और उसके सहारे अपने केरियर को चमकाया। इस से उसका करियर बहुत चल निकला. उस फायनेंसर की मदद से स्वर्णा ने एक के बाद एक कई हिट फ़िल्में दी. मगर सात साल के बाद दोनों के संबंध ख़त्म हो गए., जब उस फायनेंसर ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा तो स्वर्णा ने उस से सम्बन्ध ख़त्म कर लिए।
फिर उस फायनेंसर ने किसी नयी विदेशी मूल की हिरोईन से संबंध बना लिए. स्वर्णा इस घटना से बिलकुल टूट गई. उसका केरियर  धीरे धीरे ढलान पर आ गया. वो अब अकेली हो गई. बड़े बड़े निर्माता  निर्दशक उस से दूर होने लगे. बहुत कम फ़िल्में उसे मिलती. 
 
स्वर्णा ने एक आखिरी कोशिश की एक बड़े हीरो के साथ दोस्ती के रिश्ते को  बनाकर फिर से कुछ करने की. मगर उस हीरो की पत्नी ने ऐसा नहीं होने दिया. भरी प्रेस में उस हीरो की पत्नी ने स्वर्णा को थप्पड़ मारकर अपने पति से दूर रहने की बात कह दी. इस घटना के बाद स्वर्णा ने खुद एक फिल्म बनाई और लोगों ने इसे पसंद भी किया. अच्छी कमाई भी हुई. स्वर्ण ने एक और फिल्म बनाई खुद के लिए. ये भी ठीक ठाक चली. मगर अब स्वर्णा को अकेलापन खाने लगा था. इतने धोखे खाने के बाद उसे अब हर कोई धोखेबाज और फरेबी ही लगने लगा था.  स्वर्णा धीरे धीरे नशा करने लगी. फ़िल्मी जगत में स्वर्णा के नशे की लत की खबर आग की तरह फ़ैल गई और लगभग हर कोई उस से दूर हो गया।
 
एक दिन स्वर्णा के एक हमदर्द ने उसे ऋषिकेश के स्वामी शान्तिदास जी के बारे में बताया. स्वर्णा ने इसे एक अंतिम मौका समझा और ऋषिकेश आने को तैयार हो गई. स्वर्णा इन सब पिछली बातों को याद कर सोचने लगी कि वो आई थी मन की शांति की तलाश में औरक्यूँ स्वामी जी को लेकर इतना परेशां हो रही है. 
सुबह स्वर्णा को इन्दर ने बताया कि स्वामीजी हरिद्वार के कनखल में गंगा घाट पर बने जानकी कुटीर आश्रम में है. स्वर्णा तुरंत वहाँ के लिए रवाना हो गई. 


स्वर्णा जब कनखल पहुंची तो स्वामी शान्तिदास गंगा किनारे बनी सीढियों पर बैठे हुए थे. उनके दोनों पैर गंगा के पानी में डूबे हुए थे. स्वर्णा स्वामी जी के पास बैठ गई. शान्तिदास को ज़रा भी आभास नहीं हुआ कि कोई उनके पास आकर बैठा है. शान्तिदास पिछले दो घंटों से इसी तरह बैठे हुए थे.
तभी उनके एक शिष्य ने आकर कहा " स्वामी जी, भोजन कर लीजिये. आप ने सुबह से कुछ नहीं खाया है."
शान्तिदास " मेरा मन बहुत विचलित है आज. मैं शाम की आरती के बाद ही खाऊंगा. तुम जाओ और मेरे लिए निम्बू का रस भिजवा दो "
स्वर्णा ने स्वामी जी के सामने आकर बैठते हुए कहा " प्रणाम स्वामी जी "
शान्तिदास स्वर्णा को देखकर चौंक गए. उनकी आँखें हैरान राह गई. स्वर्णा ने देखा कि स्वामी जी के चेहरे पर कुछ घबराहट के भाव आ गए थे. स्वर्णा ने फिर कहा " क्या बात है स्वामी जी? आपकी तबियत ख़राब है क्या?"
शान्तिदास ने खुद को संभाला और धीरे से कहा " नहीं, मैं ठीक हूँ. आपको यहाँ का पता किसने दिया?"
स्वर्णा ने जवाब दिया " इन्दर जी ने "
शांति दास ने पूछा " आपको कोई विशेष कार्य है मुझ से?"
स्वर्णा ने जवाब दिया " जी स्वामी जी, मैं जब से आप से मिली हूँ, आपके मुंबई से आने का सुना है. ना जानेमुझे ऐसा क्यूँ लग रहा है कि शायद आपकी कहानी मुझे कुछ जानी पहचानी सी लग रही है. अगर आपको कोई आपत्ति ना हो तो क्या आप मुझे आपकी मुंबई की जिंदगी के बारे में बतला सकते हैं?"
शान्तिदास ने थोडा क्रोधित होते हुए कहा " देखिये देवी जी, आज मेरा स्वास्थ  ठीक नहीं है. मैं विचलित हूँ सुबह से. सरदर्द और कमजोरी है. आप मुझे परेशान  ना करें. फिर आपको इन सब बातों से क्या लेना देना ? आप अपने मन की शांति तलाशने आई थी. उसी को तलाशने  का उपाय मैंने बताया था आपको. उसे अमल में लाईये. इधर उधर मन भटकायेंगी तो मन के शांति किस तरह प्राप्त होगी आपको?"
 
स्वर्णा मन ही मन सोचने लगी कि स्वामी जी का इस तरह से उससे मिलते ही विचलित होना कुछ शंका तो पैदा कर ही रहा है. स्वर्णा ने स्वामी जी से अपने सवालों के लिए माफ़ी मांगी और शाम को देहरादून लौटकर मुंबई की फ्लाईट पकड़ ली. स्वर्णा मुंबई आने के बाद लगातार अपने बीते दिनों को खंगालने लगी कि आखिर स्वामी जी का मुंबई में उसकी जिंदगी से क्या ताल्लुक हो सकता है?  मगर हर बार की तरह वो असफल ही रही.
शान्तिदास ने अपने गुरु जी से आज्ञा ली और कुछ दिनों के लिए जोशीमठ के लिए निकल पड़े. जोशीमठ ने दुर्गम पहाड़ियों के मध्य शांति दास के गुरु का एक आश्रम था. शान्तिदास वहीँ रुके. हर तरह के लम्बे और बड़े बड़े पेड़, कल कल बहती नदी. शान्तिदास आश्रम के एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बैठ गए. शान्तिदास में मन की शांति अशांति में बदल गई थी. 
शान्तिदास सुबह उस पेड़ के नीचे बैठा तो वो अतीत में लौट गया.
 
एक नौजवान मुंबई में नया नया आया था. उसकी लेखनी में दम था, शब्दों में पकड़ थी. वो नाटक और फिल्मो के लिए लिखना चाहता था. मुंबई में जल्द ही उसे एक प्रोडक्शन हाउस में एंट्री मिल गई. उसकी एक कहानी पर एक कलात्मक फिल्म भी बनी. मगर कमर्शियल फिल्मो के हिसाब से उसकी लेखनी को किसी ने पसंद नहीं किया. उसने जगह जगह मिलकर कोशिश की , मगर कुछ हासिल नहीं हुआ. एक दिन वो एक स्टूडियो में बैठा हुआ था . तभी उसने एक खूबसूरत लड़की को भी वहाँ आते देखा. उसे लग गया कि ये लड़की भी उसी की तरह काम की तलाश में है. उसकी शकल बता रही थी.
हुआ ये कि दोनों ही निराश उस ऑफिस से निकले. बस स्टॉप पर उस लड़की ने पूछा " तुम क्या हीरो बनने आए हो?" जवाब मिला " नहीं , मैं कहानियां लिखता हूँ. एक फिल्म आई थी इमारत. कला फिल्म थी. मेरी ही कहानी थी. तारीफ़ हुई मगर बाद में कोई काम नहीं मिला. काम की तलाश में दर  दर  भटक रहा हूँ." लड़की बोली " मेरा नाम सोना है. गुरदासपुर से आई हूँ. तुम्हारा नाम?" 
वो बोला " मैं  भोपाल से हूँ. मेरा नाम प्रभाकर जोशी  है."
सोना " कहाँ रहते हो?"
प्रभाकर " दादर में एक जगह पेइंग गेस्ट हूँ."
सोना " महीने का कितना देते हो वहाँ?"
प्रभाकर " पंद्रह सौ , सुबह की एक कप चाय मिलती है इसमें."
सोना " मेरे लिए भी बात कर लो. मैं खार में तीन हज़ार दे रही हूँ. अब पैसे भी  ख़तम  हो रहे हैं."
प्रभाकर " आज अभी चलो, दोपहर को घर ही मिलती है आंटी."
दोनों की यह पहचान दोस्ती में बदल गई. दोनों एक ही घर में पेइंग गेस्ट्स बन गए. साथ साथ स्ट्रगल करने लगे. धीरे धीरे दोस्ती अच्छी हो गई. सभी जगह एक दूजे के लिए सिफारिश करते. सोना को दो तीन फिल्मों में छोटे छोटे रोल मिले. प्रभाकर को दो फिल्मों में डायलोग लिखने का काम मिला. दोनों की दोस्ती बहुत गहरी हो गई. दो साल में ही दोनों को ठीक ठाक सफलता मिल गई. दोनों एक दूजे को एक दूजे के लिए भाग्यशाली समझने लगे. कुछ समय बाद दोनों को यह लगा कि शायद वे दोनों एक दूजे को कुछ कुछ पसंद भी करने लगे हैं. सब कुछ अच्छा चल रहा था. अचानक कुछ ऐसा हुआ कि सोना को यह लगने लगा कि प्रभाकर का साथ उसे नुकसान पहुंचा रहा है.  अगर उसका साथी कोई हीरो / निर्माता निर्देशक या फायनेंसर हो तो फायदा ज्यादा होगा. सोना प्रभाकर से दूरी बनाने लगी. प्रभाकर समझ नहीं सका इन सब  को. फिर अचानक सोना की जिंदगी में कमल किशोर आ गया. नया नया हिट निर्माता. सोना ने  कमल किशोर का सहारा  ले लिया., प्रभाकर को जब यह सब पता चला तो उसने सोना को फ़िल्मी जगत की सच्चाई बताई. उसे हर तरह से आगाह किया. 
मगर सोना को एक ऐसा सहारा नज़र आया कमल किशोर में जो उसे कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचा सकता था. और हुआ अभी यही. अगले तीन सालों में सोना की तीन फ़िल्में आई कमल किशोर की और तीनों सुपर हिट रही. कमल किशोर ने भी इसकी वजह से करोड़ों रुपये कमाए।  इन तीन सालों में सोना प्रभाकर को पूरी तरह से भूल गई. प्रभाकर छोटी मोटी विज्ञापन फिल्मे की स्क्रिप्ट्स लिखता. कभी किसी फिल्म में डाय्लोग्स लिखने का सहायक के तौर का काम भी मिल जाता. उसकी गाडी एक माध्यम वर्गीय इन्सान की तरह से चल रही थी. अब उसमे और सोना में सदीयों लंबा फासला था. प्रभाकर सोना को नहीं भूल सका था. जबकि सोना कब का उसे भूलकर कहीं आगे बढ़ चुकी थी.
 
कभी किसी फ़िल्मी समारोह में सोना और प्रभाकर आमने सामने आते तो सोना प्रभाकर को कभी नोटिस भी नहीं करती.  एक बार ऐसे ही एक समारोह में प्रभाकर ने सोना से जब उसके हल चाल पूछे तो सोना ने उसकी तरफ अनजानी नज़र डाली और ऐसे देखा जैसे वो उसे पहचानती नहीं है. इसके बाद प्रभाकर को इस व्यवहार से बहुत धक्का लगा था. प्रभाकर ने भी इस घटना के बाद सोना के सामने जाना बंद कर दिया. सोना अब स्वर्णा कुमारी बन चुकी थी. उस ने नाम बदल लिया था और इसी नाम से वो और अधिक हिट फ़िल्में  देने लगी.
प्रभाकर का लेखक के रूप में फ़िल्मी करियर एक दिन अचानक चमका जब उसकी एक कहानी को एक बहुत बड़े निर्माता-निर्देशक ने पसंद कर लिया और फिल्म बनाई. फिल्म जबरदस्त हिट हो गई. प्रभाकर की मांग बढ़ गई. अगले तीन सालों में प्रभाकर फ़िल्मी दुनिया में सबसे महँगा लेखक बन चुका था. प्रभाकर मगर अब तक सोना को नहीं भूल सका था. उसे रह रहकर सोना का इस तरह से छोड़ देना  अखरता रहता था. धीरे धीरे प्रभाकर का मन अशांत होने लगा. उसका दिल हर वक्त उचटा हुआ रहता. उसका लेखन प्रभावित होने लगा. उसे शराब की लत लग गई. सबसे महंगा लेखक केवल छः महीनों में अब बिना काम का हो गया था. प्रभाकर मन ही मन सोना से इतनी मौहब्बत करने लगा था कि वो अब अख़बार या पत्रिका में उसकी किसी के साथ तस्वीर तक देखना पसंद नहीं करता था. एक एक कर के उसके सभी दोस्त उस से दूर होते चले गए. प्रभाकर अस्पताल में दाखिल हुआ. बड़ी मुश्किल से शराब की आदत छूटी .
 
प्रभाकर जब अकेलेपन की तमाम हदें पर कर गया तो एक दिन उसने मुंबई में अपना सब कुछ बेच दिया और बदहवाशी के हालात में हरिद्वार चला  आया. दो दिन रुकने के बाद वो ऋषिकेश गया गंगा आरती के लिए. उसने यह सोच लिया कि गंगा आरती के बाद वो गंगा जी में जल समाधी ले लेगा. उस शाम गंगा आरती के बाद प्रभाकर घाट  से धीरे धीरे एक एक कर सीढीयाँ उतरता गया और गंगा जी में उतरता गया. जब उसका सिर्फ सिर ही दिखाई देने लगा तो कुछ साधुओं ने कोई आशंका होती देख उसे खींच कर बाहर निकाला और अपने आश्रम में लेकर आ गए. प्रभाकर दो तीन दिन तक खामोश रहा. बाद में उस आश्रम के बाबा ने प्रभाकर से सब पूछा तो प्रभाकर ने सही बात ना बता कर कुछ कहानी को बदलकर हकीकत जैसी बनाकर बता दी. 
प्रभाकर बाबा के सानिध्य में भगवान भक्ति में लग गया. सिर्फ आठ-दस  महीनों में ही प्रभाकर एक सामान्य इंसान से स्वामी शान्तिदास बन चुका था. हरतरफ उसके प्रवचनों और कही गई बातों की चर्चा होने लगी. उसकी कलम में जादू तो था ही पहले से , वो अब अपने लिखे शब्दों को खुद बोलता तो उन शब्दों का जादू भक्तों के सर पर जादू की तरह चढ़कर बोलने लगा। जो कोई उसकी शरण में आता वो अपनी सभी समस्याओं को सुलझाकर ही वापस लौटता क्यूंकि लेखक होने की वजह से उसकी समझ और सोच काफी गहरी थी। कई बड़े बड़े उद्योगपति, फिल्म जगत की हस्तियाँ, राजनिति के बड़े बड़े नेता तक उसकी शरण में आने लगे. इन्दर शान्तिदास का ख़ास सेवक था. वो शान्तिदास का पूरा ख़याल रखता. कौन कब मिलेगा सब वो ही तय करता. इसी इन्दर ने एक दिन शान्तिदास को कहा कि मुंबई के स्वर्णा कुमारी नाम की बहुत बड़ी अभिनेत्री उस से मिलना चाहती है. वो अपने जीवन से तंग आ चुकी है.
 
वो स्वर्णा का नाम सुनकर हैरान रह गया। वो स्वर्णा से किसी रूप में मिलना नहीं चाहता था। शान्तिदास चाहकर भी स्वर्णा से मुलाक़ात के लिए मना नहीं  कर सकता था क्यूंकि आज तक उस ने किसी को मिलने के लिए ना नहीं कहा था. बड़े भारी मन से उसने हाँ कह दी.
 
तभी शांति दास की तन्द्रा टूटी और वो अतीत से वर्तमान में लौट आया. इन्दर सामने खडा था. इन्दर ने शान्तिदास से अचानक इस आश्रम में रुकने का करण पूछा और उनकी ऐसी स्थिति का कारण भी पूछा तो शान्तिदास ने बड़े भारी मन से इन्दर को अपनी और स्वर्णा की आज तक की कहानी बतला दी. इन्दर एक गहरी सोच में डूब गया. उस वक्त तो वो कुछ ना बोला, मगर सारी रात वो जागता रहा और शान्तिदास के बारे में उस कहानी को लेकर सोचता रहा.


 सवेरे इन्दर शान्तिदास के साथ गंगास्नान के बाद ध्यान में बैठ गया. ध्यान के बाद इन्दर ने शान्तिदास से कहा " स्वामी जी, जिस स्थिति में आप बरसों पहले मुंबई छोड़कर ऋषिकेश आए थे. आज उसी स्थिति में स्वर्णा देवी भी मुंबई से बार बार ऋषिकेश आ रही है.. आप स्वर्णा देवी से अलगाव को सहन नहीं कर सके. स्वर्णा देवी असफलता को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है. अब वो अकेलेपन की सभी सीमाएं पारकर एक अत्यंत ही दुखदायी स्थिति में पहुँच चुकी है. आज स्वर्णा देवी एक ऐसे सहारे की तलाश में है जो उन्हें ना केवल इस गंभीर स्थिति से निकलने में मदद के बल्कि आगे के लिए भी एक सच्चा साथी बन सके. आप भी उन दिनों इसी स्थिति में थे. मैं तो यह भी मानता हूँ कि स्वामी जी आप आज भी उन दिनों सी स्थिति से उभरे नहीं है. मैं पहले दिन से आपके करीब रहा हूँ. मैं आपको ना सिर्फ जानता हूँ बल्कि समझता भी हूँ आपके दिल की बातों को. स्वामी जी , आप को आज भी स्वर्णा देवी की तलाश है और स्वर्णा देवी को आज आप जैसे मन से चाहने वाले सहारे की तलाश है. आप जिस की तलाश में यहाँ आये थे, वो स्वयं आपकी तलाश में यहाँ तक आ पहुंची है. आप दोनों की तलाश यही समाप्त हो जानी चाहिये. ऐसा मेरा विचार है."
शान्तिदास इन्दर की बातों को बहुत ही गौर और आश्चर्य के साथ सुन रहा था. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि इन्दर इतनी गहरी और स्पष्ट बात कैसे आसानी से कहता जा रहा है! जो तलाश कभी पूरी नहीं होगी, ऐसा शान्तिदास आज तक सोच रहा था. इन्दर ने स्वर्णा के साथ उसके संबंधों के बारे में सब जानकर उसे वो बतला दिया जो शायद वो कभी सोच नहीं सकता था. इन्दर ने शान्तिदास की तरफ देखा और बोला " स्वामी जी, अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं स्वर्णा देवी से यह सब वार्ता विस्तार से कर लेता हूँ. मुझ से आपका एकाकीपन सहन नहीं हो रहा है अब जबसे आपने स्वर्णा देवी के बारे में सब बताया है."
शान्तिदास कुछ ना बोला. वो आश्रम में अपनी कुटिया में आकर लेट गया. इन्दर ने कुछ देर पश्चात कुटिया में झांककर देखा तो स्वामी जी गहरी नींद में थे. इन्दर ने स्वामी जी के शांत ओजस्वी चेहरे को देखा और मन ही मन सोचा " स्वामी जी, आज एक बहुत ही लम्बे अरसे एक पश्चात इतनी शांति और संतुष्टता के साथ नींद ले रहे हैं. इसका यही मतलब है कि स्वामी जी को मेरा प्रस्ताव मंज़ूर है. अब मुझे स्वामी जी के जवाब का इंतजार किये बिना स्वर्णा देवी से बात कर लेनी चाहिये."
 
इन्दर ने ऋषिकेश लौटकर स्वर्णा का मुंबई में टेलीफोन नंबर निकाला और उसके हाथ फोन की तरफ बढ़ गए. स्वर्णा अपने कमरे में बैठी चाय पी रही थी. तभी फोन की घंटी बजी. स्वर्णा ने फोन उठाया और बोली " हेलो,कौन है?"
इन्दर " जी मैं स्वामी शान्तिदास जी के आश्रम ऋषिकेश से इन्दर बोल रहा हूँ, क्या मेरी बात सोना जी से हो सकती है ?"
स्वर्णा इन्दर के मुंह से सोना नाम सुनकर चौंक गई. इन्दर को उसका यह नाम कैसे पता? स्वर्णा बोली " इन्दर जी मैं स्वर्णा बोल रही हूँ. मगर आपको मेरा यह नाम कैसे पता चला?"
इन्दर बोला " यह सब मैं आपको जोशीमठ आने पर बताऊंगा. आप पहली फ्लाईट से देहरादून आ जाइए. एयरपोर्ट पर हमारे आश्रम का सेवक आपको कार के साथ मिल जायेगा. स्वामी जी आपसे मिलना चाहते हैं. कुछ जरुरी सन्देश है आपके लिए. शायद आप जिस तलाश में हमारे आश्रम आई थी. वो तलाश पूरी ही चुकी है."
स्वर्णा ने दूसरे दिन सवेरे सवेरे की फ्लाईट में टिकट बुक करवा लिया और करीब नौ बजे वो देहरादून के एयरपोर्ट पर उतर चुकी थी. गेट पर एक गेरुयें कुरते में एक युवक उसके पास आया और बोला " स्वर्णा देवी , मैं स्वामी शान्तिदास जी के आश्रम से हूँ, हमें इसी वक्त जोशीमठ निकलना है." स्वर्णा उसके साथ जोशीमठ के लिए निकल पड़ी. पूरे रास्ते वो बीती रात की तरह लगातार सोचती रही कि आखिर ये शान्तिदास है कौन जिससे मिलने के बाद उसकी जिंदगी में बहुत ज्यादा उथल पुथल हो गई है. वो अनजान होकर भी इतना जाना पहचाना क्यूँ लग रहा है. वो खुद को भूलने लगी है और स्वामी जी के बारे में सोचने लगी है. अब अचानक स्वामी जी का यह सन्देश कैसे आ गया? इन्दर को उसका सोना नाम किस तरह पता चला? क्या स्वामी जी उसे पहले से जानते हैं? या किसी ने स्वामी जी को उसका अतीत बतला दिया है? स्वामी जी ने कनखल में उसे डांटकर भगा दिया था और अब अचानक फिर से बुलाया है और वो भी जोशीमठ? ये क्या माजरा है? एक के बाद एक कई सवाल उसके जहाँ में घूमने  लगे.
ऊँची पहाड़ियों को पार कर  अब कार उबड़ खाबड़ रास्ते पर चलने लगी. करीब आधे घंटे इसी तरह के रास्ते पर चलने के बाद सामने एक आश्रम दिखाई दिया. चार-पांच कुटियाएँ बनी हुई थी. खूब हरियाली थी. कार रुकी तो सामने इन्दर खड़ा था. उसने स्वर्णा को देखा और बोला " नमस्ते, आईये." स्वर्णा ने तुरंत इन्दर से पुछा " आपको मेरा सोना नाम कैसे पता चला?" इन्दर मुस्कुरा दिया और बोला " जी अब इन सवालों का कोई अर्थ नहीं है. स्वामी जी से मिल लीजिये. आपके सभी प्रश्नों के उत्तर उनके पास है और सभी समस्याओं का भी. वे आपका ही इंतजार कर रहे हैं. आइये."
 
स्वर्णा की उत्सुकता अब चरम पर पहुँच गई. इन्दर ने आश्रम में ही पीछे एक ऊँची पहाड़ी के पीछे बहने वाले झरने के पास ले जाकर कहा " वो रहे स्वामी जी, आप मिल लीजिये. आपकी तलाश पूरी हुई मन की अशांति की. नया जीवन शुभ हो. "
स्वर्णा ने एक बार फिर इन्दर की तरफ देखा. मगर वो इन्दर के चेहरे से कुछ पढ़ ना पाई. इन्दर जा चुका था. स्वर्णा ने देखा स्वामी जी झरने के बहते हुए पानी में पाँव लटकाए हुए उसकी तरफ पीठ किये बैठे हैं. स्वर्णा को याद आया कि इन्दर ने बतलाया था कि स्वामी जी को इसी तरह बहते हुए पानी में पैर लटकाकर बैठना बहुत सुकून देता है. स्वर्णा स्वामी जी के ठीक पास जाकर स्वामी जी की तरह ही बैठ गई, जब स्वर्णा ने अपने दोनों पैर पानी में डाले तो उसे उसकी ठंडक से बहुत ही सुख पहुंचा. स्वर्णा की आहट से शान्तिदास के तन्द्रा टूटी उसने देखा कि स्वर्णा उनके पास बैठी है तो वे चौंक गए. स्वर्णा ने देखा कि स्वामी जी का चेहरा एकदम शांत है. मगर मन पूरी तरह से अशांत है. वो बोली " मेरे लिए क्या आज्ञा है स्वामी जी? इन्दर जी ने मुझे अचानक यहाँ बुलाया है. उन्हें मेरा सोना नाम किस तरह पता चला ?" स्वामी जी कुछ ना बोले. तभी स्वर्णा को इन्दर आता दिखाई दिया, उसके हाथ में एक ट्रे थी जिसमे शायद चाय थी. इन्दर ने ट्रे वहीँ रख दी. फिर स्वर्णा की तरफ एक अलग मुस्कान से देखा और बोला " सोना देवी अब आप सुकून के साथ प्रभाकर जी के साथ चाय पीजिये और अपने अपने मन की शांति की तलाश को समाप्त कीजिये."
 
इतना कहकर इन्दर चला गया. स्वर्णा इन्दर के मुंह से स्वामी जी के लिए प्रभाकर नाम सुनकर ऐसा चौंकी कि वो उठ खड़ी हुई और स्वामी जी की तरफ बहुत गौर से देखने लगी . जब काफी देर तक उसने स्वामी जी की आँखों को घूरकर देखा तो उन आँखों में प्रभाकर का कुछ कुछ अक्स नजर आया जिसे उसने बरसों पहले ठुकरा दिया था. सोना को अब स्वामी जी के उन सभी शब्दों में जाना-पहचानापन याद आया कि यह सब प्रभाकर का ही तो था. सोना ने देखा कि स्वामी जी की आँखों में एक बहुत ही गहरा सूनापन था. बिलकुल किसी पत्थर की तरह.
सोना ने प्रभाकर की खामोशी को तोड़ने के लिए कहा " प्रभाकर तुम!!  ये तुम प्रभाकर से शान्तिदास कैसे बन गए? यह सब कुछ क्या है? "
प्रभाकर ने एक गहरी सांस ली और बोला " हर तरफ अन्धेरा था; कोई राह नज़र नहीं आई मुझे तो मैंने ये फैसला किया." प्रभाकर ने अब तक की सारी कहानी सुनाई सोना को. सोना खामोशी से प्रभाकर की कहानी सुनती रही. सब कुछ सुनाकर जब प्रभाकर खामोश हो गया तो सोना बोली " मगर तुमने मेरे पीछे किया. क्यूँ? हम दोनों तो दोनों संघर्ष कर रहे थे. बस उतनी ही जान-पहचान थी. फिर मेरी चिंता तुमने इतनी क्यूँ की? अपनी जिंदगी ख़त्म करने चले थे मेरे गलत संगत में चले जाने के बाद. तुम मुझे सब कुछ साफ़ साफ़ कहो प्रभाकर. तुम्हें मेरी इतनी परवाह क्यूँ हुई? "
 
प्रभाकर बोला " मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं तुम्हें कह सकूँ कि मैं तुम्हें बेपनाह चाहता हूँ. क्यूंकि उन दिनों तुम एक बहुत बड़ी हिरोईन बन चुकी थी और मैं एक स्ट्रगलर के सिवाय कुछ भी नहीं था."
सोना काँप गई प्रभाकर के इस जवाब से. उससे एक बार तो कुछ भी नहीं कहते बना. वो सोचने लगी कि वो वास्तव में कितनी गलत फैसले कर रही थी उन दिनों. एक सच्चा हमसफ़र उसके सामने था मगर वो अंधी दौड़ में धोखेबाजों के साथ मिल गई थी और आज जब वो अपने केरियर की ढलान पर है तब उसके साथ उस वक्त का कोई भी साथ नहीं दे रहा है तब की तरह आज भी प्रभाकर उसके सामने है. आज प्रभाकर देश का सबसे सफल दार्शनिक है और वो खुद एक शुन्य के सिवाय कुछ भी नहीं;  मगर तब भी प्रभाकर उस से उस वक्त का सच आज भी कह रहा है. वो कितनी गलत थी और प्रभाकर आज भी कितना सच्चा है.
जिस मन की शांति की तलाश में वो पिछले साल भर से दर दर भटक रही थी वो तलाश वास्तव में इन्दर की बातों में आज समाप्त हो गई थी और प्रभाकर जिस तलाश में सारे देश में लोगों को जिंदगी के मायने समझाकर अपनी असली जिंदगी की तलाश कर रहा था वो तलाश वो खुद ही थी. सोना ने प्रभाकर को अपनी बरसती आँखों से देखा. प्रभाकर अभी भी किसी चट्टान की तरह शांत बैठा हुआ था. सोना ने प्रभाकर के हाथ अपने हाथ में लिए और बोली " अब तो तुम्हारी तलाश पूरी हो गई है प्रभाकर अब तो इस उदासी को कहीं दूर फेंक दो. मैं जिस गलत रास्ते पर थी उसे अब छोड़ चुकी हूँ, भूल चुकी हूँ. अब तुम भी मुझे माफ़ करो और मुझे अपने साथ लेकर चलो अपनी जिंदगी के सफ़र में. जहाँ तुम्हारी तलाश ख़त्म हुई है वहीँ मेरी  तलाश भी ख़त्म हो गई है . अब वक़्त है एक नए सफ़र का जिसमे कोई तलाश नहीं है मंजिल सामने है और हमें मंजिल तक जाना है।" 
प्रभाकर की आँखें छलछला गई. उसने सोना की तरफ देखा और बोला " जिंदगी का सफ़र कहीं और से शुरू नहीं कर यहीं से करना है. यहीं जोशीमठ में एक छोटा सा आशियाँ बना लेंगे और यहीं रहेंगे. पत्थरों के बड़े बड़े घरों में लोग भी पत्थर दिल लोग बसते हैं. हमें ऐसी बस्ती में नहीं रहना है. हम यहीं रहेंगे. कुदरत की गोद में. " सोना ने हाँ में सिर हिलाते हुए कहा " मुझे अब कुछ नहीं सोचना जब तुम मेरे साथ हो. मेरे लिए तुम कभी गलत हो ही नहीं सकते। "
 
इन्दर दूर खडा हुआ इस अनोखी तलाश को ख़त्म होता हुआ देख मन ही मन बहुत खुश हो  रहा था।
  
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रविवार, 10 फ़रवरी 2013


काश कभी मैं समझ पाता 
 
 
देहरादून से दिल्ली की गाडी छूटने में थोड़ी देर ही बची थी। आकाश कोच में अपनी सीट पर सामान रखकर बैठने ही जा रहा था कि अचानक  एक युवती की आवाज आई " अंकल जी, रास्ता दीजिये प्लीज। मुझे बहुत सा सामान लाना है अभी और ट्रेन के छूटने में सिर्फ दस मिनट ही बाकी है। प्लीज अंकल जी।"  आकाश तुरंत अपनी साइड लोअर सीट पर बैठ गया। वो लड़की भागती हुई दरवाजे की तरफ गई और दो सूटकेस लेकर दौड़ती हुई आई। आकाश ने उस से कहा " बेटी, तुम ये सामान मुझे पकड़ा दो और बाकी का सामान ले आओ। मैं तुम्हारी मदद किये देता हूँ" उस लड़की ने आकाश से कहा " सो नाइस ऑफ़ यु अंकल जी।" बाद में आकाश और उस लड़की ने मिलकर करीब पंद्रह सूटकेस और बेग्स लाकर उस केबिन में यहाँ वहाँ रख दिए।
आकाश ने उस लड़की से पूछा " तुम्हारे साथ इतना सामान!" उस लड़की ने जवाब दिया " नहीं अंकल जी। हम कुल बीस लड़कियां है। हमारी बस रास्ते में खराब हो गई थी ना इसलिए ऐसा हुआ। मैं सब सामान लेकर एक वेन में बैठकर आगे आ गई। बाकी सब लड़कियाँ अब पहुंची है हमारे सामान लगाने के बाद। आपका बहुत बहुत शुक्रिया अंकल जी। आप ना होते तो मैं सामान गाडी के छूटने तक भीतर नहीं ला सकती थी।" आकाश ने एसी कोच के गहरे कांच से बाहर देखा गाडी रवाना हो चुकी थी। तभी एक एक कर बाकी की सभी लडकियां भी आ गई और सामान को सीट के नीचे जमाने लगी।
आकाश देहरादून से दिल्ली जा रहा था। उसे वहां साहित्य अकादमी की तरफ से पुरस्कार दिया जाने वाला था। कुछ देर बाद वो लड़की आकाश के सामने वाले सीट पर आकर बैठ गई। आकाश ने ध्यान से उस लड़की का चेहरा अब ही देखा था। आकाश को उसका चेहरा बहुत जाना पहचाना सा लगा। कहाँ देखा आकाश को कुछ याद नहीं आया। वो लड़की बोली " अंकल आप कहाँ जा रहे हैं?"
आकाश - " मैं दिल्ली जा रहा हूँ।"
लड़की ने कहा " हम सभी भी दिल्ली ही जा रहे हैं। हम वहीँ पढ़ती हैं इंदिरा कोलेज में। हमारी देहरादून, मसूरी पिकनिक आई थी। अच्छा आप भी दिल्ली ही रहते हो?"
आकाश - " नहीं। मैं मसूरी में रहता हूँ बरसों से। साहित्यकार हूँ। साहित्य अकादमी ने मुझे इस वर्ष के पुरस्कार के लिए चुन है। वो पुरस्कार लेने ही जा रहा हूँ। वैसे मैं मसूरी कभी नहीं छोड़ता। आज पूरे बीस सालों बाद मसूरी से बाहर निकला हूँ।"
वो लड़की बोली - " साहित्य अकादमी का पुरस्कार! फिर तो आप बहुत बड़े लेखक हुए। आपका नाम ?"
आकाश - " आकाश शर्मा . मेरे उपन्यास  तनहा आकाश को इस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए चुना गया है। तुम्हारे बारे में भी कुछ बताओ।"
लड़की बोली " मेरा नाम शीतल चौधरी है। मैं दिल्ली में होस्टल में रहकर एम् एस सी कर रही हूँ। "
आकाश " तुम्हारे परिवार वाले?"
शीतल - " पिताजी तो अब नहीं रहे। माँ है; जो ऋषिकेश में रहती है और बच्चों का एक स्कूल चलाती है। मैं अकेली संतान हूँ "
आकाश फिर से शीतल के चेहरे को देखकर सोचने लगा की आखिर इसका चेहरा इतना जाना पहचान क्यूँ लग रहा है जबकि वो इस लड़की को शायद पहली दफे ही देख रहा होगा आज। उधर शीतल आकाश की बातों को मन में दोहराने लगी कि आज मैं मसूरी से बीस सालों बाद बाहर निकला हूँ। शीतल ने हिम्मत जुटाई  और आकाश से पूछ ही लिया " अंकल जी, अपने बारे में भी तो कुछ बताएं आप।"
आकाश ने आज तक कभी किसी बहरी व्यक्ति से इतनी घुलमिलकर और खुलकर बातें नहीं की थी , मगर उसने शीतल को बताना शुरू कर दिया " शीतल; मैं मसूरी में पिछले बीस सालों से अकेला ही रह रहा हूँ। मेरे परिवार में मेरे अलावा मेरा नौकर है। माता-पिता अब नहीं रहे। मैंने शादी नहीं की। मेरे भाई बहन कहाँ है मैं नहीं जानता . मगर इतना पता है मेरे एक छोटा भाई है और सबसे छोटी एक बहन। मसूरी में मेरा घर , मेरा कमरा और लिखने की कलम और कागज़ यही मेरी दुनिया है। मैं उसी में सिमटा  हुआ रहता हूँ।" शीतल को आकाश के बारे में बहुत उत्सुकता पैदा होने लगी और अधिक जानने की मगर तभी उसके साथ वाली लडकियां आ गई और उसे ना चाहते हुए भी उनके साथ जाना पड़ा।
 
रात हो चली थी। आकाश सोने की तैय्यारी करने लगा। तभी शीतल आती हुई दिखी उसे। आकाश ने अपनी सीट पर जगह बनाई और शीतल उसके सामने बैठ गई। शीतल बोली " अंकल जी, मैं मसूरी आकर आपसे मिलना चाहूंगी। दशहरे की छुट्टियों में मैं ऋषिकेश आउंगी माँ से मिलने; तब मसूरी आउंगी। मुझे आपसे मिलना है; मुझे बहुत उत्सुकता हो रही है कि आपसे मिलूं; बहुत सी बातें करूँ और आपके बारे में विस्तार से जानूं, आपसे कुछ सीखूं। क्या आप मुझे वक़्त देंगे ?"
आकाश को लगा जैसे उसका आज पहली बार खुद पर से काबू नहीं रहा है; उसके मुंह से निकल गया " जरुर आ जाना तुम। मैं इंतज़ार करूँगा।"
इसके बाद काफी देर तक शीतल आकाश से उसके लिखे उपन्यासों पर बात कनरे लगी और आकाश भी उसे अपने लिखे उपन्यासों के बारे में बतलाने लगा। शीतल ने आकाश से उसका पता माँगा आकाश ने एक पर्ची पर अपना पता लिख कर दे दिया। शीतल ने पढ़ा - आकाश शर्मा, " अनामिका" डेनियल हिल्स मसूरी। सुबह दिल्ली आने पर शीतल नमे आकाश से नमस्ते कहा और बोली " अंकलजी, मैं दशहरे की छुट्टियों में मसूरी आ रही हूँ।" आकाश मुस्कुराकर रह गया।
शीतल होस्टल तो आ गई मगर उसे बार बार आकाश की बातें और उसका अकेलापन रह रहकर याद आने लगा। शीतल को आकाश में की जिंदगी में कोई रहस्य नज़र आने लगा था। वो ये सोचने लगी कि कब दशहरा आये और वो माँ से मिलकर बाद में मसूरी जाए और पता लगाए कि आखिर आकाश की जिंदगी कैसी पहेली है!

शीतल को साहित्य अकादमी के पुरस्कार का दिन याद था।  रात को दूरदर्शन पर समाचार देखा उसने। आकाश को पुरस्कार लेते दिखाया गया।  
बाद में एक इंटरव्यू भी था छोटा सा। उसमे आकाश की कही एक बात ने शीतल के इस शक को और पुख्ता कर दिया कि कोई बहुत बड़ा रहस्य जरुर है उसकी जिंदगी में। उनसे यह पूछे जाने पर कि उपन्यास का नाम तनहा आकाश क्यूँ रखा तो आकाश का बहुत ही छोटा सा मगर रहस्यमय ज़वाब था " आकाश तो हमेशा से ही तनहा ही है। आप ऊपर नज़रें उठाकर देख लीजिये। हर तरफ सिवाय तनहाईयों के कुछ भी नज़र नहीं आएगा।"
 
दशहरे की छुट्टियां हो गई। शीतल ऋषिकेश आई। अपनी माँ के साथ कुछ दिन रही और बाद में यह बहन कर कि उसकी एक सहेली मसूरी में बीमार है और वो दो दिन वहाँ रुककर उससे मिलकर लौट आएगी। शीतल की माँ शीतल से  मौहब्बत करती थी। उसकी छोटी से छोटी बात को ध्यान से सुनती और  उसकी हर बात का ख़याल रखती क्यूंकि शीतल ही उसकी दुनिया थी। उसने शीतल को मसूरी जाने के लिए हाँ  कह दी।
 
शीतल मसूरी पहुँच गई। उसे पूछने पर पता चला की डेनियल हिल्स मसूरी के घने जंगल शुरू होते ही सबसे पहली पहाड़ी का नाम है। वहाँ गिनती के कोटेजेस है मगर जगह बहुत ही शांत और खुबसूरत है। शीतल पहाड़ी  चढ़ने लगी। करीब आधे घंटे चढ़ने के बाद के बाद उसके सामने कोटेज आ गई जिस पर लिखा था "अनामिका" 3 या 4 कमरों वाली ये कोटेज  ओर से रंग बिरंगे फूलों के पौधों से गिरी हुई थी। शीतल ने लकड़ी से बनी कम्पाउंड वाल के बीच छोटे से लकड़ी की पट्टियों से बने दरवाजे को खोल दिया और भीतर आ गई। सन्नाटा था। उसे कोई नज़र नहीं आया।    उसने आवाज लगाईं " आकाश अंकल। आकाश अंकल। आप कहाँ हो?" मगर शीतल को कोई दिखाई नहीं दिया। उसने कोटेज का पूरा चक्कर लगाया और देखा कि सच में ही घर में कोई नहीं है। वो बाहर बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठ गई। अपना बेग अपनी गोद में रखे आसपास फूलों को निहारने लगी। थोड़ी देर बाद उसे एक आदमी आता हुआ दिखा। वो करीब आया तो पता चला दूधवाला है। उसने खुद ही बरामदे में कोने में रखे एक बर्तन में दूध डाला और शीतल से पूछा " आप सरजी से मिलने आई है? सरजी के आने का समय हो गया है। अभी आते ही होंगे  कभी कभी वो थोडा अधिक दूर निकल जाते हैं घूमते घूमते।"
पांच मिनट ही बीते थे कि आकाश आ गया। शीतल देखती रह गई। जिस दिन आकाश गाडी में मिला था तब उसने कुर्ता -पायजामा और जेकेट पहन रखी थी जबकि अभी वो एक हलके नीले रंग के ट्रेक सूट में था। ऐसा लगा जैसे आकाश का अचानक ही दस पंद्रह साल छोटा हो गया हो। आकाश शीतल को देखकर बोल " तो तुम आ ही गई। नहीं रह सकी मेरे बारे में बहुत कुछ जानने से। बहुत जिद्दी हो तुम। भला यूँ कोई अपने बारे में किसी अनजाने को सब कुछ बताता है क्या ?" शीतल चौंक गई आकाश की इस बात से। उसका चेहरा सपाट हो गया एक पल में ही। वो लगभग रुआंसी हो गई। आकाश आकर सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया और मुस्कुराते हुए बोला " मैं सब को मन करता आया हूँ मगर तुम्हें सब कुछ कहना है यह सोचकर ही तो मैंने तुम्हें अपना पता दिया था उस दिन। इतना घबराती क्यूँ हो तुम?"" शीतल की जान में जान आई। दोनों एक साथ हंसने लगे।
आकाश ने दूध का पतीला लिया, घर के दरवाजे का ताला खोला। शीतल ने देखा पूरा घर बहुत ही साफ़ सुथरा और सलीके से सजाया हुआ था। कुल तीन कमरे थे और सभी कमरों में किताबें ही किताबें थी। कई पेंटिंग्स भी लगी थी। शीतल रसोई में पहुंची तक तक आकाश चाय बनाकर छान कर दो गिलास भर चूका था। शीतल ने पूछा " सब काम आप खुद ही करते हो?" आकाश ने जवाब दिया " सिर्फ सुबह की चाय और आधी रात की कोंफी मैं बनाता हूँ बाकी का सारा काम देंज़िंग मेरा नौकर करता है। वो अभी आता ही होगा। दोपहर का खाना बनाता है। कपडे धोना साफ़ सफाई करना और बाद में शाम को चाय पिलाकर और रात का खाना बनाकर लौट जाता है। "
दोनों बैठक में आ गए और चाय पीने लगे। आकाश बोल " अपने पिताजी और माँ के बारे में तो कुछ बताओ?" शीतल ने कहा " मैं आपसे आपके बारे में जानने आई हूँ। अगर आपको मेरे बारे में जानना है तो ऋषिकेश आना पड़ेगा।" शीतल ने जिस अंदाज से यह बात कही आकाश खिलखिलाकर हंसने लगा। शीतल उसे आश्चर्य से देखने लगी। देंजिंग भी आ चुका था। उसने आकाश को इस तरह से हँसते देखा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसने आज आकाश को पहली बार इतना खुलकर हँसते हुए देखा था। आकाश ने अपनी हंसी रोकी और बोला " ठीक है; मैं ऋषिकेश आउंगा तब तुम अपने सब के बारे में बतला देना। अब तो नाराज़ नहीं हो ना!" शीतल मुस्कुरा दी।

शीतल बाहर बगीचे में घुमने लगी क्यूंकि आकाश नहाने चला गया था और देंजिंग घर की साफ़ सफाई कर रहा था। आकाश नहाने के बाद शीतल को लेकर घर से कुछ ही दूरी  पर बने एक हनुमान मंदिर में ले गया।  वहाँ आकाश ने पूजा की। बाद में दोनों बाज़ार निकल गए। आकाश ने कुछ खाने पीने की चीजें खरीदी। शीतल ने भी एक मफलर खरीदा और एक शाल। इसके बाद दोनों घर लौट आये। घर आये तब तक देंजिंग ने खाना तैयार कर दिया था। आकाश और शीतल ने दोपहर का खाना खाया।
अब दोनों बाहर बगीचे में एक पेड़ की छाँव में बैठ गए। शीतल को इंतज़ार था आकाश के बोलने का। आकाश ने शीतल की तरफ देखा और कहना शुरू किया " मैं अपने माता -पिता और दो छोटे भाई-बहन के साथ काठगोदाम रहता था। मेरे पिता सरकारी नौकर थे। सरकारी कोलोनी में। साधारण परिवार था हमारा। बस घर खर्च चल जाता था। बात उन दिनों की है जब मैं बी ए फाइनल में था। हमारी कोलोनी में ही एक परिवार रहने आया। उस घर में एक लड़की थी। बहुत ही शनत चेहरे और स्वाभाव की। पहली बार देखते ही मुझे वो अच्छी लगने लगी थी। जब भी मैं उसके घर के सामने से गुज़रता तो उसकी एक झलक को बेताब रहता था। जब भी कभी वो दिख जाती मैं बहुत सुकून महसूस करता था। इसी तरह कई महीने निकल गए। वो अक्सर खामोश निगाहों से ही मुझे देखा करती थी। उसके चेहरे पर कभी कोई भाव नहीं आता था। मैं उसके चेहरे को देखकर थोडा घबरा उठता था और नज़रें झुकाकर उसके सामने से निकल जाता। एक बार हम दोनों का आमना सामना हुआ पहली बार। हम दोनों ही बाज़ार में थे। बिलकुल आमने सामने। उस वक्त भी उसकी आँखें खामोश थी और मुझे देखे जा रही थी। मैंने हर बार की तरह अपनी नज़रें झुकाई और घर आ गया। इसके बाद भी हम कई दफा एक दूसरे के सामने से गुज़रते मगर वो ही ख़ामोशी हम दोनों के दरम्यान रहती थी। मैं मारे डर के उसे कुछ नहीं कह पाता था कि मैं तुम्हें पसंद करने लगा हूँ दिल से। वो भी हमेशा उसी तरह से खामोश नज़रों से मुझे देखा करती।
इसी तरह से दिन महीने बीतते बीतते करीब दो साल गुज़र गए।
एक दिन जब मैं कोलेज से घर लौटा तो मुझे अचानक तेज़ बुखार आ गया। वो बुखार ऐसा चढ़ा कि मैं टाईफाइड का शिकार हो गया। पूरे दो महीने बिस्तर में पडा रहा।  
 
जिस दिन मैं जब दो महीनों के बाद कोलेज के लिए निकला तो मैंने उसे अपने घर की बालकनी में खडा पाया .मेरी नज़रें अचानक चमक उठी। तभी मैंने देखा कि उसकी खामोश आँखें आज बहुत चिंता में डूबी हुई लग रही है। मैं उसे देखते देखते उसके घर के सामने से होता हुआ सायकिल चलता कोलेज चला गया। दोपहर को कोलेज की छुट्टी के बाद मैं जब कोलेज से बाहर आया तो मैंने देखा कि मेरे कोलेज के सामने एक मोड़ पर वो खड़ी  हुई है। मैं कुछ दूरी से उसे देखने लगा। मुझे देखते ही उसका चेहरा बेचैन हो गया। आज पहली बार उसे ऐसा देखकर मुझे चिंता हो गई। आखिर हिम्मत जुटाकर मैं उसके करीब गया। मैं जैसे ही उसके करीब पहुंचा उसकी आँखें आंसू बहाने लगी। मैं घबरा गया। कांपती आवाज में मैंने पूछा " आप रो क्यों रही है? ऐसा क्या हुआ है?"
उसने अपने को रोका और सुबकती आवाज में कहा " हमारे पापा की ट्रांसफर रामपुर हो गई है और हम लोग इसी रविवार को रामपुर जा रहे हैं। मैं पिछले कई हफ़्तों से तुम्हारा इंतज़ार कर रही थी कि तुम मिलो और तुम्हें सब बता दूँ। हम तुम्हारे बिना नहीं रह सकेंगे वहां। हमने कई बार तुम्हें कहना चाहा था मगर तुम कभी समझ ही नहीं सके कि हम तुमसे  बहुत कुछ कहना चाहते हैं। हम यह कहना चाहते थे कि हम अब तुम्हारे बिना खुद को अकेला समझते हैं। हमारी सूनी आँखें हर रोज़ तुम्हे देखे बिना चैन नहीं पाती है। अब जब हम तुम से दूर जा रहे हैं तो वहाँ तुम्हें कैसे देखेंगे और कैसे रहेंगे? तुम अपने घर में हमारे बारे में बात कर के रामपुर जरुर आना। हम कभी भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकेंगे। अगर तुम नहीं आये तो हम अकेले ही जिंदगी गुज़ार देंगे मगर किसी और के साथ नहीं रह सकेंगे। बस हमारी इतनी बात तुम याद रखना।" इतना कहकर वो तेज़ क़दमों से चली गई। मैं बर्फ की तरफ जम चुका था। मेरी साँसे जैसे जहां थी वहीँ ठहर गई थी। सब कुछ घूमने लगा आँखों के सामने। मैं भारी क़दमों से घर आ गया। सारी रात लेटा लेटा  रोता रहा। वो इतना कुछ कहना चाहती थी और मैं उसकी आँखों से कुछ भी नहीं पढ़ सका। वो क्या कहना चाहती थी काश कभी मैं समझ पाता। अब तो सारी  दुनिया ख़त्म होने को है दो दिन बाद।
 
 रविवार दो दिन बाद ही था। क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा था। दो दिन निकल गए। रविवार को सुबह ही एक छोटा ट्रक उसके घर के सामने खडा था। सामान लादा जा रहा था। कुछ देर बाद ट्रक लदकर चला गया।  शाम को जब मैं उसके घर की तरफ गया तो वो सभी लोग एक तांगे में बैठ रहे थे। मैंने उसकी आँखों को देखा। पूरी तरह से लाल थी। शायद वो बहुत रोई थी। हम दोनों की नज़रें मिली। तभी तांगा  चल पडा। कुछ देर मैं अपनी सायकल तांगे के पीछे चलाता रहा मगर बाद में स्टेशन के आते ही मैं रुक गया। स्टेशन में जाते वक़्त उसने मुझे और मैंने उसे आखिरी बार देखा। मेरी आँखें भी अब बहुत बह रही थी। वो सुबकते हुए स्टेशन में दाखिल हो गई।
मैं दो दिन कोलेज नहीं गया। सारे सारे दिन रोता रहता। जब माँ ने पूछा तो मैंने सब कुछ साफ़ साफ़ बता दिया। माँ ने रात को पिताजी को सब बात बताई। पिता जी को काटो तो खून नहीं। जोर से बोलते हुए कहा " पढ़ाई की चिंता नहीं। साहबजादे इश्क फरमाना चाहते हैं। अपनी औकात देखी है कभी! पढ़ाई ख़त्म हुई नहीं है। नौकरी हो जाए तब ऐसी बातें सोचना।"
मैं टूट चुका था। पढ़ाई में दिल बिलकुल नहीं लग रहा था। एम् ए प्रीवियस में मैं फेल हो गया। पिताजी ने खूब डांट लगाईं। मुझे अपने मौसाजी के यहाँ अल्मोड़ा पढने भेज दिया। मौसा मौसी ने मेरा साथ खूब दिया। बहुत समझाया। सभी घर वालों के बिना मेरी जिंदगी बिखरने लगी। एक साथ दो दो जुदाई ने मुझे हर तरह से तोड़ कर रख दिया।  मैं कुछ संभल गया। पिताजी कभी कभार मौसाजी से मेरी खबर ले लेते। माँ के ख़त आते। मैं जवाब भी देता। अपनी गलती मानता हर ख़त में। अपने पास बुलाने को कहता। माँ का जवाब आता कि " कुछ बन जाओ फिर मैं बुला लुंगी। अभी पिताजी नहीं आने देंगे। छोटे भाई बहन पर बहुत गलत प्रभाव पड़ा  है इस बात का। आस पड़ोस और रिश्तेदारों में भी बात  फ़ैल गई है। हमारी बहुत बदनामी हुई है। सभी रिश्तेदार यही कहते हैं कि लड़का हाथ से निकल गया है। दूर ही रखो कुछ साल वरना बेटी का रिश्ता नहीं होगा। हम मजबूर हैं तुम्हें नहीं बुला सकते हैं अभी।" 
एम् ए पूरी हो गई। मेरी नौकरी मौसा ने वहीँ एक लकड़ी के कारखाने में लगवा दी। मौसा शिक्षक थे। उनका तबादला कहीं और हो गया  और मैं फिर से तनहा हो गया।  पिताजी को मेरे नौकरी की बात पता लग चुकी थी मगर उनका कोई ख़त नहीं आया। अब मां के ख़त भी आने बंद हो गए थे। मैंने सोचा इस बार मालिक जब मेरा प्रमोशन करेगा तब ढेर सारी खरीद दारी करूंगा सभी के लिए और घर जाकर सभी को चौंका दूंगा।
फिर वो दिन भी आया जब मैं सभी के लिए कपडे और मिठाई लेकर काठगोदाम अपनी कोलोनी पहुंचा। घर पर ताला लगा हुआ था। पड़ोसियों  ने खबर दी कि पिताजी की ट्रांसफर मुग़ल सराय हुए चार माह बीत चुके हैं। किसी के पास मेरे पिताजी का मुग़ल सराय का पता नहीं मिला। पास वाली दूकान के सेठ ने मुझे इतना भर बताया कि मेरी ताई और तायाजी ने सभी के कान भरे और ऐसे भरे हैं कि अब मेरे घर वाले मुझ से हर तरह का रिश्ता ख़त्म कर चुके हैं। मेरे लिए अब सभी दरवाजे बंद हो चुके हैं। मैंने यही सोचा कि  हमारे साधारण वर्ग के समाज में ऐसा आम है कि  छोटी सी घटना से किसी को भी घर परिवार के लिए अशुभ मान लिया जता है और रिश्तेदार आग में घी का काम कर देते हैं। मैं सभी को याद करता हुआ घर लौट आया। इसी तरह से वक़्त बीतता गया और दो साल निकल गए। मेरी हंसी गायब हो गई। मैं अब बहुत कम बोलता था।
मेरी सब बात जब मेरे सेठ को पता चली तो उसने मुझे कुछ दिन की छुट्टी दी और कहा कि मैं मुग़ल सराय जाकर अपने घर वालों से अपनी पहल पर मिलकर उनसे माफ़ी मांग लूँ और उन्हें मना लूँ। मुझे बात जंच गई। मैं मुग़ल सराय आया। पिताजी के विभाग के हिसाब से सरकारी ऑफिस का पता चल गया। जब मैं उनके ऑफिस पहुंचा और उनके बारे में पूछा तो जो जवाब मिला वो मुझे जीते जी मार डालने से कम नहीं था। उनके एक सहकर्मी ने मुझे कहा " आज से करीब तीन महीने पहले की बात है। तुम्हारे माता-पिता बाज़ार से घर लौट रहे थे। रात का समय था। रेलवे क्रोसिंग पर उन्हें तेज गति से आ रही गाडी का अंदाजा नहीं लग सका कि  वो किस लाइन पर आ रही है। वे दोनों उस ट्रेन के नीचे आ गए।" मैं बेहोश होकर वहीँ गिर गया। होश आने के बाद और पूछताछ से यह पता चला कि मेरे ताया-ताईजी मेरे छोटे भाई बहन को अपने साथ ले गए।
अब हर तरह से मेरी दुनिया ख़त्म हो गई थी। कुछ भी शेष नहीं था जिसे मैं गँवा सकूँ। मैंने नौकरी छोड़ने का फैसला किया। सेठ ने मुझे नहीं छोड़ा। मैं कुछ दिन और रुका। कुछ दिन बीते तो मैं अल्मोड़ा छोड़कर मसूरी आ गया। सेठ ने ही मुझे अपने ससुराल वालों के होटल में भेज दिया ये सोचकर कि होटल में काम कम रहेगा और आने जाने वाले लोगों से मेरा दिल बहल जाएगा और मैं जल्दी सामान्य हो जाऊँगा। होटल में मेरा दिल लग गया। अब मैं यूहीं लिखने लगा। जो भी दिल में आता डायरी  में लिख देता। एक बार मेरे होटल में वाराणसी के एक प्रकाशक आकर ठहरे। मैंने बातों ही बातों में अपने लिखे के शौक के बारे में बताया। उन्होंने मेरी लिखी एक लघु कथा पढ़ी।वो उसे अपने साथ ले गए। महीने भर बाद एक लिफाफा मेरे नाम आया। एक पत्रिका थी जिसमे मेरी लिखी वो लघु कथा छपी थी। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब तो मैंने उन प्रकाशक को अपनी लिखी और भी कई कहानियाँ भेजी। उनमे से भी कई छपी अलग अलग पत्रिकाओं में। साल भर में ही मेरी करीब दस कहानियाँ छाप गई। अब तो पत्रिकाओं के ऑफिसों से पत्र और फोन आने लगे कि कहानी भेजिए कोई। मेरा हौसला लगातार बढ़ता चला गया। अब नौकरी बाधक बनती जा रही थी मेरे लेखन में। आखिरकार मैंने नौकरी छोड़ दी। होटल के मालिक से बात कर के कुछ पैसे उधार लेकर मैंने इस घर को खरीद लिया।

 अब मैं सारा समय लिखने में लगाने लगा। लखनऊ, वाराणसी, आगरा, दिल्ली और मेरठ से निकलने वाली कई पत्रिकाओं में मेरे लेख, कहानियाँ और लघु उपन्यास छपने लगे। मुझे लोग जगह जगह साहित्यिक गोष्ठियों में बुलाते मगर मुझे पता नहीं कहीं बहार जाने में घबराहट महसूस होने लगी थी कि फिर कहीं जाउंगा तो और कोई बुरी खबर ना मिल जाय मुझे। मैं अपने आप में ही सिमटकर रह गया।
फिर अचानक एक दिन मेरी जिंदगी के सफ़र को डायरी में उतारने की इच्छा पैदा हुई। मैंने डायरी में अब तक से सफ़र को लिखना शुरू कर दिया। मगर कई घटनाएं अपने मन से भी जोड़ी क्यूंकि ये सफ़र ऐसा नहीं था कि लोग रूचि से पढ़ें। पूरे साल भर की मेहनत रंग लाइ और वाराणसी वाले प्रकाशक श्री मुरली मनोहर जी शास्त्री मेरे सामने यहीं बैठे थे। उन्होंने उपन्यास छपने का जिम्मा ले लिया। उपन्यास छपा और बिका ; खूब बिका। सभी शहरों से बधाई सन्देश आये। कई संस्थानों ने मुझे सम्मानित किया। लेकिन मैं एक भी सम्मान लेने मसूरी से बाहर नहीं गया। वो डर अभी तक मेरे दिल में घर किये हुआ था। जब मेरे उपन्यास का सातवाँ संस्करण छापा तो दिल्ली से खबर आई कि मेर अब तक के हिंदी साहित्य के योगदान और मेरे इस आत्मकथा रुपि उपन्यास तनहा आकाश को इस साल का साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है तो मैं तनहा ही रो उठा। आज इतना बड़ा सम्मान मिल रहा है और मेरे परिवार में ख़ुशी मनाने वाला कोई नहीं। शास्त्री जी ने मुझे प्रेम्पुर्वक्क डांटकर कहा " आकाश ये पुरस्कार लेने तुम दिल्ली जा रहे हो। हमारा आदेश है।" मैंने शास्त्रीजी के आदेश को मान लिया और दिल्ली जाकर इस सम्मान को ग्रहण किया। देहरादून से रवाना हुआ तो एक लड़की मिली; वो तुम हो और आज मेरे सामने बैठी हुई हो। शीतल मेरी जिंदगी का ये अब तक का सफ़र है।"
शीतल अब तक यह सब सुनते सुनते जैसे कहीं दूर आसमान में पहुँच कर खो गई थी। उसकी आँखें सूनी हो गई थी और वो लगातार आकाश को देखे जा रही थी और आंसू बहते जा रही थी। ऐसा सफ़र जिसमे हर मोड़ पर एक ऐसी खबर की इंसान हिल जाए, टूट जाए ; ख़त्म हो जाए। लेकिन इस इंसान ने अपने अश्कों को खुद ही पिया , हर सदमे को झेला, हिम्मत ना होते हुए भी जिंदगी से हार नहीं मानी। शीतल ने आकाश से कहा "अंकल जी; क्या इस से भी संघर्षपूर्ण सफ़र हो सकता है किसी का?"
आकाश ने एक गहरी सांस ली और बोला " शीतल, मुझे सफलता तो मिली अंत में। हज़ारों ऐसे लोग भी हैं जो इस अंजाम तक नहीं पहुँच पाते। बीच में ही ख़त्म हो जाते हैं। और अगर कुछ बच भी जाए तो अंतिम सांस तक संघर्ष करते करते कब इस दुनिया से चले जाते हैं किसी को पता ही नहीं चलता। एक शेर याद आ गया ग़ज़ल का शीतल। ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई से ; खुदा किसी को किसी से मगर जुदा ना करे।"
शीतल की रुलाई रुक नहीं पा रही थी। आकाश उठा और शीतल के लिए पानी ले आया। जब शीतल पानी पि रही थी तो आकाश बोला " मैंने तो यह सब कुछ खुद झेला है मगर तुम तो इसे सुनकर ही रोने लगी! अभी तो तुम्हारा सफ़र शुरू हुआ है। हौसला बनाए रखो। हौसला है , जीने की तमन्ना है तो सब कुछ है इस दुनिया में वरना कुछ भी नहीं।"
शाम हो चली थी। आकाश रसोई की तरफ बढ़ा चाय बनाने के लिए क्यूंकि आज उसने देंजिंग को छुट्टी दे दी थी दोपहर में बाद। आकाश नहीं चाहता था कि देंजिंग उसकी कहानी सुने। शीतल ने जब आकाश को रसोई के तरफ जाते  हुए देखा तो उसके पीछे आते हुए कहा " अंकल जी , चाय मैं बनाती हूँ। आज आप मेरे हाथ की चाय पीजिये।" शीतल चाय बनाकर ले आई। दोनों चाय पीने लगे।
देर शाम देंजिंग आकर रात का खाना बना गया। आकाश शीतल के साथ थोडा बाहर जाकर पहाड़ी पर बने घुमावदार छोटे छोटे रास्तों पर घूम आया। रात को खाने के बाद शीतल ने आकाश के लिए कोंफी बनाई। आकाश ने दिल खोलकर कोफ़ी की तारीफ करते हुए कहा " वाह, आज तक मेरे अलावा मेरे जैसी कोफ़ी कोई नहीं बना सका ; मगर आज तुमने मुझे भी मात दे दी।" शीतल बहुत खुश हो गई। कुछ देर ख़ामोशी छाई रही। बाद में शीतल बोली " अंकल जी, मुझे तो सिर्फ इतना ही बताया है मेरी माँ ने कि मेरे पापा शराबी और जुआरी थे। पैसे बहुत थे मगर इस आदतों की वजह से कोई उन्हें लड़की नहीं देता था। मेरे नाना-नानी ने मेरी माँ की उनके साथ ज़बरदस्ती शादी कर दी थी। माँ ने कहा कि इस शादी से मेरे पापा ने मेरे नाना-नानी को बहुत सारे रूपये भी दिए थे। बहुत लालची थे मेरे नाना-नानी माँ बताती है। मेरी माँ को बहुत तंग  किया करते थे। शादी के बाद मेरे पापा माँ शराब पीने के बाद बहुत मारते थे। बहुत ज़ुल्म करते थे। शादी के साल भर बाद ही मेरा जनम हो गया। मेरी माँ मैं जब दो महीने की थी तो एक दिन रात को घर छोड़कर और ढेर सारा पैसा लेकर ऋषिकेश आ गई। वहाँ एक आश्रम में वो रहने लगी। मेरी स्कूल की पढ़ाई के बाद माँ ने मुझे उसी आश्रम के एक और महिला की मदद से मुझे दिल्ली पढने भेज दिया। बाद में माँ ने आश्रम की मदद से एक छोटा घर अलग से ले लिया है उसी घर में एक छोटा स्कूल चला रही है। मैं पढने के बाद मान को दिल्ली बुला लुंगी और वहीँ कोई नौकरी कर लुंगी। माँ ने बहुत बुरे दिन देखे हैं। मैंने माँ को कई बार आसमान की तरफ तकते और आंसू बहाते  हुए देखा है। कभी कुछ नहीं बताती कि वो क्या सोचती है? क्या याद आता है ? आखिर क्या है उनके दिल में जो वो मुझसे छुपाये हुए है। मेरे सामने आते ही वो मुस्कुरा देती है और मुझे अपने गले से लगा लेती है। मैं पूछती हूँ तो एक ही जवाब देती है " हर बात बताई नहीं जाती। कई बातें दिल में दफ़न कर रखनी पड़ती है। कई बातों का सिर्फ खुद से ही सरोकार होता है। उन पर खुद का ही अधिकार होता है। तू जानकार क्या करेगी। तू अपनी जिंदगी बना, अपनी जिंदगी जी। मेरे ग़मों को मत याद रख। तेरी जिंदगी में खुशियाँ भरना मेरा काम है . मैं तुझे अपने गम क्यूँ दूँ? तुझे खुश देखती हूँ तो मैं सब गम भूल जाती हूँ। तू खुश रहाकर। मेरे आंसुओं की परवाह ना कर। अब इन आँखों को आंसुओं से बेपनाह मौहब्बत हो गई है। जब तक आंसू आँखों को भिगोते नहीं ये आँखें नींद की आगोश में नहीं जाती। जब तू लगातार खुश रहने लगेगी ना तो देखना ये आंसू भी एक दिन सूख जायेंगे।"
आकाश अपनी जगह से उठा, उसने शीतल के सर पर हाथ रखा और बोला " तुम सुबह से आई हो तभी से ग़मों के समन्दर में नहा रही हो। अब तुम सो जाओ। बहुत थक गई होगी तुम। सुबह उठकर हम घूमने चलेंगे। जाओ सो जाओ।" शीतल को आकाश ने कमरा बता दिया जहां एक पलंग लगा हुआ था। शीतल वहीँ लेट गई। शीतल की आँखों में बार बार अपनी माँ चेहरा आने लगा; कहीं दूर खोया हुआ। कुछ ही पलों में शीतल गहरी नींद में थी।
सुबह आकाश जब हर रोज़ की तरह घूमने निकलने को तैयार हुआ और शीतल के कमरे में झांका तो शीतल सोई हुई मिली। आकाश उसे देखकर मुस्कुराया। उसके करीब आकर उसने शीतल के सर पर हाथ फेरा और घुमने निकल गया। आकाश के जाने के कुछ ही देर बाद शीतल जाग गई। उसने ब्रश किया, चाय बनाकर पी और घर में सभी कमरों को घूम घूमकर देखने लगी। 

आकाश का लिखने का कमरा अब उसके सामने था। कोने में एक टेबल लगी थी। उस पर कई डायरियां पड़ी थी। एक बहुत बड़ा सेल्फ बना हुआ था जिस में आकाश कहानियाँ जिन जिन मेग्ज़िन्स में छपी थी वे सभी करीने से सजाकर रखी  हुई थी। तनहा आकाश की कई प्रतियां एक सेल्फ में अलग से रखी हुई थी। शीतल एक एक कर आकाश की लिखी हुई डायरियों को उलट पुलटकर देखने लगी। अचानक उसकी नज़र एक बहुत ही पुरानी सी लग रही डायरी पर पड़ी। उसने वो डायरी उठाई और खोलकर पढने लगी। एक दो पाने पढने के बाद उसे यह यकीं हो गया की ये आकाश की सबसे पुरानी डायरी है और इसमें आकाश ने अपने स्कूल -कोलेज के दिनों की तमाम बातें लिखी है। शीतल वहीँ कुर्सी पर बैठकर वो डायरी पढने लगी। जैसे जैसे वो डायरी के पन्ने पलटती गई उसकी आँखें पढने के साथ साथ सोचने लगी और उसकी पेशानी पर बल पड़ने लगे। बीच बीच में थोड़ा रुक जाती; कुछ याद करती , फिर पढने लग जाती। यह सिलसिला लगातार चलने लगा। एक जगह आकर शीतल रुक गई पढ़ते पढ़ते। उसने उस पन्ने को दोबारा पढ़ा। इसके बाद फिर पढ़ा। शीतल ने कुछ पन्ने फिर से पलते और फिर से पढ़ना शुरू कर दिया। उसने उस एक पन्ने को कई बार पढने के बाद अब आगे पढने लगी। शीतल की आँखों में चमक भी आई और आंसू भी। शीतल उस डायरी को पूरा पढने के बाद अपनी आँखों को पौंछते हुए नहाने चली गई। शीतल जब नहाकर तैयार होकर अपने कमरे से बाहर निकली तब तक आकाश आ चुका था। वो बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था। दो ग्लास चाय के
टेबल पर रखे हुए थे। शीतल उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई। आकाश ने अखबार से अपनी नज़रें हटाई और शीतल की तरफ देखा। उसे शीतल का चेहरा कुछ कुछ गुस्से में दिखा। आकाश सोचने लगा कि शीतल के चेहरे में ऐसा क्या है जो बार बार कुछ याद दिला देता है और सोचने पर मजबूर कर देता है। दोनों चाय पीने लगे।
अचानक शीतल बोली " अंकल जी, आप काठगोदाम की सरकारी कोलोनी में रहने वाले किसी श्री देव प्रकाश जी को जानते हैं?"
शीतल का यह सवाल आकाश को भीतर तक हिला गया। उसके हाथों से अखबार लगभग फिसल गया था। वो संभला। शीतल की तरफ देखा। शीतल का चेहरा कठोर था मगर गुस्सा नहीं था। आकाश ने धीरे से कहा " शायद हाँ। मगर ..."
शीतल ने बीच में टोकते हुए कहा " शायद! क्या आप पक्की तरह से शायद शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं अंकल जी या कुछ मुझ से छुपा रहे हो?"
आकाश अब कुछ ठिठका मगर फिर संभलते हुए बोला " हूँ, वो हमारे घर से कुछ ही दूरी पर शायद रहते थे।"
शीतल - " उनके घर में किसी से आपकी जान पहचान थी क्या उन दिनों?"
आकाश इसी सवाल से बचना चाह रहा था और शीतल ने वो ही सवाल बन्दूक से गोली की तरह दाग दिया था। आकाश ने जवाब दिया रुक रुक कर बोलते हुए " एक ही कोलोनी में रहते थे तो सभी को शकल से तो जानते ही थे सभी।"
शीतल - " कौन कौन था उनके घर में? कुछ याद आता है आपको अंकलजी?"
आकाश ने कुछ कठोरता से शीतल से ही जवाब पूछ लिया " ये सब तुम क्यों पूछ रही हो? इन सब से तुम्हें क्या हासिल? तुम तो उस वक़्त थी भी नहीं सी दुनिया में!"
शीतल - " अंकल जी; पहले आप जवाब दीजिये मेरे सवाल का , फिर मैं आपके सवाल का जवाब भी दूंगी विस्तार से। उस घर में और कौन कौन रहता था जिसे आप अच्छी तरह से जानते थे"
आकाश में ध्यान दिया कि शीतल ने  जब "अच्छी तरह" ये दो शब्द बोले तो उसने बहुत जोर डाला था इन दोनों शब्दों पर। वो मनन ही मन सोचने लगा कि शीतल देव प्रकाश, सरकारी कोलोनी काठगोदाम यह सब कैसे जान गई। अगर जान भी गई है तो उसका इन सबसे क्या नाता है? और अगर कोई नाता भी है तो वो उससे क्यों पूछ रही है की वो किस किस को अच्छी तरह से जानता है उस घर में? आकाश ने अंदाज लगा लिया कि शीतल ने जरुर उसकी वो पर्सनल डायरी पढ़ ली है जो वो नियमित रूप से कोलेज के वक़्त लिखता था। उसने यह सोच लिया कि  आखिर सच जवाब देने से शीतल क्या हासिल कर लेगी ; क्यूंकि शीतल तो उस वक़्त जन्मी भी नहीं थी।  आकाश ने बात संभालते हुए जवाब दिया " देव प्रकाश जी का परिवार रहता था। उनकी पत्नी थी और शायद एक बेटी भी थी।"
शीतल ने आँखें तरेरी और थोड़ा मुस्कुराते हुए बोली " शायद एक बेटी थी  या एक बेटी थी जिसे आप अच्छी तरह से जानते थे।"
आकाश ने फिर ध्यान दिया कि इस बार भी शीतल ने "अच्छी तरह" पर जोर डाला है। आकाश ने अब यह मान लिया मन ही मन कि शीतल उस डायरी को पढ़कर उसी से उसके अतीत के कुछ अनछुए पहलुओं को जानना चाहती है जो उसने उस से नहीं बताये हैं।
आकाश बोला " तुम भी ना गज़ब की जिद्दी लड़की हो। हाँ मैं उनकी एक बेटी थी जिसे मैं अच्छी तरह से जानता था।  तुमने शायद मेरी पर्सनल डायरी को पढ़ लिया है शीतल। किसी की पर्सनल डायरी पढ़ना गलत बात होती है। मैंने तुम्हें सब कुछ बता दिया अपने बारे में तो तुम खोद खोदकर और बातें पूछ रही हो? आखिर क्या हासिल कर लोगी तुम इन सब से? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम यह सब जानकर खुद कोई कहानी लिख दो। आखिर क्यूँ तुम उस वक़्त की बातें पूछना छह रही हो?"
शीतल की आँखें छलछला उठी; वो बोली "  अंकल जी, आप उस लड़की को बहुत अच्छी तरह से जानते थे; उस लड़की को बेहद बेहद प्यार करते थे। वो भी आपसे बे-इन्तहा मौहब्बत करती थी। मगर आप दोनों कभी एक दूजे को वक़्त रहते बता नहीं सके और जुदा हो गए। "
आकाश ने कहा " हाँ ये सच है। जब तुमने सब पढ़ लिया तो मेरे मुंह से क्यूँ सुनना चाहती हो शीतल? आखिर क्या मिल जाएगा तुम्हें?"
शीतल - " क्या नहीं अंकल जी , शायद बहुत कुछ मिल जाएगा। आपने उस लड़की का नाम जानबूझकर डायरी में अनामिका लिखा और असली नाम छुपाया है। आप उस लड़की को इतना चाहते थे, चाहते हो कि आपने अपने इस घर का नाम भी अनामिका रखा है। आपने असली नाम क्यूँ नहीं लिखा डायरी में अंकलजी?"
अब आकाश के घबराकर चौंकने की बारी थी। शीतल को कैसे पता कि अनामिका असली नाम नहीं है। ऐसा तो उसने कहीं नहीं लिखा कि  अनामिका असली नाम नहीं है। शीतल यह सब कैसे जानती है?
आकाश ने लगभग हकलाते हुए शीतल से कहा " जब हम मिल नहीं सके तो उसका नाम लिखकर मैं उसे हर जगह जाहिर नहीं करना कहता था। आखिर ये मेरा पर्सनल मामला है। सभी को क्यूँकर बताना। मगर तुम यह सब कैसे जानती हो? तुम्हें क्या पता कि अनामिका असली नाम नहीं है? तुम असली अनामिका को जानती हो क्या?"
शीतल ने आकाश की तरफ एक अलग नज़र से देखा, अब शीतल की आँखों में गुस्सा या सवाल नहीं था, उसकी आँखों में एक याचना थी; एक अजीब तरह का सुकून था जो गंगा जमुना की तरह आंसुओं के साथ बह बहकर बाहर आ रहा था; शीतल की जुबां लड़खड़ाई पहली बार ; उसने रुंधे गले से कहा " अंकल जी अनामिका का असली नाम सरिता है ना? "
आकाश ने आज बरसों बाद सरिता नाम एक आवाज के माध्यम से सुना ; वर्ना सरिता नाम उसकी यादों में हमेशा हमेशा के लिए दफन हो चुका था। वो शीतल को आश्चर्य से देखने लगा और सोचने लगा कि शीतल का सरिता से क्या सम्बन्ध है? शीतल की जुबां पर सरिता नाम कैसे आ गया? आकाश ने अपनी सारी ताकत लगाईं और अपने सर को हाँ  की मुद्रा में हिलाते हुए कहा " हाँ, सरिता ही अनामिका है। मगर तुम ये नाम कैसे जानती हो? तुम्हें यह सब कैसे पता ? तुम्हारा देव प्रकाश जी और उनके परिवार से क्या नाता है? सरिता के बारे में तुम इतना सब कुछ मेरी डायरी से जान सकी मगर ये नाम तुम्हें कैसे पता चला? "
शीतल अपनी कुर्सी से उठी ; आकाश के सामने आकर खड़ी हो गई। शीतल ने आकाश का हाथ पकड़ा और नीचे ज़मीन घुटनों के बल बैठते हुए बोली " अंकलजी, सरिता मेरी माँ है।"
आकाश को ऐसे लगा जैसे कोई रेत का तूफ़ान उसे चारों तरफ से घेर गया है अचानक से ही। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है और वो चिल्ला रहा है -- " मुझे बचाओ , मैं इस रेतीले तूफ़ान में फंस गया हूँ। मुझे बचाओ सरिता मुझे बचाओ। सरिता ...........सरिता ......."
अचानक उसे शीतल की आवाज सुनाई दी " अंकलजी, अब मुझे पता चला कि मेरी माँ क्यूँ हर वक्त आकाश की तरफ देखती रहती है सूनी आँखों से।  उन्हें शायद आज भी दूर आसमान में आपका चेहरा आकाश का चेहरा दिखाई देता है जिसे वो घंटों निहारती रहती है। अंकल जी, आज मुझे पता चला कि मेरी माँ  की जिंदगी आज तक अधूरी क्यूँ है। काश मैं कभी समझ पाती या जान पाती कि माँ  की पिछली जिंदगी में यह सब हुआ था तो आपको बहुत साल पहले ही खोज निकालती। मैं सब कुछ भुलाकर आपकी तलाश में निकल जाती और आपको तलाशकर ही दम लेती। "
आकाश की आँखें अचानक बहने लगी। आकाश को पता ही नहीं चला कि वो रो रहा है। जा आंसुओं की बूँदें उसकी हथेली पर गिरी तब उसे एहसास हुआ की ये बूँदें उसी की है। आकाश अपनी आँखों को बंद किये वो मंज़र देख रहा था तब सरिता स्टेशन में दाखिल हो रही थी और वो उसे अपने से हमेशा हमेशा के लिए दूर होती देख रहा था।
शीतल ने अपने रुमाल से आकाश की आँखों के आंसू पौंछे। आकाश ने जब अपनी आँखें खोली तो उसे शीतल के चेहरे में सरिता का चेहरा नज़र आया। आकाश ने मन ही मन सोचा कि क्यूँ उसे शीतल का चेहरा पहली मुलाकात से ही जाना पहचाना लग रहा था। उसने शीतल के हाथों से अपने हाथ अलग किये और उसके सर पर अपने दोनों हाथ रखते हुए बोला " शीतल; तुम जैसी बेटी हो तो कोई भी माँ  अपने आप को धन्य समझेगी। उम्र के इस पडाव पर भी तुम अभी तक अपनी माँ की ही खुशियाँ तलाश रही हो। उसी के लिए तुम जिए जा रही हो। "
शीतल ने आकाश की गोद में अपना सर रख दिया और फुट फुट कर रोने लगी। आकाश लगातार शीतल के सर को अपने दोनों हाथों से सहलाए जा रहा था। वो सोचने लगा कि कुदरत भी क्या क्या रिश्ते बना देती है! कैसे कैसे बिछुडों को कहाँ कहाँ मिला देता है।
शीतल की रुलाई जब थमी तो उसने अपना चेहरा ऊपर किया और आकाश के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले लिया। उसने आकाश से कहा " आप मेरी माँ से मिलने चलोगे ना पापा!"
आकाश पापा संबोधन से हैरानी से शीतल की तरफ देखने लगा। वो शीतल का बाप कैसे हो सकता है। उसने तो सरिता को सिर्फ चाहा था; कभी उससे कोई इज़हार नहीं किया, कभी कोई बात नहीं की; सरिता की शादी किसी और के साथ हुई, शीतल उसी की बेटी है, उसका पिता कोई और है . उसका पिता भले ही आज उसके साथ्ज नहीं रहता मगर ज़िंदा तो होगा ही; दुनिया की नज़रों में तो वो ही शीतल का पिता है; फिर ये संबोधन उसके लिए क्यूँ शीतल द्वारा !
आकाश के छेरे के भावों को शीतल ने पढ़ लिया था शायद। वो बोली " पापा; जब मेरी माँ ने कभी मेरे जनम के लिए जिम्मेदार इंसान को अपना मन से माना ही नहीं तो फिर उसके साथ हमारा क्या रिश्ता? सिर्फ जिस्मानी रूप से सात फेरे लेने से और मन और आत्मा से हर पल जुदा रहने वालों को पति-पत्नी कैसे कहा जा सकता है? विवाह के सात फेरे ही काफी नहीं होते इस रिश्ते के लिए। मन और आत्मा का मिलन उससे कहीं ज्यादा जरुरी होता है पापा।  समाज और दुनिया की नजरों में रिश्ता जो दिखता है वो रिश्ता असली रिश्ता नहीं होता, जो रिश्ता विचारों को ; मन और आत्मा को मिलाये वो रिश्ता कहलाता है। मन और आत्मा से तो आप दोनों ने प्रेम किया था; वो बात अलग है कि जिस बंधन में आप दोनों को बंधना था उसमे आप बांध नहीं पाए; उस रिश्ते में आप जुड़ नहीं पाए। तो क्या हुआ; आज तो मैं आप दोनों को उस रिश्ते में जोड़ सकती हूँ। उस बंधन में बाँध सकती हूँ। मेरा यह दावा भी है कि  आप दोनों मेरी इस बात को टाल  भी नहीं सकते। कोई माँ -बाप आखिर अपनी औलाद की सही बात को नकार सकते हैं क्या? "
आकाश शीतल की बातों को सुनकर सोचने लगा कि इस लड़की ने आज उसे रिश्तों और बंधनों की एक नई  परिभाषा समझाई है; वो परिभाषा जो किसी भी तरह से गलत नहीं है मगर दुनिया की नज़रों में तो गलत ही है। मानवीय पहलुओं को छूनेवाली अनगिनत कहानियाँ और उपन्यास लिखने वाले साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कार लिए इस साहित्यकार के पास आज शीतल की इन बातों का कोई ठोस कारण नहीं था जिस से वो शीतल की बातों को नकार सके।
शीतल ने आकाश से कहा " पापा, हम ग्यारह बजे की बस से ऋषिकेश चल रहे हैं। मैं नाश्ता बनाकर ला रही हूँ तब तक आप कपडे पहनकर तैयार हो जाईयेगा।" इतना कहकर शीतल रसोई में चली गई। आकाश अपनी जगह ही बैठा रह गया।
 
शीतल जब नाश्ता लेकर आई तो उसने देखा की आकाश उसी तरह बैठा हुआ है। शीतल ने नाश्ता टेबल पर रखा और आकाश में कमरे में जाकर एक पेंट और कमीज लेकर आ गई। उसने बनावटी गुस्से से कहा " तो आप मेरी बात मानोगे नहीं!"
आकाश के चेहरे से यह साफ़ था कि वो इतनी जल्दी शायद यह फैसला नहीं कर पा रहा था कि आखिर अब उसके लिए अगला कदम क्या होना चाहिए। शीतल सब समझ गई और बोली " पापा; जब आपने सरिता को इतने दिल से चाहा है और आज भगवान् ने आप दोनों को मिलने के लिए एक आखिरी मौका दिया है तो क्या आप अब भी भगवान् के इस ईशारे को नहीं समझ रहे हो! अगर आप नहीं मिलना चाहते तो सरिता से , नहीं अपनाना चाहते मुझे तो फिर यह अकेलेपन का नाटक क्यूँ? चेहरे पर बरसों से यह उदासी की नकली और दिखावे की चादर क्यूँ ओढ़ रखी है आपने? "
आकाश ने शीतल के इन सवालों से खुद को उलझा पाया; वो बोल " शीतल, समाज भी तो कोई चीज है जो इन सभी को देखती है। हम इस तरह से समाज को अनदेखा अकैसे कर सकते हैं?"
शीतल ने तमतमाए चेहरे से कहा " पापा, वो समाज उस वक़्त कहाँ था जब मेरी माँ की पैसों के लालच में एक शराबी और जुआरी के साथ शादी कर दी गई? उस वक़्त कहाँ था ये समाज जब वो शराबी मेरी माँ को दिन रात पीटता था, हर तरह के ज़ुल्म करता था। आज तक वो समाज कहाँ है जब वो शराबी और जुआरी जो आपके इस समाज की नजरों में उसका पति है; अपनी पत्नी और बेटी की कोई सुध लेने हमारी तलाश में नहीं निकला है? इन सब सवालों का आपका समाज जवाब दे सकता है ? क्या आप भी इन सवालों के जवाब दे सकते हो ?"
आकाश के पास कोई जवाब नहीं था शीतल के सवालों का। शीतल ने अपना बेग उठाया और आकाश के करीब आ गई। आकाश पहली बार शीतल से घबराया हुआ लगा। वो सोचने लगा की अब शीतल का अगला सवाल या कदम क्या होगा?
शीतल बोली " पापा, मैं बाहर आपका इंतज़ार कर रही हूँ। आप कपडे बदलकर आ जाइये। बस के छूटने में सिर्फ एक घंटा बाकी है अब।" 
आकाश शीतल को आत्मविश्वास से भरे क़दमों से बाहर की तरफ जाता देखने लगा। वो उठा , शीतल द्वारा दिए गए पेंट- शर्ट लिए और कपडे बदलने अन्दर चला गया। आकाश कपडे बदलकर जब बाहर गेट पर आया तो उसने देखा शीतल एक विजयी मुस्कान के साथ खड़ी  उसका इंतज़ार कर रही थी। शीतल ने आकाश को देखते ही कहा " मुझे पता था मेरे पापा मेरी बात कभी नहीं टाल सकेंगे।" आकाश मुस्कुरा दिया। शीतल आकाश का हाथ थामकर बस स्टॉप की तरफ आगे बढ़ गई।


जब बस ऋषिकेश पहुंची तो बस स्टॉप से केवल दस मिनट पैदल चलने के बाद आकाश ने देखा कि  शीतल एक घर की तरफ इशारा कर रही है। एक पुराना घर था; जिसके दो हिस्से थे। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। कई बड़े पेड़ थे उसी घर के चारों तरफ भी। शीतल ने घर का दरवाजा खोला और भीतर आ गई। आकाश भी अन्दर दाखिल हो गया। शीतल के घर के दुसरे हिस्से की तरफ इशारा करते हुए कहा " वहीँ स्कूल चलता है मम्मी का।" शीतल आगे बढ़ गई। आकाश जैसे ही घर के इस हिस्से में दाखिल हुआ उसे ऐसा लगा जैसे उसके कदम अचानक बहुत भारी हो गए हैं। हवाएं अचानक थम गई है। एक अजीब सा खालीपन मगर फिर भी अपनेपन से भरा हुआ एक एहसास उसके भीतर समाना शुरु हो गया है। वो दोनों एक बरामदे में पहुंचे। शीतल ने आकाश को एक पेड़ के पीछे खडा कर दिया और वो खुद बरामदे में चली गई। आकाश ने देखा कि एक महिला की पीठ उसकी तरफ थी जो बच्चों को पढ़ा रही थी। कुल दस-पंद्रह बच्चे बैठे हुए थे सामने। कुछ और बच्चे दूर कोने में बैठे कुछ लिख रहे थे। शीतल एकदम से उस महिला के सामने जाकर कड़ी हो गई। वो महिला , जो कि  सरिता थी, शीतल को देखकर चौंक गई और बोली " तुम तो कल आनेवाली थी ना! फिर आज ही कैसे आ गई? तुम्हारी सहेली की तबियत तो अब ठीक है ना? कैसी है अब वो?" आकाश समझ गया कि शीतल झूठ बोलकर ही मसूरी आई थी। शीतल बोली " वो एकदम ठीक है अब।" फिर वो बच्चों की तरफ मुड़ी और जोर से बोली " आज आप सब की आधे दिन की छुट्टी है। सब अपने अपने घर चले जाओ। चलो छुट्टी हो गई।" बच्चे आवाज करते हुए अपने अपने बेग उठाकर भागने लगे। सरिता ने आश्चर्य से शीतल की तरफ देखा और बोली " ये क्या पागलपन है ? बिना मतलब क्यूँ छुट्टी कर दी।"
शीतल ने सरिता का हाथ पकड़ा और बोली " मम्मी; आज मैं तुम्हें किसी से  मिलवाना चाहती हूँ। अपने साथ ही लाइ हूँ उन्हें। तुम शायद जिंदगी भर नहीं ढूंढ सकती थी जिन्हें मैं ढूंढ लाइ हूँ।" सरिता को कुछ समझ नहीं आया। शीतल ने सरिता के साथ उस पेड़ की तरफ रुख किया जिसके पीछे आकाश खडा था। आकाश ने पेड़ के पीछे से सरिता का चेहरा आज बीस-बाईस सालों के बाद देखा। उसे सरिता वैसी ही दिखाई दी जैसी वो उन दिनों दिखती थी बस वक़्त, हालात और इंतज़ार ने चेहरे को एकदम फीका और रंगहीन कर दिया था। आकाश के दिल की धड़कन तेज़ हो गई। सरिता ने शीतल से पूछा " किसे साथ लेकर आई है तू? मैं किसे ढूंढ रही थी जिनसे तू आज मिलवाना चाहती है? ये क्या पहेलियाँ है शीतल?"
शीतल ने पेड़ के एकदम पास पहुंचकर आवाज लगाईं  " पापा, अब आप सामने आ सकते हो।"
सरिता का सर चक्कर खा अगया। एक साथ उसके जहाँ में सवालों की बरसात  हो गई - क्या सरिता अपने बाप को दोबारा घर ले आई है? मगर ऐसा तो सम्भव ही नहीं है क्यूंकि वो तो उस से भी ज्यादा अपने बाप स एनाफ्रत करती है। फिर ये कौन है जिसे वो पापा पुकार रही है? क्या सचमुच वो उसके पति को फिर से ले आई है क्या?
सरिता जब तक और कुछ सोचती आकाश पेड़ के पीछे से निकलकर उसके सामने खडा हो गया था। शीतल आगे बढ़ी और आकाश का हाथ थामते हुए बोली " मम्मी, आज मैं अपने असली पापा को ढूंढ लाइ हूँ और तुम्हारे असली पति को भी। क्या तुम ढूंढ पाती इन्हें अपनी जिंदगी में कभी!"
सरिता और आकाश दोनों एक दूसरे को पलक झपकाए बिना देखने लगे। दोनों को ही यकीन नहीं हो रहा था की वे एक दूसरे के सामने आज बरसों बाद खड़े हैं और वो हो गया है जिसकी उन्होंने इस जनम में हर उम्मीद छोड़ दी थी।
शीतल ने सरिता का हाथ पकड़ा उसके काँधे पर अपना माथा टिकाते हुए बोली " मम्मी; चलो पापा के साथ ; हमें अब हमारा घर मिल गया है। अब यहाँ नहीं रहेंगे हम। एक नई जिंदगी जो शुरू करनी है हम तीनों को ही। तुम पापा के पास रुको, मैं थोड़ी ही देर में तुम्हारा सार सामान लेकर आती हूँ।" इतना कहकर शीतल ने सरिता का हाथ आकाश के हाथ पर रख दिया और खुद घर में चली गई।
कुछ देर एक दुसरे को बहती आँखों से निहारते आकाश और सरिता अचानक मुस्कुराए और सरिता ने आकाश के सीने पर अपना सर टिका दिया। शीतल दो बेग लेकर आ गई। उसने खुद को दोनों के बीच में किया और अपने एक हाथ से आकाश का हाथ थाम लिया  और दूसरे हाथ से सरिता का हाथ थाम लिया  और आगे बढ़ते हुए बोली " पापा-मम्मी जल्दी चलो मसूरी की बस छूटने में सिर्फ आधा घंटा बाकी है।"
एक साथ सभी के कदम आगे बढ़ चुके थे। तीनों की अधूरी जिंदगी आज एक पूरी जिंदगी बन गई थी।